गुरुवार, 18 अप्रैल 2024
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Written By Author शरद सिंगी

जनविश्वास को मोहित करतीं ये मनगढ़ंत कहानियां

जनविश्वास को मोहित करतीं ये मनगढ़ंत कहानियां - fake stories
आज हम उस अनोखे संसार में रह रहे हैं, जहां साजिश और षड्यंत्र की कहानियां धड़ाके से बनाई और बेची जा रही हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी की हत्या से लेकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के अवसान को लेकर आधिकारिक विवरण पर कई प्रश्नचिह्न हैं। साजिश और षड्यंत्र की इन कहानियों पर विश्वास करने वाले ग्राहक भी बहुत मिल जाते हैं। विश्व में वैसे तो सैकड़ों घटनाओं पर मनगढ़ंत परिकल्पनाएं मौजूद हैं किंतु हम कुछ प्रमुख घटनाओं की चर्चा करते हैं। 
 
अमेरिका में आज भी कई लोग हैं, जो चांद पर पहुंचने वाले प्रथम चन्द्र यात्री नील आर्मस्ट्रांग के चांद पर पैर रखने वाली घटना को धोखा मानते हैं। उनके अनुसार यह मात्र एक स्टेज शो था, जो नासा द्वारा प्रायोजित था। इसके लिए नासा ने एक खूबसूरत सेट लगाया था जिसमें एक प्रसिद्ध फिल्मकार की सहायता ली गई थी। यह अमेरिका द्वारा रूस के अंतरिक्ष कार्यक्रम पर अपना वर्चस्व दिखाने मात्र के लिए किया गया था। यह विश्व में अपनी अंतरिक्ष तकनीक को सर्वोत्तम दिखाने के लिए रचा गया एक षड्यंत्र था।
 
इस कहानी को पंख इसलिए लगे, क्योंकि चांद पर जो फोटो लिए गए उसमें अमेरिकी ध्वज को उड़ता हुआ दिखाया गया था। तर्कों के अनुसार, क्योंकि चांद पर हवा नहीं है किसी ध्वज का उड़ना असंभव है। यद्यपि नासा ने इस आरोप का खंडन करते हुए कहा कि झंडा जमीन में गाड़ते समय उड़ गया था। इसके अतिरिक्त उनके पास चांद से लाए गए पत्थर और मिट्टी भी थे किंतु फिर भी नासा अनेक लोगों को विश्वास नहीं दिला सकी। 
 
इसी तरह सितंबर 11, 2001 में न्यूयॉर्क के दो टॉवरों को वायुयान से उड़ाने की घटना को भी एक अमेरिकी साजिश बताया जाता है। कहानीकारों के अनुसार इस्लामिक आतंकवादियों पर दोष मढ़ने के लिए अमेरिका ने इस दुर्घटना को अंजाम दिया था। विश्व में अनेक लोग हैं, जो आज भी मानते हैं कि इस दुर्घटना के पीछे कुछ रहस्य हैं किंतु अभी तक इस परिकल्पना का कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।
 
उसी तरह विश्व में आज भी यह मानने वाले कम नहीं हैं कि अमेरिका ने इराक पर आक्रमण सद्दाम और उसके परमाणु हथियारों को लेकर नहीं अपितु इराक के तेल पर कब्जा करने के लिए किया था। यद्यपि अमेरिका कब से निकल गया और तेल वहीं रह गया किंतु कहानी पर विराम नहीं लगा है। 
 
पाकिस्तान इन कहानियों को बनाने की मशीन है। अल कायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन के बारे में तो वहां अनेक कहानियां प्रचलित हैं। आधे लोगों का मानना है कि ओसामा कभी पाकिस्तान में था ही नहीं। ओसामा को पाकिस्तान में दिखाना तो अमेरिकी शरारत है। पाकिस्तान के मीडिया की मानें तो भारतीय संसद पर हमला भारत द्वारा ही प्रायोजित था क्योंकि भारत, पाकिस्तान को दुनिया के सामने आतंकवादी देश दिखाना चाहता है। 
 
उनका यह भी कहना है कि है कि पाकिस्तान में हर आतंकी हत्याओं के पीछे भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ का हाथ है। इस तरह की तमाम कहानियां बड़े कुतर्कपूर्ण तरीके से पाकिस्तान के अवाम को परोसी जाती हैं और वहां का अवाम इन कहानियों को स्वीकार करता है, क्योंकि पूरे समाज की तर्क शक्ति को इतना कुंद कर दिया गया है कि अब वे सत्य और असत्य में भेद नहीं कर पाते हैं।
 
मनोवैज्ञानिकों ने पता लगाने की कोशिश की कि यदि किसी भी घटना को एक साजिश की तरह परोसा जाए तो उस पर विश्वास करने वाले लोग कौन होते हैं? उनके अनुसार ये वे अशक्त लोग जो अवांछित घटनाओं पर चाहते हुए भी कोई नियंत्रण नहीं कर पाते हैं। ये लोग अनिश्चितताओं और भय के दौर से गुजर रहे होते हैं। 
 
उदाहरण के लिए पाकिस्तान के अवाम को लीजिए। आतंक पर न तो उनका कोई नियंत्रण है और न ही उसका विरोध करने का साहस। ऐसे में उनके पास साजिश कथाओं पर विश्वास करने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। इस तरह वे तथ्यों को नकारकर अपने दामन पर लगे दागों को धोने की कोशिश करते हैं। 
 
अब भारत की बात करें। दुर्भाग्य है कि भारत भी बड़ी तेजी से इस कपटजाल में उलझता जा रहा है। यहां अपने राजनीतिक, धार्मिक अथवा व्यावसायिक लाभ पाने के उद्देश्य से मनगढ़ंत कहानियां बनाई जाने लगी हैं और तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया जाने लगा है। हमारा मीडिया इस मार्ग पर सबसे आगे हैं। हर घटना के पीछे साजिश दिखाना अनिवार्य-सा हो गया है। जिन पर सच बोलने की जिम्मेदारी है वे झूठ की बुनियाद पर औरों से आगे निकलना चाहते हैं। खबरों को पहले दिखाने की प्रतियोगिता में वे बिना सत्यता की जांच किए खबर को कभी रंगीन तो कभी संगीन बनाने की कोशिश करते हैं। अशिक्षित वर्ग गुमराह होता जा रहा है। सामान्य कहे गए कथन के अर्थ का अनर्थ निकालने की परिपाटी आरंभ हो चुकी है। 
 
भारत के लिए जरूरी है कि भारत के नागरिकों में आत्मविश्वास हो। भयमुक्त समाज की स्थापना हो ताकि हर साजिशी कहानी को लोग परख सकें कि उसमें कितना तथ्य और कितना फरेब है। आशा की किरण हमारा शिक्षित युवा वर्ग है, जो इन गढ़ी कहानियों पर विश्वास नहीं करता, जो समाज पर सकारात्मक प्रभाव न डालकर गुमराह अधिक करती हैं। 
 
हमारा विश्वास है कि जैसे-जैसे परंपरागत अंधविश्वासों में जकड़ी वर्तमान पीढ़ी निवृत्त होगी और उसकी जगह घटनाओं को तथ्यों के आधार पर विवेचन करने वाली पीढ़ी स्थान लेगी, तब इन षड्यंत्री कहानियों का ग्राहक कोई नहीं होगा, वही भारत के स्वर्णिम युग की शुरुआत होगी।