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Written By Author विभूति शर्मा

बिहार चुनाव में हवा का रुख भांपना मुश्किल

बिहार चुनाव में हवा का रुख भांपना मुश्किल - Bihar, Bihar Assembly Election
बिहार में विधानसभा चुनाव की घड़ी ज्यों-ज्यों नजदीक आ रही है, त्यों-त्यों राजनीतिक दलों की बेचैनी बढ़ती जा रही है। बिहार और उत्तरप्रदेश देश की राजनीतिक दिशा तय करने वाले राज्य माने जाते हैं और बिहार के बाद उत्तरप्रदेश के चुनाव भी नजदीक होंगे इसलिए यहां की राजनीतिक हलचल पर पूरे देश की नजर लगी है।
चूंकि पिछले लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की लहर चली और भाजपा पहली बार स्पष्ट बहुमत की संख्या के साथ केंद्र की सत्ता पर आरूढ़ हुई थी, इसलिए भाजपा के विरोधी दलों में एक किस्म की घबराहट-सी फैल गई थी और आनन-फानन में उनमें एका बनने लगा था। जनता दल (यू), राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे दलों ने मिलकर महागठबंधन किया। इस गठबंधन के होने के साथ ही ये आशंकाएं जाहिर की जाने लगी थीं कि यह ज्यादा दिन नहीं चलेगा। 
 
चुनाव की घोषणा के साथ जैसी कि आशंका थी, सीटों के बंटवारे को लेकर गठबंधन में टूट प्रारंभ हो गई। लालू यादव के समधी मुलायम सिंह यादव अपनी समाजवादी पार्टी के हिस्से में कम सीटें आने के कारण महागठबंधन से छिटककर अलग हो गए। हालांकि यह टूट आशंका के विपरीत मामूली ही मानी जाएगी। गठबंधन की बड़ी उपलब्धि यह है कि लालू-नीतिश और कांग्रेस सीटों के बंटवारे से संतुष्ट होकर एकजुट बने हुए हैं। दरअसल उनकी यह एकजुटता मजबूरी भी मानी जा सकती है, क्योंकि वे जानते हैं कि यदि इस चुनाव में हारे तो फिर उबरना मुश्किल होगा। कांग्रेस तो वैसे भी अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। बिहार में भी उसकी पकड़ पूरी तरह छूट चुकी है, इसलिए मात्र 40 सीटें मिलने के बावजूद वह गठबंधन में बनी हुई है। 
 
लालू-नीतिश जरूर सौ-सौ सीटें आपस में बांटकर एक-दूसरे के साथ होने का दावा कर रहे हैं और नीतिश को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानकर लालू ने भविष्य के प्रति आश्वस्त करने का प्रयास भी किया है। लेकिन इन सभी नेताओं का इतिहास गवाह है कि परिस्थितियां देखकर ये कैसी भी गुलाटी खा सकते हैं। जनता दल को ज्यादा सीटें मिलने पर तो नीतिश कुमार का मुख्यमंत्री बनना पुख्ता हो जाएगा, लेकिन खुदा न खास्ता राजद को ज्यादा सीटें मिल गर्इं तो लालू किस करवट बैठेंगे, इसकी कोई घोषणा नहीं की जा सकती।
 
जहां तक भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का मामला है, तो उसमें भाजपा निर्विवाद रूप से आगे है। हालांकि सीटों के बंटवारे को लेकर खदबदाहट यहां भी है, लेकिन इसे काफी हद तक दूर कर लिया गया है। रामविलास पासवान की लोजपा इस गठबंधन में दूसरा बड़ा दल है, जबकि नीतिश के द्वारा ठुकराए गए जीतनराम मांझी का हिन्‍दुस्तान अवाम मोर्चा (हम) और उपेंद्र कुशवाह की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) संयुक्त तीसरे स्थान पर है। हम को 20 और रालोसपा को 23 सीटें दिए जाने से पासवान नाराज जरूर हैं, लेकिन जानते हैं कि 40 सीटें पाकर अभी भी वे आगे हैं। भाजपा ने 160 सीटें अपने पास रखी हैं। संदेश साफ है कि नेतृत्व तो भाजपा ही करेगी, लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है। भाजपा के लिए नेतृत्व करने वाले चेहरे को ढूंढना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है। जो गोटियां अभी उसे अपने पक्ष में जाती दिख रही हैं, वे पलट भी सकती हैं, जैसा कि दिल्ली चुनाव में हुआ था। 
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विजय रथ को दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने न सिर्फ रोक दिया था वरन उलटे मुंह वापस ही लौटाया भी था। कारण बना किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करना। किरण बेदी से दिल्ली की जनता बहुत नाराज थी, क्योंकि वे पुलिस अधिकारी रहते हुए अपनी सख्ती के कारण दिल्ली की नाक में दम किए रहती थीं। साथ ही दिल्ली के भाजपा नेताओं ने उन्हें (आंतरिक तौर पर) बाहर का प्रत्याशी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अब बिहार में फिर भाजपा के समक्ष वही अग्निपरीक्षा की घड़ी आ गई है। अभी तक भाजपा का नेतृत्व करते आ रहे सुशील कुमार मोदी के सामने गिरिराज सिंह, लालू से नाराज होकर भाजपा में आए रामकृपाल यादव जैसे नेता बड़े दावेदार हैं। 
 
केंद्रीय नेताओं में शाह नवाज हुसैन और शत्रुघ्न सिन्हा के अंदर भी लालसा कुलबुला रही है। शत्रुघ्न तो जब तब इजहार भी कर रहे हैं और इस वजह से असंतुष्ट नेता का तमगा भी उनके माथे पर सज रहा है। दिल्ली की जली भाजपा को बिहार में फूंक-फूंककर चलना होगा। इसीलिए लालू-नीतिश की खुली चुनौती के बावजूद वह अपना मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित नहीं कर रही है और नरेद्र मोदी के नाम पर ही अपनी नैया पार लगाने की कोशिश कर रही है।
 
बिहार चुनाव में जातीय गणित महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जनता परिवार मुस्लिम वोट के लिए एक हुआ था, तो भाजपा के पास सभी दलित वोट बैंक का कार्ड है। नीतिश-लालू याराने के कारण अलग हुए पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के भाजपा के साथ आने से अति पिछड़े दलित वर्ग का साथ भाजपा गठबंधन को मिलने के आसार बढ़ गए हैं। रामविलास पासवान की पार्टी तो फिलहाल भाजपा के साथ है ही, जो अन्य पिछड़ा वर्ग की नुमाइंदगी करती है। हालांकि इन दोनों गठबंधनों के समीकरणों को  बिगाड़ने के आसार भी बन गए हैं। लालू-नीतिश-सोनिया गठबंधन का समीकरण   बिगाड़ने के लिए देश के विस्फोटक मुस्लिम नेता असदउद्दीन ओवैसी ने भी बिहार के दंगल में उतरने की घोषणा कर दी है। 
 
चूंकि सभी दल जातिगत वोट बैंक को ही इन चुनावों की धुरी मानकर चल रहे हैं, इसलिए ओवैसी ने अपनी पार्टी एआईएमआईएम के लिए सीमांचल (पूर्णिया, सहरसा, किशनगंज, मधेपुरा, कटिहार, अररिया आदि) को अपनी रणभूमि घोषित किया है। बिहार के सीमांचल की करीब आधी आबादी मुस्लिम है। स्वाभाविक है कि ओवैसी इस क्षेत्र की सभी सीटों पर अपना दावा मजबूत मानेंगे। जातिगत राजनीति करने वालों के सामने यह स्पष्ट खतरा माना जा रहा है कि मुस्लिम वोटों के नए समीकरणों का लाभ सीधे तौर पर भाजपा को मिलेगा और लालू-नीतिश गठबंधन घाटे में जाएगा। दरअसल, कांग्रेस और फिर लालू-मुलायम की पार्टियां मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति हमेशा से करती आई हैं। इसलिए बिहार में ओवैसी के पदार्पण से होने वाली क्षति का अनुमान वे भी लगा रहे हैं। इसी के चलते अब लालू यादव और राहुल गांधी ने ओवैसी को अपने गठबंधन में शामिल करने की कोशिशें भी प्रारंभ कर दी हैं। 
 
हालांकि यह आसान नहीं होगा, क्योंकि इससे सीटों का गणित एक बार फिर बिगड़ेगा। ओवैसी सीमांचल की सीटें तो छोड़ेंगे नहीं। ऊपर से शेष बिहार के मुस्लिम बहुल इलाके में भी अपनी जगह बनाने की कोशिश करेंगे। नेक टू नेक चलने वाले जद(यू) और राजद को अपनी सीटों में से ओवैसी की पार्टी के लिए त्याग करना होगा और यह त्याग उनके बहुमत के संख्या गणित को बिगाड़ सकता है। कांग्रेस तो वैसे भी कम सीटों का रोना रो रही है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि सत्ता की भूख इन दलों को त्याग के लिए कितना प्रेरित करती है।
 
इसके अलावा मुलायम सिंह की सपा और बिहार के एक और वरिष्ठ नेता तारिक अनवर (शरद पवार) की राकांपा के बीच भी गठबंधन लगभग अंतिम चरण में है। इस प्रस्तावित गठबंधन के द्वारा राकांपा के राष्ट्रीय महासचिव और सांसद तारिक अनवर को मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया जाएगा। इसकी औपचारिक घोषणा एक-दो दिन में की जाएगी। बिहार में वामदल भी अपने अस्तित्व का अहसास कराने का प्रयास करते रहे हैं। इस बार भी छ: वामदलों का गठबंधन राज्य की सभी 243 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने के मंसूबे बांध रहा है। 
 
कुल मिलाकर बिहार का राजनीतिक दंगल इस बार भी दिलचस्प होने के पूरे आसार हैं। प्रेक्षकों की मानें तो भाजपा को सीधा मुकाबला देने की लालू-नीतीश की रणनीति के विफल होने का लाभ इस चुनाव में राजग को मिल सकता है। महागठबंधन बनाने का उद्देश्य ही भाजपा विरोधी वोटों के बिखराव को रोकना था, लेकिन राकांपा, सपा और एआईएमआईएम के चुनाव मैदान में आने के बाद इनके बिखराव से इंकार नहीं किया जा सकता है।
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