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सिर मुंडाते ही ओले पड़ने की शुरुआत

सिर मुंडाते ही ओले पड़ने की शुरुआत - Barack Obama India visit
-संदीप तिवारी
ओबामा का भारत दौरा पूरा होने के साथ ही जहां भारत-अमेरिका संबंधों का नया दौर शुरू हुआ है, वहीं नए दौर की शुरुआत के साथ ही पड़ोसी देशों की कड़ी प्रतिक्रिया भी सामने आई है। इस मामले पर चीन की ओर से एनएसजी में भारत के प्रवेश को लेकर अमेरिकी समर्थन पर कड़ा एतराज जताया गया है। वहीं भारत-अमेरिकी संयुक्त सामरिक दृष्टिकोण में एशिया-प्रशांत और भारतीय हिंद महासागर और दक्षिण चीन महासागर में नौवहन और ओवरफ्लाइट को लेकर जो विचार जाहिर किए गए हैं, उस पर चीन की प्रतिक्रिया सिर मुंडाते ही ओले पड़ने जैसी है। 
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के दौरे के परिणामों की समीक्षा करने से पहले हमें कुछेक सामान्य संकेतों को ध्यान में रखकर विचार करना होगा। सबसे पहली बात यह है कि अमेरिका के साथ उत्साहहीन संबंधों से भारतीय राजनय को कोई मदद नहीं मिलती है क्यों‍कि अमेरिका दुनिया की सर्वाधिक महत्वपूर्ण ताकत है जोकि राजनीतिक, सैन्य, आर्थिक और तकनीकी दृष्टि से महाशक्ति है, लेकिन अगर भारत अपने हितों को अमेरिका के बहुत करीब भी ले जाता है तो भी अमेरिका के साथ हमारी इतनी अधिक नजदीकी दमघोंटू साबित हो सकती है। कारण यह है कि अमेरिका के साथ हमारे संबंध जितने अधिक करीबी होंगे, उतनी ही ज्यादा हमसे आशा की जाएगी कि हम उनकी नीतियों का समर्थन करें। इनमें ऐसी नीतियां भी शामिल हो सकती है जिनसे हम सहमत ना हों।
 
अमेरिकी विशेषज्ञों ने इस बात को लेकर सवाल खड़े किए हैं कि अमेरिका के साथ एक सामरिक सहभागिता का भारत के लिए क्या अर्थ है? क्योंकि बहुत सारे मुद्दे ऐसे हैं जिन पर अमेरिका को समर्थन देने पर हमारी झिझक बरकरार है। इसका कारण साफ है क्योंकि वे चाहते हैं कि हम अमेरिका के सामरिक हितों को आगे बढ़ाने में सहायक साबित हों और मुख्य रूप से उन देशों को अपना निशाना बनाएं जो कि अमेरिकी हितों को चुनौती देते हैं। इस सिलसिले में उल्लेखनीय है कि भारत और अमेरिका की ओर से रविवार को एशिया प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र के लिए जारी किए गए 'साझा सामरिक दृष्टिकोण' से चीन भड़क गया है। चार महीने पहले भी दक्षिण चीन सागर पर दोनों देशों के साझे बयान पर भी चीन ने आपत्ति दर्ज कराई थी। 
 
पिछले साल सितंबर में बराक ओबामा और नरेंद्र मोदी के बीच पहली द्विपक्षीय वार्ता के बाद जारी किए गए साझे बयान में 'समुद्री इलाकों के विवाद पर बढ़ते तनाव' के संबंध में चिंता जताई गई थी। इस बार भी दोनों देशों ने 'साझा सामरिक दृष्टिकोण' के जरिए वही बात दोहराई है। अमेरिका यह भी चाहता है‍ कि भारत वैश्विक व्यवस्‍था को बनाए रखने में भी अपने हिस्से का बोझ साझा करे। इतना ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय व्यापार, जलवायु परिवर्तन, खुले बाजार और नियामक कार्यप्रणाली पर भारत खुद को अमेरिका के साथ मिलकर चलने की नीति अपनाए।   
 
पर अगर हम इन मामलों में सफल नहीं होते हैं तो अमेरिका के साथ सामरिक सहभागिता के मुद्दे पर हमारी प्रतिबद्धता पर हमेशा ही सवाल खड़े किए जाएंगे। और इसके साथ ही रिश्ते या संबंधों को लेकर अमेरिकी उत्साह में कमी आ सकती है। 
इस मामले में हमारे दो निकटवर्ती पड़ोसी देशों पाकिस्तान और चीन से सीख लेना चाहिए। इन दोनों देशों के भी अमेरिका के साथ अच्छे संबंध हैं, लेकिन ये दोनों देश अमेरिका जैसी महाशक्ति के साथ इतने अधिक प्रगाढ़ संबंध बनाए नहीं रखना चाहते हैं कि लगे दोनों की अपनी कोई स्वतंत्र विदेश नीति नहीं है। दोनों ही अमेरिका के साथ अपने संबंधों को मात्र इस सीमा तक बनाए रखना चाहते हैं कि ये उनके लिए नुकसानदेह साबित न हों।    
 
हालांकि गणतंत्र दिवस पर समारोह के ‍दौरान राष्ट्रपति ओबामा को आमंत्रण दोनों देशों के ‍रिश्तों में एक अत्यधिक महत्वपूर्ण क्षण रहा है और इस दौरे को प्रधानमंत्री मोदी की अहम निजी सफलता से भी जोड़ा जा सकता है। मोदी ने ओबामा के साथ अपने निजी संबंधों को भी प्रगाढ़ बनाया है। इस मामले में उल्लेखनीय है कि हैदराबाद हाउस में दोनों के बीच अनौपचारिक चाय पर चर्चा और दोनों की बातचीत का मीडिया प्रबंधन बहुत ही व्यावहारिक रहा है। परमाणु जवाबदेही और प्रशासनिक व्यवस्थाओं के मुद्‍दे पर दोनों पक्षों के ‍बीच एक नई समझ विकसित हुई है। इसके चलते वाणिज्यिक बातचीत के दौर को आगे बढ़ने में मदद मिलेगी। 
 
सभी प्रकार की जवाबदेहियों को लेकर एक इंश्योरेंस पूल को बनाने की योजना के चलते आपूर्तिकर्ता की जवाबदेही के मुद्‍दे को सुलझा लिया गया है। हमने वैधानिक रूप से इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि क्षतिपूर्ति का मामला वैधानिक रूप से केवल ऑपरेटर के खिलाफ लाया जा सकेगा और इस मामले में आपूर्तिकर्ता के खिलाफ कोई विधिक  कार्रवाई नहीं की जाएगी। प्रशासनिक व्यवस्थाओं के तहत हम दावा कर रहे हैं कि हमारा अमेरिका के साथ 123 समझौते में इस बात को साफ कर दिया गया है कि भारत के अंतरराष्ट्रीय दायित्व और व्यवस्थाएं आईएइए के साथ होंगी। हालांकि इस समझौते को कुछ विचित्र कहा जा सकता है लेकिन इस महत्वपूर्ण उपलब्धि का स्वागत किया जा सकता है।  
 
विदित हो कि अमेरिकी रिएक्टरों की तकनीकी और वाणिज्यिक व्यवहार्यता के बारे में एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए मोदी ने एक महत्वपूर्ण चेतावनी का खुलासा किया। इस संदर्भ में यह एक अच्छी बात है कि उन्होंने सरकार पर पड़ने वाले प्रभाव को मात्र व्यवसायिक स्तर पर सीमित कर दिया है। प्रतिरक्षा सहयोग के मामले पर प्रतिरक्षा सहयोग संरचना समझौते को दस और वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया है। लेकिन प्रतिरक्षा तकनीक और व्यापार पहल के मामले पर अमेरिकी पक्ष उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सका है। सह-विकास और सह-उत्पादन के लिए सैद्धांतिक आधार पर चार 'मार्गदर्शक' परियोजनाओं का चयन उम्मीदों से कम महत्वाकांक्षी साबित हुआ है। हम यथार्थ के बोध के साथ सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं क्योंकि इन मामलों से जुड़े  सहयोग के विवरण को तय करने में, लागतों और तकनीक के हस्तांतरण के दायरे को निर्धारण करने में दुष्कर समझौतों की जरूरत होगी।  
 
 

आतंकवाद का सामना करने के भारत-अमेरिकी सहयोग का जिक्र करते हुए एक संयुक्त बयान में कहा गया है कि यह 21वीं सदी का एक निर्धारक रिश्ता साबित होगा। हालांकि इस मामले में दाऊद कंपनी के तीन सहयोगी संगठनों को अमेरिका द्वारा प्रतिबंधित करने से हमें खुशी होगी, लेकिन निशाने पर अन्य आतंकी संगठनों में अफगान तालिबान को फिर से शामिल नहीं किया गया है। हालांकि अमेरिका अफगानिस्तान में पाकिस्तान की महत्वाकांक्षाओं में सहयोगी बना रहेगा लेकिन वहां तालिबान पर अपना शिकंजा कसने के लिए वह अपने हाथों को खुले रखना चाहता है। 
इसी तरह, व्यापार, निवेश और बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के मुद्दों पर कोई खास बात उभरकर सामने नहीं आई है। एक उच्च स्तरीय द्विपक्षीय निवेश समझौते के चलते दोनों पक्षों की ओर से आगे बढ़ने की संभावनाओं का आकलन किया जाएगा। आईपीआर (बौद्धिक सम्पदा अधिकारों) पर बातचीत के लिए वर्ष 2015 के दौरान एक उच्च स्तरीय वर्किंग ग्रुप बनाने पर जोर दिया गया है। इसी तरह उच्च शिक्षा के मुद्दे पर बहुत अधिक जोर नहीं दिया गया है और संयुक्त बयान में बहुत थोड़ा सा ही ध्यान दिया गया है। अमेरिका की ओर से दोहरे उपयोग की तकनीक को लेकर मुश्किलों को हल करने की बात कही गई है और इसी तरह से इंटरनेट गवर्नेंस जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर कोई महत्वपूर्ण बात नहीं की गई है।   
  
इस बार दोनों देशों की ओर से जलवायु परिवर्तन पर सामरिक साझेदारी के बारे में कुछ नहीं कहा गया है, लेकिन इस बात पर जोर दिया गया है कि पेरिस में होने वाली संरा कॉन्फ्रेंस को मिलकर सफल बनाने की दिशा में काम किया जाएगा। संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस मुद्दे को मोदी ने बड़ी कुशलता से संभाला और इस मामले पर अमेरिका दवाब होने या अमेरिका-चीन समझौते से किसी तरीके के दबाव से इनकार कर दिया लेकिन उनका कहना था कि अपनी भावी पीढ़ियों की खातिर सभी देशों पर दबाव था। मोदी के इस रुख से वे अमेरिका के साथ आगे काम करते रह सकेंगे और राजनीतिक तौर पर दोनों का तालमेल बना रहेगा। 
 
इस मामले में आश्चर्य की बात है कि इस बार अमेरिका-भारत संयुक्त सामरिक दृष्टिकोण (विजन) नामक एक अलग से दस्तावेज जारी किया गया जो कि एशिया-प्रशांत और भारतीय हिंद महासागर क्षेत्र के लिए है। इसकी भाषा इस बात पर जोर देती है कि समुद्री सुरक्षा को सुनिश्चित करने का महत्व है और साथ ही कहा गया है कि विशेष रूप से दक्षिणी चीन महासागर में ओवरफ्लाइट और नौवहन की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना बहुत आवश्यक है। इसमें कहा गया है कि क्षेत्र से जुड़े सभी पक्षों से कहा गया है कि वे विवादों को हल करने के लिए ताकत का इस्तेमाल नहीं करें और शांतिपूर्ण उपायों को आजमाएं। लेकिन यह दस्तावेज चीन के भारत के प्रति विद्वेष की आग में घी का काम करेगा और इसने यह काम शुरू कर दिया है।    
 
भारत और अमेरिका ने अपनी सहमति दी है कि वे एशियाई ताकतों के साथ संबंध बढ़ाने के प्रयासों से लाभ लें और आगामी पांच वर्षों में क्षेत्रीय संवाद और त्रिपक्षीय चर्चाओं को मजबूत बनाएं। इस संयुक्त बयान में कहा गया है कि भारत की लुक ईस्ट नीति और क्षेत्रीय संबंधों को मजबूत बनाने के लिए एशिया-प्रशांत देशों को मिलजुलकर क्षेत्रीय संबंधों को मजबूत बनाना है। हालांकि भारत-अमेरिकी संबंधों की मजबूती की दिशा में काम किया जाना चाहिए पर हमारी चीन नीति में सुधार की जरूरत है। इस संबंध में हमारी चुनौती है कि हम अमेरिका के साथ अपने रिश्तों को लाभकारी बनाए रखें लेकिन इसके साथ यह भी सुनिश्चित हो कि हमारी विदेश नीति स्वतंत्र हो और इसकी अपनी एक विश्वसनीयता हो।  
 
ओबामा के भारत से पीठ फेरते ही भारत को एनएसजी में शामिल करने के अमेरिकी समर्थन की कड़ी प्रतिक्रिया चीन से आई है। चीन सरकार के एक प्रवक्ता ने कहा है कि इस तरह का कोई भी कदम उठाए जाने से पहले एनएसजी के सभी सदस्य देशों से गहन चर्चा की जानी चाहिए। चीन सरकार के प्रवक्ता का कहना है कि, 'एनएसजी नए सदस्यों को शामिल करने पर चर्चा कर रहा है, इस बात का हम समर्थन करते हैं। साथ ही हम भारत को भी इस बात के लिए प्रोत्साहित करते हैं कि वह ग्रुप के मानकों को पूरा करने की दिशा में कदम उठाए।'
 
प्रवक्ता ने यह भी कहा कि कि भारत को एनएसजी में सदस्यता हासिल करने से पहले एनपीटी यानी नॉन-प्रॉलिफरेशन ट्रीटी (परमाणु अप्रसार संधि) को स्वीकार करना होगा। एनपीटी के तहत पूरी दुनिया का न्यूक्लियर ट्रेड कंट्रोल होता है। इसकी सदस्यता लेने पर सदस्य देश अन्य देशों से तकनीक और परमाणु सामग्री का आदान-प्रदान कर सकते हैं। यह कहना गलत न होगा कि परमाणु कारोबार के मामले में चीन का दुनिया में काफी प्रभाव है और वह अमेरिकी समर्थन को बेअसर करने के लिए एनएसजी में पाकिस्तान के प्रवेश का भी समर्थन कर सकता है। इस मामले में चीन सरकार और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के रुख में बड़े अंतर का पता चलता है। चीन का रवैया अड़ियल नजर आ रहा है, जबकि ओबामा ने भारत का मात्र समर्थन किया है। 
 
विशेषज्ञों का मानना है कि चीन पाकिस्तान में दो न्यूक्लियर पॉवर संयंत्र बनाने में मदद कर चुका है। ऐसे में अगर अमेरिका एनएसजी में भारत की सदस्यता के लिए लॉबीइंग करता है तो चीन भी पाकिस्तान का समर्थन करेगा। चीन सरकार के प्रवक्ता ने कहा कि भारत एनएसजी की सदस्यता के लिए जरूरी शर्तों को पूरा नहीं करता है। चीन का विरोध भारत के एनएसजी में शामिल होने के रास्ते पर रोड़े अटका सकता है क्योंकि एनएसजी के ज्यादातर सदस्य मानते हैं कि एनपीटी पर साइन करना बेहद जरूरी है। वे भी इस मसले पर चीन का समर्थन कर सकते हैं। एनपीटी पर साइन करने के पर परमाणु सामग्री से परमाणु हथियार नहीं बनाए जा सकते। इस तरह हम अमेरिकी सहयोग से जो लाभ पाने की उम्मीद कर रहे हैं, उसका रास्ता आसान नहीं है। संभव है कि हमें काफी हद तक अपनी स्वतंत्र विदेश नीति को अपने हितों की खातिर बंधक भी रखनी पड़े।