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Last Modified: सोमवार, 15 दिसंबर 2014 (14:05 IST)

धर्मान्तरण- दोहरे मापदंड पर सवाल

धर्मान्तरण- दोहरे मापदंड पर सवाल - Conversion
-शब्बीर हुसैन
धर्म हमारे देश में सबसे लाभदायक व्यवसाय है। अंध-विश्वास, अंध-भक्ति, अज्ञानता का फायदा उठाकर चालाक किस्म के लोग आम जनमानस की भावनाओं से खिलवाड़ करते रहे हैं। लोभ, मोह-माया का त्याग, सादगी के प्रवचन सुना-सुना कर स्वयं के लिए राजसी ठाठ-बाट, धन-वैभव, आलीशान महल, महंगी कारों का संग्रह करते रहे हैं। समय-समय पर इनकी क्रियाओं, लीलाओं का भांडा-फोड़ भी होता रहता है। मगर धर्म की जयकार के शोर में तारीफ़ के लायक वो अंध-श्रद्धा, दिन को रात और रात को दिन देखने-समझने में व्यावसायिक बाबाओं के नित नए चमत्कार को नमस्कार करने के लिए आतुर रहती है।
 
विदेश में आम तौर से धर्म का पालन इंसान की इच्छा पर निर्भर करता है। वहाँ कोई शख्स किसी धर्म का पालन सिर्फ इसलिए नहीं करता कि वो अपने बाप-दादाओं से चले आ रहे तरीकों को आँख मूंदकर अख्तियार कर ले और उनके धार्मिक मत के अनुसार धर्म का चिन्ह अपने ऊपर चस्पा कर ले। वो आम हालत में भी और उच्च शिक्षा के स्तर पर भी ज्ञान की कसौटी पर धर्म को परखता है। हर वो कार्य जिसे अपने विवेक की कसौटी पर खरा पाता है, उसके पालन की कोशिश करता है और जिसे गैर-ज़रूरी समझता है, उससे दूर हो जाता है। इसीलिए धार्मिक आडंबर, पाखंड का वहाँ के समाज में कोई स्थान नहीं होता। धर्म एक निजी मामला समझा जाता है और एक ही परिवार में विभिन्न मत के लोग भी बगैर किसी मन-मुटाव, लड़ाई-झगड़े के साथ में रहते हैं।
 
हमारे देश में चूँकि धर्म के मर्म को कम समझा जाता है, उसके अनुसरण में उसके उद्देश्य को हासिल करने के बजाय बाहरी दिखावे और रीति-रिवाज़ों पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है। इस वजह से धर्म एक ठेकेदारी, जुलूस-जलसों के नाम पर शक्ति-प्रदर्शन, राजनीतिक लाभ और इसकी आड़ में व्यवसाय का पर्याय बन गया है।
 
बदकिस्मती से इसके नतीजे में ये भी हो रहा है कि अपने अनुयायियों कि संख्या बढ़ाने या घटने को राजनीति से जोड़ दिया गया है। विरोधाभास और दोहरे मापदंड के कुछ ऐसे उदाहरण इस वजह से हमारे सामने आए हैं, जो हमारे देश के सामाजिक ताने-बाने को नफरत की कमज़ोर बुनियाद पर नव-निर्माण करना चाह रहे है।
 
ताज़ा मिसाल आगरा में हुए धर्मान्तरण समारोह, जिसे 'घर-वापसी' कहा जा रहा है। कुछ धार्मिक संगठनों ने यह आयोजन रखा और आगे भी इसी तरह के आयोजन भविष्य में संभावित हैं। इस समारोह से उपजे विवाद को अगर दरकिनार कर दें तो भी कुछ विचार मस्तिष्क में कौंध जाते हैं, जिस पर सार्थक बहस की जाना चाहिए। 
 
इस खबर से एक क्षण के लिए तो धार्मिक स्वतंत्रता कि परिवर्तित फिज़ा का एहसास हुआ क्योंकि धर्म का अनुसरण हर इंसान की बुद्धि और विवेक से लेने वाला फैसला है और होना भी चाहिए ताकि वह स्वयं ज्ञान हासिल कर सके और अज्ञानता के प्रलोभनों से खुद को बचाए। सच और झूठ, हक और बातिल को खुद पहचान सके और धर्म को सही मायनों में समझकर अपने कर्मों में आत्मसात कर सके। तभी धर्म की असल मंशा कि एक आदमी अच्छा इंसान बन सके, सम्पूर्ण हो सकती है।
 
मगर अफ़सोस तो अभी चन्द महीनों पहले का एक और उदाहरण याद करके हुआ। शिवपुरी जिले में तुलाराम जाटव और उनके परिवार के नौ लोगों ने जब इस्लाम धर्म अपनाया था तब अखबारों की सुर्खियां क्या बनी थीं? इन्हीं धार्मिक संगठनों ने जो रवैया अपनाया था, धर्म-परिवर्तन निषेध कानून का सहारा लेकर किस तरह प्रशासनिक अमला ताबड़तोड़ इस परिवर्तन को रोकने में लग गया था। तुलाराम और उनके परिवार के चार सदस्यों को जेल में डाल दिया गया था। ये सब अभी हमारे देश के सभ्य समाज की आँखों के सामने हुआ है।
 
ये दोनों उदाहरण हमारे धर्मनिरपेक्ष देश की मानसिकता का प्रतिनिधित्व बेशक नहीं करते हैं और हमारे देश का आम नागरिक आज भी धर्म के मामले में वैसा ही अज्ञान और अंधविश्वास के अंधेरों में डूबा हुआ है। मगर ये इस बात की तरफ ज़रूर इशारा करते है कि हमारा सभ्य समाज आज भी धर्म के मामले में विवेक और कर्म के अनुसार निर्णय लेने की आज़ादी देने को तैयार नहीं है। यहाँ तो सिर्फ ताक़त और छल-बल का सहारा लेकर धर्म के नाम पर ठेकेदारी करना और जिसकी लाठी, उसकी भैंस वाली कहावत को चरितार्थ करना ही मकसद है। ऐसे हालात में नफे-नुकसान के आकलन में नुकसान की हिमायत, सच की आवाज़ को भीड़-तंत्र के सामने उठाना भी एक हौसला मांगता है। दोहरे मापदंड की कुंठा से घिरे हुए सभ्य समाज में ये हौसला कभी आ पाएगा? इस पर बहस ज़रूर होना चाहिए।