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अमेरिकी लोकतंत्र का क्रूर चेहरा

अमेरिकी लोकतंत्र का क्रूर चेहरा - crual face of US democracy
संयुक्त राज्य अमेरिका के मैरीलैण्ड राज्य के बाल्टीमोर शहर में पिछले दिनों एक अश्वेत युवक की पुलिस कस्टडी में हुई निर्मम हत्या के विरोध में भड़के जनाक्रोश को दबाने के लिए 27 अप्रैल को आपातकाल लगा दिया था। मैरीलैण्ड के गवर्नर लैटी होगन ने आपातकाल लगाने के साथ नेशनल गार्ड को राज्य में तैनात कर दिया था।
 
बाल्टीमोर शहर में 19 अप्रैल को 25 वर्षीय अफ्रीकी मूल के एक अमेरिकी अश्वेत युवक फ्रेडी ग्रे की एक सप्ताह तक मृत्यु से जुझते हुए मौत हो गई। फ्रेडी को अमेरिकी पुलिस ने 12 अप्रैल को उस वक्त गिरफ्तार किया जब वह पुलिस के आक्रामक रुख को देखकर भाग रहा था। गिरफ्तारी के एक घंटे के भीतर ही वह कोमा में चला गया। 
 
अमेरिका में पिछले वर्ष फर्ग्युसन में भी ऐसी घटना हुई थी। यह अपने आप में गरीब, दरिद्र अश्वेतों और धनी श्वेतों के बीच बढ़ती खाई को भी दिखाता है। श्वेतों और पुलिस का नजरिया अश्वेतों को पहली ही नजर में अपराधी मानने का रहा है। इसी वजह से फ्रेड्डी जैसे नवयुवकों की अकारण ही पुलिस द्वारा हत्या कर दी जाती है। 
 
वर्ल्ड सोशलिस्ट बेवसाइट के अनुसार इस वर्ष अभी तक 350 लोगों की हत्या पुलिस द्वारा की गयी है। यह तथ्य न केवल बेहद ही चौंकाने वाला है बल्कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों के घृणित लोकतंत्र की पोल भी खोल देता है। बाल्टीमोर की घटना यह दिखलाती है कि अमेरिकी शासकों ने पिछले वर्ष की फर्ग्युसन की घटना से कोई सबक नहीं सीखा है। 
 
9 अगस्त, 1914 को संयुक्त राज्य अमेरिका के मिसौरी प्रांत के फर्ग्युसन शहर में माइकल ब्राउन, की जिसकी उम्र महज 18 साल थी, पुलिस द्वारा निर्मम हत्या कर दी गई थी। इस घटना के बाद फर्ग्युसन सहित पूरे अमेरिका में व्यापक जन प्रदर्शन हुए थे। बाद में माइकल ब्राउन के हत्यारों को यह कहकर बरी कर दिया गया कि पुलिसकर्मियों ने आत्मरक्षा में कार्रवाई की थी। 
 
कहने को अमेरिका में पिछले 9 वर्षों से एक अफ्रीकी मूल के अश्वेत राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा का शासन है परंतु वहां के अश्वेतों की जिंदगी में इन वर्षो में किंचित भी परिवर्तन नहीं आया है। उल्टे गहराते विश्व आर्थिक संकट के साथ नस्लवादी व रंगभेदी नवफासीवादी तत्वों के हमले बढ़े हैं। इन हमलों के निशाने में अश्वेत अफ्रीकी व एशियाई रहे हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों पर पिछले वर्षों में नस्लीय हमले बढ़े हैं और अधिकांश मामलों में या तो हमलावर पकड़े नहीं गए या फिर अदालत द्वारा बरी कर दिए गए। 

इस संदर्भ में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की स्वीकारोक्ति अहम है कि देश में अश्वेत युवक महसूस करते हैं कि उनके साथ उचित व्यवहार नहीं हो रहा है। ओबामा ने फर्ग्यूसन गोलीबारी मामले के बाद पुलिस व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त बनाने के लिए कदम उठाते हुए यह स्वीकार किया। उनका मानना था कि इस घटना से पुलिस विभागों और अश्वेत समुदायों के बीच अविश्वास पनपा है। ओबामा ने कहा कि एक ऐसे देश में जहां कानून के तहत हमारी बुनियादी सिद्धांतों में से एक और शायद सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत 'समानता' है, बहुत सारे लोग, खास तौर पर अश्वेत समुदाय के युवक यह महसूस नहीं करते हैं कि उनके साथ उचित व्यवहार हो रहा है। उन्होंने श्वेत पुलिस अधिकारी द्वारा एक निहत्थे अश्वेत व्यक्ति की हत्या से जुड़े फर्ग्यूसन गोलीबारी मामले में कई बैठकें की थीं। 
 
उनका कहना था कि जब अमेरिकी परिवार का एक हिस्सा महसूस करता है कि उसके साथ उचित व्यवहार नहीं हो रहा है, तो यह हम सभी के लिए एक समस्या है। यह सिर्फ कुछ लोगों की समस्या नहीं है। यह सिर्फ किसी खास समुदाय या आबादी के किसी खास हिस्से की समस्या नहीं है। इसका मतलब है कि हम एक देश के रूप में उतना मजबूत नहीं है जितना हम हो सकते हैं। यह कोई आजकल की बात नहीं है। अमेरिका में जातीय हिंसा और भेदभाव एक लम्बे समय से रहे हैं। और इसका एक बड़ा कारण देश के पुलिस विभाग में नस्लीय तौर पर असमानता है। पूर्व में हार्लेम जैसे अश्वेत इलाके में छह श्वेत अधिकारियों की तुलना में एक अश्वेत अधिकारी का अनुपात था, और नेवार्क, न्यू जर्सी जैसे अश्वेत बहुमत इलाकों में 1322 श्वेत पुलिस अधिकारियों की तुलना में 145 अश्वेत पुलिस अधिकारी थे। 
 
उत्तरी शहरों में पुलिस बल बड़े पैमाने पर श्वेत जाति के 19 वीं सदी के आप्रवासी थे। मुख्य रूप से आयरिश, इतालवी और पूर्वी यूरोपीय अधिकारी थे। उन्होंने पुलिस विभाग में और शहरों के इलाकों में अपनी खुद की सत्ता की स्थापना की थी। कुछ बिना कारण ही नियमित रूप से अश्वेतों को परेशान करते थे। वि‍दित हो कि 1964 की गर्मियों में हार्लेम, न्यूयॉर्क में पहला प्रमुख नस्लीय दंगा हुआ। एक श्वेत आयरिश मूल के अमेरिकी पुलिस अधिकारी, थॉमस गिलिगन ने 15 वर्षीय जेम्स पावेल नामक एक अश्वेत को गोली मार दी जिस पर कथित तौर पर चाकू से वार करने का आरोप था। वास्तव में, पावेल निहत्था था। अश्वेतों के एक समूह ने गिलिगन की निलंबन की मांग की। पावेल की मृत्यु के एक दिन बाद सैकड़ों युवा प्रदर्शनकारियों ने 17 जुलाई 1964 को 67वीं पुलिस स्ट्रीट पर शांति पूर्वक मार्च किया।
 
इसके बाद अश्वेत इलाकों को छोड़कर अन्य स्थानों में दंगाइयों को जो भी हाथ लगा उसे लूटा या जला दिया गया। यह अशांति ब्रुकल‍िन में प्रमुख अश्वेत इलाके बेडफोर्ड-स्टुवेसांट तक फैल गई थी। कुछ इसी तरह के कारणों से फिलाडेल्फिया में भी दंगे शुरू हुए थे।
 
1964 के जुलाई के दंगों के बाद, संघीय सरकार से प्रोजेक्ट अपलिफ्ट नामक एक पायलट प्रोग्राम वित्त पोषित किया जिसमें हार्लेम के हजारों युवाओं को1965 की गर्मियों में नौकरी दी गई। 1965 में, राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन ने मतदान अधिकार अधिनियम पर हस्ताक्षर किए, लेकिन नए कानून से अश्वेतों के रहन-सहन में तत्कालिक प्रभाव नहीं पड़ा। कुछ दिनों के बाद जब अधिनियम कानून बन गया, तब वाट्स के आस-पास दक्षिण मध्य लॉस एंजिल्स में एक दंगे की शुरूआत हो गई। हार्लेम की तरह, वाट्स भी उच्च बेरोजगारी के साथ एक गरीब इलाका था। 
 
इसके निवासियों को बड़े पैमाने पर श्वेत पुलिस विभाग के हाथों प्रताड़ना को सहन करना पड़ा। नशे में ड्राइविंग के लिए एक युवक को गिरफ्तार करते हुए पुलिस अधिकारियों ने संदिग्ध की मां से लोगों के सामने बहस की। और बहस छह दिन के दंगों में बदल गई जिससे भारी मात्रा में संपत्ति का विनाश हुआ। चौतीस लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया और 30 मिलियन डॉलर की संपत्ति को नष्ट कर दिया गया। अमेरिकी इतिहास के सबसे घटिया दंगों में वाट्स का नाम भी शामिल हो गया। ऐसा ही एक मामला 1992 में हुआ था जब एक अश्वेत रोड़नी किंग को पुलिस ने पकड़ा था।  
 
अश्वेत उग्रवाद की वृद्धि के साथ ही जहां पुलिस की निगरानी वाले इलाके में क्रोध के कृत्यों में भी वृद्धि हुई। पुलिस की बर्बरता से थक कर अश्वेतों ने दंगों को जारी रखने का रास्ता अपनाया। कुछ युवा ब्लैक पैंथर्स जैसे समूह में शामिल हो गए जिनकी लोकप्रियता और प्रतिष्ठा का एक पहलू पुलिस से मुठभेड़ पर आधारित था। इसी का नतीजा था कि अटलांटा, सैन फ्रांसिस्को, ओकलैंड, बाल्टीमोर, सिएटल, क्लीवलैंड, सिनसिनाटी, कोलंबस, नेवार्क, शिकागो, न्यूयॉर्क सिटी (विशेष रूप से ब्रुकल‍िन, हार्लेम और ब्रोंक्स) जैसे शहरों में 1966 और 1967 में दंगे हुए और सबसे बुरा हाल डेट्रायट का था। डेट्रोयट में तब  मध्यम वर्गीय अश्वेतों का विकास होना शुरू हुआ था जो ऑटोमोटिव उद्योग में अच्छे भुगतान पर नौकरी करते थे। पर जो अश्वेत ऊपर नहीं उठ सके वे बहुत खराब स्थिति में जीवन यापन कर रहे थे, कुछ इसी प्रकार की स्थिति वाट्स और हार्लेम में अश्वेतों की थी। 
 
डेट्रायट दंगे का महत्त्वपूर्ण प्रभाव व्हाइट फ्लाइट (श्वेतों का पलायन) के तौर पर सामने आया और मुख्य रूप से श्वेत प्रवृत्ति आंतरिक-शहरी स्थान से श्वेत उपनगरों की ओर स्थानांतरित हो रही थी। साथ ही डेट्रॉयट में 'मध्यम वर्गीय अव्हाइट फ्लाइट' भी देखा गया। इन दंगों और सामाजिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप डेट्रोयट, नेवार्क और बाल्टीमोर जैसे शहरों में उस समय श्वेतों की आबादी 40% से भी कम रह गई थी। उद्योग में परिवर्तन के कारण लगातार नौकरियों में कमी, मध्यम वर्ग की आबादी में गिरावट और इस तरह के शहरों में केंद्रित गरीबी जारी रही और अश्वेत इसके केन्द्र में थे। 

दंगों के परिणामस्वरूप तत्कालीन राष्ट्रपति जॉनसन ने 1967 में नेशनल एजवाइजरी कमीशन ऑन सिविल डिऑर्डर का निर्माण किया। आयोग की अंतिम रिपोर्ट में अश्वेत समुदायों के लिए रोजगार में प्रमुख सुधारों और सरकारी सहायता का आह्वान किया गया। यह चेतावनी दी गई कि संयुक्त राज्य अमेरिका अलग श्वेत और अश्वेत समाजों की ओर बढ़ रहा है। लेकिन 1968 में डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर की हत्या के बाद एक और दंगे की शुरूआत हुई। यह दंगे कई प्रमुख शहरों में भड़क उठे थे जिसमें शिकागो, क्लीवलैंड, बाल्टीमोर, वाशिंगटन डीसी, शिकागो, न्यूयॉर्क सिटी और लुईसविले, केंटकी शामिल थे। 
 
इसके परिणामस्वरूप हुई एक सकारात्मक कार्रवाई के तहत हर प्रमुख शहर में पुलिस अधिकारियों, कर्मचारियों की भर्ती की प्रक्रिया बदलते हुए इसमें अधिक अश्वेतों को लिया गया। बाल्टीमोर, वाशिंगटन, न्यू ऑरलियन्स, अटलांटा, नेवार्क और डेट्रायट, जैसे शहरों में पुलिस विभागों में अश्वेतों का आनुपातिक बहुमत बढ़ा। नागरिक अधिकार कानून ने रोजगार के भेदभाव को कम कर दिया। 1960 के दशक के उत्तरार्ध में लगातार दंगों की स्थितियों में परिवर्तन हुआ, लेकिन सभी समस्याओं को हल नहीं किया जा सका था।
 
1950 के बाद से औद्योगिक और आर्थिक पुनर्गठन के साथ, हजारों औद्योगिक रोजगार पुराने औद्योगिक शहरों से गायब हो गए। कुछ लोग दक्षिण की ओर चले गए क्योंकि वहां ज्यादा आबादी थी और कुछ लोगों ने सम्पूर्ण रूप से अमेरिका छोड़ दिया। नागरिक अशांति 1980 में मियामी में, 1992 में लॉस एंजिल्स में और 2001 में सिनसिनाटी में देखी गई। 
 
हाल ही में बाल्टीमोर में पुलिस हिरासत में एक अश्वेत व्यक्ति की मौत हो जाने के बाद जारी विरोध-प्रदर्शन अब हिंसक हो गया। प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच हुई हिंसक झड़पों के बाद राज्य में आपातकाल लागू कर दिया गया। 25 वर्षीय अश्वेत फ्रेडी ग्रे की पुलिस हिरासत में एक सप्ताह पहले रीढ़ की हड्डी में चोट लगने से मौत हो गई थी। फ्रेडी के अंतिम संस्कार के बाद शहर में शुरू हुआ उपद्रव बाद में हिंसक हो गया था।
 
बाल्टीमोर में हुई हिंसा पर राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था, 'कुछ पुलिसकर्मी ठीक काम नहीं कर रहे थे।' साथ ही उन्होंने कहा कि कानून प्रवर्तन अधिकारियों और अश्वेत समुदाय के बीच तनाव की स्थिति 'धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है' जिसकी बुनियाद दशकों पुरानी है। इससे सवाल उठता है कि क्या अमेरिका में भी तीसरी दुनिया के देशों वाली अशांति की स्थिति की तरफ बढ़ रहा है? इन सभी घटनाओं में अश्वेतों की मौजूदगी यह बताती है कि यह महज इत्तफाक नहीं हो सकता। अमेरिका में सिविल राइट्स पास होने के दशकों बाद भी अश्वेत आज भी कई सुविधाओं से वंचित हैं। 
 
इस समुदाय में बेरोजगारी दर और बंधुआ मजदूरी की दर दुनिया के किसी भी और अल्पसंख्यकों की तुलना में कहीं ज्यादा है। पिछले समय का शटडाउन संकट भी कहीं न कहीं कंजरवेटिव गोरे कानून निर्माताओं के बीच की जंग थी जोकि ओबामा प्रशासन के एजेंडे को अश्वेतों को लाभ पहुंचाने वाला करार दे रहे हैं। गोरे लोगों का मानना है कि अश्वेत लोग मुख्य रूप से सरकारी सब्सिडी पर निर्भर लोग (जैसे भारत के अल्पसंख्यक) हैं।
 
अमेरिका के राजनीतिक पटल पर अभी कोई दूसरा ओबामा उभरता दिखाई नहीं दे रहा। तो श्वेत अमेरिका मान रहा है कि उसके सामने अभी कोई सीधी चुनौती नहीं है। लेकिन कुछ है कि अमेरिका भीतर-ही-भीतर घुटा जा रहा है। वह क्या है, जो अमेरिकी प्रशासन के गले में अटकता है और अमेरिकी लोकतंत्र की चमक धूमिल करता है? 

वह है, अमेरिकी लोकतंत्र में कानून-व्यवस्था का संरक्षक गोरी चमड़ी वाला सामान्य सिपाही। ऐसे ही एक मामले में ओहायो के वालमार्ट के मॉल के कैमरे से जॉन क्राफोर्ड को गोली मारे जाने की पूरी कहानी सामने आई। ले‍क‍िन इसके बाद भी इस मुकदमे की सुनवाई करते हुए ग्रैंड जूरी ने गोरे सिपाहियों को निर्दोष घोषित कर दिया। इससे अमेरिका के कई प्रांतों में अशांति फैल गई।
 
और अब अमेरिकी लोकतंत्र का वह चेहरा उजागर होने लगा है, जिसे दिखाना और छिपाना भी लोकतंत्र के दायरे में नहीं आता। अब सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या अमेरिका में सामाजिक लोकतंत्र है भी? क्राफोर्ड को गोली मारे जाने से पहले भी दो बड़ी घटनाएं हुई थीं। मिसौरी में अश्वेत माइकल ब्राउन को तब गोली मार दी गई, जब वह एक दुकान में दिन-दहाड़े लूटपाट कर रहा था। पर लूट-मार की सजा अमेरिका में भी अब तक गोली मार देने की नहीं है। फिर अधेड़ अश्वेत इरिक गारनर को एक गोरे पुलिसवाले ने इस तरह दबोच कर रखा कि उसने दम घुटने से दम तोड़ दिया। गारनर पर आरोप था कि वह सड़क पर खुलेआम खुदरा सिगरेट बेच रहा था।
 
इसके बाद कितने ही अध्ययनों से ये आंकड़े सामने आने लगे कि अमेरिका में पुलिस की गोली से हर दिन एक आदमी मारा जाता है, जो अश्वेत होता है और मारने वाली पुलिस श्वेत! आंकड़े बताते हैं कि पिछले वर्ष पुलिस की गोली से मारे गए लोगों में 29 फीसदी अश्वेत थे। एक अध्ययन बताता है कि अमेरिकी पुलिस पर 59 प्रतिशत श्वेतों और मात्र 37 फीसदी अश्वेतों को भरोसा है। समाज में कानून-व्यवस्था बनाए रखना पुलिस का बुनियादी काम है और यह काम वह अपने नागरिकों को दुश्मन मानकर नहीं कर सकती।
 
लेकिन जब अमेरिकी पुलिस अपनी एक फीसदी वयस्क आबादी को काबू में रखने के लिए जेलों में रखती है, तब विश्वास और संवाद की कोई जगह बचती है क्या? दुनिया के तथाकथित विकसित देशों में कहीं भी इतनी बड़ी वयस्क आबादी जेलों में नहीं है। जेलों में कैदियों के साथ कितना अमानवीय व्यवहार किया जाता है वह किसी से भी छिपा नहीं है। इससे अमेरिकी लोकतंत्र का एक ऐसा चेहरा सामने आता है, जिसके बारे में सब जानते तो हैं लेकिन जिसका प्रमाण नहीं मिलता था। अब प्रमाण सामने है। इससे यह बात साफ हुई कि लोकतंत्र के इस पर्दे के पीछे वह सब चलता था, जिसे लोकतंत्र में नहीं चलना चाहिए।
 
कई अमेरिकी राज्यों में पुलिस को यह अधिकार मिला हुआ है कि वह उन लोगों की संपत्ति की कुर्की-जब्ती कर सकती है, जिन पर हिंसा का आरोप भले नहीं है, लेकिन जो बार-बार अपराध करते हैं। वहां पुलिस इस अधिकार का धड़ल्ले से इस्तेमाल करती है। अमेरिका के कई राज्यों ने तो अपनी पुलिस को फौज जैसे अधिकार दे रखे हैं। उनके पास ग्रेनेड लांचर व आर्म्ड कारें हैं। अमेरिका में 1980 में पुलिसिया कार्रवाई में जहां 3,000 घटनाएं हुई थीं, वहीं आज यह संख्या 50,000 तक पहुंच रही है। पिछले साल पुलिस की गोली से 458 लोग मारे गए थे।
 
अमेरिकी समाज में हथियारों की सहज उपलब्‍धता एक बड़ा कारण है कि वहां पुलिस हमलावर बनी रहती है। वहां पुलिस वालों में अपनी जान और नौकरी बचाने की फिक्र अधिक होती है। पिछले साल वहां लोगों की गोली से 46 पुलिस वालों की जान गई है, जबकि 42 प्रतिशत अपराधियों के रंग या नस्ल का पता नहीं है। हथियारबंद समाज और हथियार व दमन का कानून-सम्मत अधिकार रखने वाली पुलिस का यह मुकाबला सबसे पहले लोकतंत्र का खून करता है। अमेरिका को आज सबसे बड़ी चिंता इसी बात की है कि क्या उसके पास लोकतंत्र का ढांचा भर रह जाएगा और आत्मा निकल जाएगी? कुछ ऐसे ही सवाल के सामने हमारा लोकतंत्र भी खड़ा है। कानून में नहीं, कमी कानून के पालन में और पालन करने वालों में है। रंगभेद के संदर्भ में अमेरिका का इतिहास उसके वर्तमान पर असर डाल रहा है और दुनिया देख रही है कि दुनिया को राह दिखाने का दावा करने वाला अमेरिका कैसे और कौन-सी राह पर चलता हुआ दिख रहा है।