मंगलवार, 23 अप्रैल 2024
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Written By Author अनिल जैन

'आप' की बुनियाद में ही खोट थी

'आप' की बुनियाद में ही खोट थी - Arvind Kejriwal AAP
आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने के बाद अपनी पार्टी के कुछ अहम सहयोगियों के साथ जिस तरह का बर्ताव किया उसे देखते हुए अब्राहम लिंकन का यह कथन बरबस ही याद आ जाता है कि 'अगर किसी के चरित्र या व्यक्तित्व का सही-सही आकलन करना हो तो उसे कुछ समय के लिए सत्ता सौंप दो, बहुत जल्दी उसकी असली नीयत और प्रवृत्ति सामने आ जाएगी।'
योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, प्रोफेसर आनंद कुमार आदि पार्टी के कई संस्थापक सदस्यों को अपमानित कर पार्टी संगठन के महत्वपूर्ण निकायों से हटाने के पहले केजरीवाल ने जिस तरह से अपनी सरकार का गठन किया, उससे भी उनकी एकाधिकारवादी सोच की झलक मिलती है।
 
अपने विशाल बहुमत के दम पर केजरीवाल 5 साल सरकार चलाने में भले ही सफल हो जाएं, मगर इतना तो साफ हो गया है कि उनका राजनीति करने का तौर-तरीका और उनकी पार्टी का संगठनात्मक ढांचा अखिल भारतीय या क्षेत्रीय राजनीति के अन्य परंपरागत दलों से गुणात्मक रूप से बहुत अलग नहीं है।
 
सवाल यही उठता है कि आखिर बदलाव का हर आंदोलन सत्ता की सोहबत में आते ही क्यों फिसलन का शिकार होकर अपने रास्ते से भटक जाता है या अकाल मृत्यु का ग्रास बन जाता है? वामपंथी, अति वामपंथी, समाजवादी, सामाजिक न्यायवादी, बहुजन समाजवादी और यहां तक कि दक्षिणपंथी धाराओं या फिर उनमें साझा सूत्र तलाशकर सत्ता-तंत्र के चरित्र में बुनियादी बदलाव और अधिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए चले तमाम आंदोलनों का हश्र एक जैसा ही रहा है।
 
आखिर इससे पहले भी किसी आंदोलन के गर्भ से या आंदोलन की सफलता से उपजे राजनीतिक दलों का भी तो यही हश्र हुआ है। फिर 'आप' का जन्म तो एक आंदोलन की असफलता और उससे उपजी हताशा से हुआ था, लिहाजा कहा जा सकता है कि आप में अभी तक जो कुछ हुआ है, वह तो होना ही था।
 
दरअसल, 'आप' की स्थापना में ही बुनियादी खामी थी। जब 'आप' का गठन हुआ तब योगेंद्र यादव ने अपने वैचारिक अग्रज और वैकल्पिक राजनीति के चिंतक समाजवादी कार्यकर्ता सुनील भाई से आप से जुड़ने और उसकी दिशा तय करने में योगदान देने का आग्रह किया था। लेकिन सुनील भाई का कहना था कि पहले पार्टी बनाकर फिर उसकी दिशा तय करने वाला सोच नहीं चलेगा। पहले दिशा तय होनी चाहिए, फिर पार्टी बननी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सुनील भाई तो अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनका कहा सच साबित हो रहा है।
 
'आप' ने अल्प समय में जनता से निकटता जरूर कायम की है, पर उसके पास न तो कोई नई राजनीतिक संरचना है और न ही कोई नया राजनीतिक विचार। ले-देकर इसकी सांगठनिक संरचना में प्रमुख रूप से 4 तरह के लोग हैं- एनजीओ से जुड़े लोग, समाजवादी धारा के बौद्धिक या कार्यकर्ता, कुछ आदर्शों से प्रेरित प्रोफेशनल्स और ऐसे लोग जो पिछली सदी के आखिरी दशक के आरक्षण-विरोधी अभियानों में सक्रिय रहे। इनमें ज्यादातर लोग किसी लंबी राजनीतिक प्रक्रिया या व्यवहार की उपज नही हैं इसलिए अच्छी मंशा, समझदारी या बौद्धिकता के बावजूद उनमें व्यापक जनपक्षधरता के लिए अपने अहंकार को पीछे कर समूह-बोध विकसित करने वाले मिजाज का अभाव है।
 
अरविंद केजरीवाल ऐसे ही लोगों का प्रतिनिधि चेहरा हैं। जनता और समाज के फौरी या दूरगामी सरोकारों से ज्यादा तवज्जो वे अपने निजी विचार या रणनीति या अपने पसंदीदा लोगों को देते हैं। 
 
यह सच है कि केजरीवाल आप के सबसे लोकप्रिय नेता रहे हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव में 'आप' को जो ऐतिहासिक जीत हासिल हुई उसमें भी केजरीवाल की लोकप्रियता का बड़ा योगदान रहा है। लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि अपनी जिस छवि के दम पर केजरीवाल लोकप्रिय हुए और बहुत ही अल्प समय में राष्ट्रीय फलक छा गए, उस छवि को गढ़ने में प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव आदि का भी अहम योगदान रहा है।
 
जिस जनलोकपाल के मुद्दे को लेकर 'आप' का गठन हुआ था उस जनलोकपाल का प्रारूप योगेंद्र यादव ने ही तैयार किया था। पार्टी का घोषणा पत्र भी योगेंद्र ने ही प्रोफेसर आनंद कुमार आदि के साथ मिलकर तैयार किया था। जिस मुकेश अंबानी के भ्रष्टाचार के खिलाफ केजरीवाल अपने को बड़े योद्घा की तरह पेश करते रहे, उस अंबानी के विरुद्घ सारे बड़े मामले प्रशांत भूषण ने उठाए और कानूनी लड़ाई लड़ी।
 
यूपीए सरकार के खिलाफ 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले से लेकर विदेशों में जमा कालेधन को लेकर तमाम याचिकाएं प्रशांत भूषण ने ही दायर कीं और उन्हें तार्किक परिणति तक पहुंचाया। इन्हीं लोगों ने देशभर के जनांदोलनों में सक्रिय समूहों और मेधा पाटकर जैसे लोगों और तमाम बौद्घिकों को 'आप' से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई।
 
तो सवाल उठता है कि क्या योगेंद्र और प्रशांत पार्टी में अपने योगदान की कीमत वसूलना चाह रहे थे? नहीं, न तो वे कीमत वसूलना चाह रहे थे और न ही केजरीवाल की सत्ता को चुनौती दे रहे थे। वे तो सिर्फ इतना-भर चाहते थे कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र, पार्टी को मिलने वाले चंदे का पारदर्शी और लोकतांत्रिक लेखा-जोखा तथा उनके उठाए गए अन्य सवालों पर विचार हो, साथ ही पार्टी की एकता भी बनी रहे।
 
उन्होंने अपनी इस भावना का बार-बार इजहार भी किया, लेकिन उनकी नहीं सुनी गई बल्कि उनकी इस अभिव्यक्ति को केजरीवाल और उनकी एनजीओवादी सलाहकार मंडली ने अनुशासनहीनता और पार्टी-विरोधी गतिविधि करार दे दिया गया। जाहिर है कि यह गुट 'आप' को भी एक एनजीओ की तरह ही चलाना चाहता है।
 
'आप' में सुप्रीमो संस्कृति के लिए कौन जिम्मेदार... पढ़ें अगले पेज पर....
 
 

यह संयोग नहीं कि इतने कम दिनों में 'आप' के अंदर सुप्रीमो संस्कृति विकसित हो चुकी है। पार्टी सुप्रीमो केजरीवाल के इर्द-गिर्द कुछ पसंदीदा एनजीओवादियों और फैशनेबुल-महत्वाकांक्षी राजनीतिकों का ताकतवर गुट सक्रिय है। पार्टी कार्यकर्ताओं-नेताओं की दूसरी-तीसरी कतार इस ताकतवर गुट नेताओं के इर्द-गिर्द मंडराते रहने के लिए अभिशप्त है।
 
दिल्ली में केजरीवाल की मंत्रिपरिषद के गठन के नजरिए और तरीके को लेकर 'आप' और कांग्रेस, भाजपा, अन्नाद्रमुक, पीडीपी, राजद, सपा, बसपा, तेलुगुदेशम आदि में कोई फर्क दिखता है क्या? दिल्ली की मंत्रिपरिषद में किसी महिला को न रखने जैसा फैसला क्या सामूहिक-विमर्श आधारित हो सकता था?
 
वैसे 'आप' में पनपी इस सुप्रीमो संस्कृति के लिए सिर्फ केजरीवाल या उनके खास गुट को ही पूरी तरह जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए योगेंद्र, प्रशांत, आनंद कुमार भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं।
 
क्या यह सही नहीं है कि कुडनकुलम आंदोलन के नेता एसपी उदय कुमार, अशोक अग्रवाल, कैप्टन जीआर गोपीनाथ, मधु भादुड़ी, शाजिया इल्मी, विनोद बिन्नी सभी के प्रकरण में प्रशांत, योगेंद्र आदि पार्टी के अंदर पनपी सुप्रीमो संस्कृति पर मौन रहे हैं?
 
केजरीवाल समर्थकों का योगेंद्र और प्रशांत पर एक मुख्य आरोप यह है कि वे केजरीवाल को पार्टी के संयोजक पद से हटाना चाहते थे। अगर यह आरोप सच है तो सवाल है कि इसमें अनुचित क्या है? यहां योगेंद्र यादव से भी पूछा जाना चाहिए कि वे मीडिया के समक्ष बार-बार दीन-हीन मुद्रा में यह सफाई क्यों दे रहे हैं कि उन्होंने केजरीवाल को संयोजक पद से हटाने की मांग कभी नहीं की। वे यह कहने का साहस क्यों नहीं दिखाते हैं कि हां, हम चाहते हैं कि केजरीवाल दो में से एक पद छोड़ें और उसे पार्टी के किसी अन्य सहयोगी को सौंपें।
 
सवाल है कि लोकतंत्र और विकेंद्रीकरण की दुहाई देने वाली पार्टी में 'एक व्यक्ति-एक पद' की व्यवस्था क्यों नहीं लागू होना चाहिए? जिन मूल्यों की दुहाई केजरीवाल अब तक देते रहे हैं और जिन आधारों पर अपनी आम आदमी पार्टी को वे दूसरी अन्य स्थापित पार्टियों से अलग बताते रहे हैं, उनके मद्देनजर तो बेहतर तो यही होता कि वे खुद दिल्ली का मुख्यमंत्री बनते ही पार्टी के संयोजक पद से इस्तीफा दे देते। लेकिन उन्होंने ऐसा करने के बजाय ऐसा करने का सुझाव देने वालों को ही अपना और पार्टी का दुश्मन मान लिया।
 
सियासी दोमुंहेपन की इससे बड़ी मिसाल और क्या होगी कि जिस पार्टी का जन्म ही जनलोकपाल आंदोलन से हुआ, वह अपने ही आंतरिक लोकपाल को बर्दाश्त नहीं कर पाई। अण्णा आंदोलन से निकले नेताओं ने जब आम आदमी पार्टी बनाई तो जिन आधारों पर खुद को वे बाकी सभी दलों से अलग बताते रहे, उनमें एक यह भी था कि उन्होंने अपनी पार्टी में स्वतंत्र लोकपाल बनाया है जिसके पास पार्टी एवं उसके नेताओं-कार्यकर्ताओं से संबंधित कोई भी शिकायत की जा सकती है।
 
लेकिन लोकपाल एडमिरल एल. रामदास (पूर्व नौसेनाध्यक्ष) का 'दोष' यह था कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने अनेक 'आप' उम्मीदवारों के खिलाफ आई शिकायतों की गंभीरता से जांच कर दी। केजरीवाल और उनकी चौकड़ी ने इसे पार्टी को हराने की उस साजिश का हिस्सा माना जिसका सूत्रधार होने का इल्जाम उन्होंने प्रशांत भूषण पर लगाया। इसीलिए प्रशांत, योगेंद्र यादव, आनंद कुमार आदि को पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से हटाने के एक दिन बाद एडमिरल रामदास की भी छुट्‌टी कर दी गई।
 
देश की जनता का एक बड़ा तबका जो राजनीति में नैतिक शक्ति और सार्थक बदलाव का पक्षधर है, इस समय भारी सदमे में है। 'आप' में जिस तरह से परस्पर अविश्वास, विवाद और गाली-गलौज का सार्वजनिक प्रदर्शन और प्रकारांतर से वैकल्पिक राजनीति का गर्भपात देश ने टेलीविजन चैनलों पर देखा है, उससे दोनों धड़ों का नुकसान तो हुआ ही है, वैकल्पिक राजनीति की संभावनाओं को भी झटका लगा है।
 
केजरीवाल समर्थक यह सोच सकते हैं कि यदि दिल्ली में उनकी सरकार सुशासन देने में कामयाब रही तो मतदाता 5 वर्ष बाद यह उठापटक भूल जाएंगे, लेकिन 'आप' की नैतिक शक्ति अब निस्तेज हो गई है। पार्टी के कार्यकर्ता निराश हैं और एक-दूसरे के प्रति अविश्वास चरम पर है। ऐसी स्थिति में आंदोलन से उपजी इस पार्टी का हाल भी उन क्षेत्रीय दलों जैसा ही हो सकता है, जो लोकप्रियता के चलते शिखर पर पहुंचे, लेकिन आपसी अविश्वास, सत्ता-संघर्ष, अहंकार के कारण फिर से शून्य पर आ गए।
 
जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि 'सत्ता भ्रष्टाचार की और अति-सत्ता चरम भ्रष्टाचार की जननी है।' उनका यह कथन तमाम सत्ताधीशों पर लागू हुआ है और अरविंद केजरीवाल भी इसके अपवाद साबित होते नहीं दिख रहे हैं।