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Written By Author शरद सिंगी

चीन के विस्तारवाद के समक्ष भारत की भूमिका

चीन के विस्तारवाद के समक्ष भारत की भूमिका - China, India, South China Sea, Chinese army
चीन की विस्तारवादी मंशाएं अभी तक भारत सहित अन्य सभी चीन के पड़ोसी छोटे-छोटे राष्ट्रों के लिए चिंता का विषय थीं किन्तु अब तो दक्षिण चीन सागर के आधिपत्य को लेकर चीन की हठधर्मी विश्व के लिए भी चिंता का विषय बनती जा रही है। चीन की जनसंख्या, क्षेत्रफल तथा प्रचुर प्राकृतिक संपदा के सामने फ़िलीपींस, ताइवान जैसे पिद्दी राष्ट्रों की क्षमता नगण्य है किन्तु चीन उनकी भी समुद्री सीमाओं पर अतिक्रमण करना चाहता है। 
चीन की एक बड़ी महत्वाकांक्षा है कि दक्षिण चीन सागर के संपूर्ण क्षेत्र का व्यापार, व्यवस्था एवं प्राकृतिक संपदा पर उसका नियंत्रण हो। अतः छोटे राष्ट्रों को भी वह अपनी शक्ति एवं सेना का भय दिखाता रहता है। फिलीपींस ने अपनी  सीमा में  चीन की सैन्य गतिविधियों का विरोध करते हुए अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल की शरण ली।  दक्षिण चीन सागर में चीन के दावे  को खारिज  करते हुए अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल ने चीन के विरुद्ध तथा फिलीपींस के पक्ष में निर्णय दे दिया। चीन ने बौखलाकर फैसले को मानने से साफ इंकार कर दिया।
 
अब यदि चीन जैसी महाशक्तियां ही अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के फैसले मानने से इंकार कर दें तो विश्व के अनुशासन का क्या होगा? क्या 21वीं सदी भी जिसकी लाठी उसकी भैंस के कानून के आधार पर चलेगी? बड़ी मछली छोटी को निगलती रहेगी। शक्तिशालियों के लिए फैसले मानने या न मानने का अधिकार होगा? भारत और बांग्लादेश के बीच भी समुद्री सीमा को लेकर विवाद था। सन् 2009 में बांग्लादेश मामले को अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल में ले गया। सन् 2014 में न्यायाधिकरण  ने बांग्लादेश  के पक्ष में फैसला दिया था।  भारत ने उसे तुरंत स्वीकार  कर लिया था। 
 
अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के फैसले को लेकर विगत सप्ताह दक्षिण पूर्वी एशियाई  देशों के समूह का सम्मेलन हुआ।  इस समूह में ब्रूनेई, म्यांमार, कंबोडिया, पूर्वी तिमोर, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम जैसे छोटे-छोटे देश हैं। इनमें वियतनाम, फिलीपींस, ताइवान, मलेशिया, ब्रूनेई वे देश हैं जिनकी दक्षिण चीन सागर में सीमाओं को लेकर अपनी-अपनी दावेदारी है। इन सबकी दावेदारियों को ख़ारिज करता चीन पूरे सागर की संपदा पर अपना कब्ज़ा चाहता है। उम्मीद तो यह थी कि सारे देश मिलकर चीन को ट्रिब्यूनल के फैसले को स्वीकार करने के लिए दबाव बनाएंगे, किन्तु यह दस देशों का समूह होने के बावजूद चीन को चुनौती देने का साहस नहीं कर पाया। एक कारण तो चीन का भय  और दूसरा समूह के नियम के अनुसार, यदि एक भी देश किसी प्रस्ताव  के विरोध में है तो वह प्रस्ताव पास नहीं किया जा सकता। 
 
समूह के लाओस और कंबोडिया जैसे सदस्य देशों को चीन ने आर्थिक सहायता देकर खरीद रखा है। चीन जैसे देश के लिए इन छोटे देशों के समूह में फूट डालना बहुत आसान है। सम्मेलन के अंत में जो प्रस्ताव पारित किया गया उसमें चीन का कोई उल्लेख नहीं था। चीन की सीनाजोरी को लेकर मात्र इतना कहा गया कि हाल ही में चल रहे घटनाक्रम पर दक्षिण पूर्वी देशों का समूह  गंभीरतापूर्वक चिंतित है। जाहिर है  चीन के विरुद्ध किसी भी प्रस्ताव के पास होने की कोई सम्भावना नहीं है।  समूह की ताकत उसकी एकता में है अन्यथा तो मात्र एक औपचारिकता भर है। दुर्भाग्यवश यह समूह  एक ऐसी महाशक्ति के सामने हैं जिसे अपनी शक्ति प्रदर्शन से परहेज नहीं है।
 
ऐसी परिस्थितियों में इन प्रभावित लघु राष्ट्रों के अधिकारों की रक्षा के लिए क्या बड़ी शक्तियां लामबंद होंगी? चीन के सामने बड़ी शक्तियां तभी खड़ी होंगी, जब उनके स्वयं के कोई हित भी निहित हों। अब इन छोटे देशों का रखवाला कौन? भारत, जापान और अमेरिका इन देशों के साथ हैं किंतु ये देश इतने छोटे हैं कि चीन इन्हें बड़ी आसानी से डरा, धमका या खरीद सकता है। यद्यपि अमेरिका ने अपने सैन्य बेड़े इस क्षेत्र में खड़े कर रखे हैं, इस डर  से कि कहीं चीन इस क्षेत्र पर अपने आधिपत्य की घोषणा कर अंतरराष्ट्रीय जल एवं वायु परिवहन पर रोक न लगा दे। अमेरिका के इस कदम पर चीन ने अमेरिका पर इस क्षेत्र में तनाव पैदा करने और उसका सैन्यीकरण करने का आरोप लगाया है।
 
दूसरी ओर चीन यदि अपने आपको महाशक्तियों की श्रेणी में देखना चाहता है और उनके जैसा सम्मान पाना चाहता है तो उसे छोटे देशों को धमकाने  के बजाय उन्हें प्रश्रय देना होगा एवं उनके अधिकारों की रक्षा करनी होगी। किसी का हक़ मारकर आप सम्मान अर्जित नहीं कर सकते, फिर भले ही आप कितने ही सामर्थ्यवान क्यों न हों। भारत द्वारा न्यायोचित पक्ष लेने से वह दक्षिण पूर्वी देशों के बीच तेजी से प्रतिष्ठा उपार्जित कर रहा है और साथ ही पश्चिमी शक्तियों का भरोसा भी अर्जित किया है। पश्चिमी शक्तियां चाहती भी हैं कि इस क्षेत्र का नेतृत्व करने में प्रमुख भूमिका भारत की हो, न कि चीन की। नेतृत्व की शक्ति पाने के लिए भारत के लिए भी यह जरुरी है कि वह अपनी सामरिक क्षमता बढ़ाए और अपनी सौजन्यपूर्ण कूटनीति से महाशक्तियों का निकटतस्थ और विश्वसनीय सहयोगी बना रहे। वर्तमान सरकार गंभीरतापूर्वक इस दिशा में काम भी कर रही है। 
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