शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
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Written By Author अनिल जैन

यह वैकल्पिक राजनीति का गर्भपात है!

यह वैकल्पिक राजनीति का गर्भपात है! - Arvind kejriwal AAP
आम आदमी पार्टी में पिछले दिनों जो कुछ हुआ और इन दिनों हो रहा है उसे एक फिल्मी गीत की तर्ज पर कहें तो- यह तो होना ही था। दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली ऐतिहासिक सफलता को दो महीने भी नहीं हुए कि महज ढाई साल पुरानी नवजात आम आदमी पार्टी (आप) टूट की कगार पर पहुंच चुकी है और उसके विभाजन की अब औपचारिताएं ही शेष हैं जो देर-सबेर पूरी हो जाएंगी।
आखिर इससे पहले भी किसी आंदोलन के गर्भ से या आंदोलन की सफलता से उपजे राजनीतिक दलों का भी तो यही हश्र हुआ है। 1977 की जनता पार्टी हो या 1985-86 के दौर में असम गण परिषद या फिर 1989 में बना जनता दल, ये सभी पार्टियां सत्ता में पहुंचते ही अपने अंतर्विरोधों और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के टकराव के चलते असमय ही टूट और बिखराव का शिकार हुई हैं। फिर आम आदमी पार्टी का जन्म तो एक आंदोलन की असफलता और उससे उपजी हताशा से हुआ था, लिहाजा उसके असफल होने या टूटने पर वैसे तो किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए, लेकिन हो रहा है तो उसके कुछ वाजिब कारण हैं, जो हैरान करने वाले हैं।  
 
दरअसल, आप का गठन प्रचलित राजनीति के तौर-तरीके बदलने और देश में नई राजनीतिक संस्कृति विकसित करने के ध्येय से हुआ था। कई बार इसने इसकी बानगी भी पेश की, जिससे देश के लोगों में इस पार्टी को लेकर उत्साह और उम्मीद जगी, लेकिन इसके घोषित उद्‌‌देश्य इतनी जल्दी नैपथ्य में चले जाएंगे और नेताओं के निजी अहं हावी हो जाएंगे, इसका अंदाजा किसी को नहीं था।
 
पार्टी के संस्थापकों में शामिल रहे कुछ नेता और कार्यकर्ता चाहते थे कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र, पार्टी को मिलने वाले चंदे का पारदर्शी और लोकतांत्रिक लेखा-जोखा तथा उठाए गए अन्य सवालों पर विचार हो, साथ ही पार्टी की एकता भी बनी रहे। उन्होंने अपनी इस भावना का बार-बार इजहार भी किया, लेकिन उनकी नहीं सुनी गई, बल्कि उनकी इस अभिव्यक्ति को पार्टी के शीर्ष नेतृत्व और उनकी सलाहकार (चाटुकार) मंडली ने अनुशासनहीनता और पार्टी विरोधी गतिविधि करार दे दिया। सवाल उठाने वालों की अगुआई कर रहे योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, प्रो. आनंद कुमार, अजीत झा आदि को पार्टी सप्रीमो अरविंद केजरीवाल की जिद के दबाव में पार्टी के सभी महत्वपूर्ण निकायों से बाहर कर पार्टी की सारी निर्णय-प्रक्रिया से अलग कर दिया गया। 
 
सियासी दोमुंहेपन की इससे बड़ी मिसाल और क्या होगी कि जिस पार्टी का जन्म ही जनलोकपाल आंदोलन से हुआ, वह अपने ही आंतरिक लोकपाल को बर्दाश्त नहीं कर पाई। अन्ना आंदोलन से निकले नेताओं ने जब आम आदमी पार्टी बनाई तो जिन आधारों पर खुद को वे बाकी सभी दलों से अलग बताते रहे, उनमें एक यह भी था कि उन्होंने अपनी पार्टी मे स्वतंत्र लोकपाल बनाया है, जिसके पास पार्टी एवं उसके नेताओं-कार्यकर्ताओं से संबंधित कोई शिकायत की जा सकती है। लेकिन लोकपाल (पूर्व नौसेनाध्यक्ष) एडमिरल एल. रामदास का दोष यह था कि दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होने अनेक 'आप' उम्मीदवारों के खिलाफ आई शिकायतों की गंभीरता से जांच कर दी।
 
केजरीवाल और उनकी चौकड़ी ने इसे पार्टी को हराने की उस साजिश का हिस्सा माना, जिसका सूत्रधार होने का इल्जाम उन्होंने प्रशांत भूषण पर लगाया। इसीलिए प्रशांत, योगेंद्र यादव, आनंद कुमार आदि को पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से हटाने के एक दिन बाद एडमिरल रामदास की भी छुट्‌टी कर दी गई। पार्टी के जो अन्य कार्यकर्ता और नेता इस पर आपत्ति जता रहे हैं उन पर भी इसी तरह अनुशासन का डंडा चलाने का सिलसिला जारी है।
 
आम आदमी पार्टी के उदय के पीछे अन्ना आंदोलन की पृष्ठभूमि तो थी ही पर वैकल्पिक राजनीति की उम्मीद से कई अन्य आंदोलनकारी धाराओं के लोग भी जुड़े। पर आज वे लोग पार्टी नेतृत्व के रंग-ढंग देखकर हताशा-निराशा महसूस कर रहे हैं। ऐसे ही लोगों में शामिल मेधा पाटकर ने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है। एसपी उदयकुमार, मधु भादुड़ी, कैप्टन जीआर गोपीनाथ, अंजलि दमानिया और अशोक अग्रवाल जैसे कई और संजीदा लोग पहले ही पार्टी छोड़ चुके हैं।
 
केजरीवाल और उनके करीबी लोग इस बात से आश्वस्त महसूस कर सकते है कि अपनी राह के रोड़े उन्होंने दूर कर दिए है। पर लगता है पार्टी की साख की उन्हें तनिक चिंता नही है। जो मतभेद और सवाल विवाद का विषय बने, वे ऐसे नहीं थे कि सुलझाया ही न जा सके। आपसी बातचीत से न सुलझने की सूरत में ये सारे मसले लोकपाल के हवाले करके और उनकी राय को अंतिम मान कर आगे बढ़ा जा सकता था। पर लगता है केजरीवाल ने हर हाल में योगेद्र यादव, प्रशांत भूषण और उनकी मांगों का समर्थन करने वालों को बाहर का रास्ता दिखाने का निश्चय कर लिया था। सवाल है कि क्या भविष्य में भी असहमतियों से वे इसी तरह से निपटेंगे?
 
केजरीवाल के समर्थकों का योगेंद्र और प्रशांत पर एक मुख्य आरोप यह भी है कि वे केजरीवाल को पार्टी के संयोजक पद से हटाना चाहते थे। अगर यह आरोप सच है तो सवाल है कि इसमें अनुचित क्या है? यहां योगेंद्र यादव से भी पूछा जाना चाहिए कि वे मीडिया के समक्ष बार-बार दीन-हीन मुद्रा में यह सफाई क्यों दे रहे हैं कि उन्होंने केजरीवाल को संयोजक पद से हटाने की मांग कभी नहीं की। वे क्यों नहीं खुलकर कहते हैं कि हां, हम चाहते हैं कि केजरीवाल दो में से एक पद छोड़े और उसे पार्टी के किसी अन्य सहयोगी को सौंपे।
 
सवाल है कि लोकतंत्र और विकेंद्रीकरण की दुहाई देने वाली पार्टी में एक व्यक्ति-एक पद की व्यवस्था क्यों नहीं लागू होना चाहिए? जिन मूल्यों की दुहाई केजरीवाल अब तक देते रहे हैं और जिन आधारों पर अपनी आम आदमी पार्टी को वे दूसरी अन्य स्थापित पार्टियों से अलग बताते रहे हैं, उनके मद्देनजर तो बेहतर तो यही होता कि वे खुद दिल्ली का मुख्यमंत्री बनते ही पार्टी के संयोजक पद से इस्तीफा दे देते, लेकिन उन्होंने ऐसा करने के बजाय ऐसा करने का सुझाव देने वालों को ही अपना और पार्टी का दुश्मन मान लिया।
 
देश की जनता का एक बड़ा तबका जो राजनीति मे नैतिक शक्ति और सार्थक बदलाव का पक्षधर है, इस समय भारी सदमे में है। दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जिस तरह से दिल्ली की जनता ने भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खारिज किया, उससे यह विश्वास बना था कि भारतीय मतदाता परिपक्व है, भारत में लोकतंत्र मजबूत है और लोग पारदर्शितापूर्ण और जिम्मेदार सरकार चाहते हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी मे जिस तरह से परस्पर अविश्वास, विवाद और गाली-गलौज का सार्वजनिक प्रदर्शन और प्रकारांतर से वैकल्पिक राजनीति का गर्भपात देश ने टेलीविजन चैनलों पर देखा है, उससे दोनों धड़ों का नुकसान तो हुआ ही है, वैकल्पिक राजनीति की संभावनाओं को भी झटका लगा है। जनता एक बार फिर ठगी हुई और परास्त महसूस कर रही है।
 
यह सच है कि आम आदमी पार्टी मे जारी सार्वजनिक तमाशे से खफा होकर लेकिन दिल्ली के विधायक कोई बड़ी बगावत नही कर पाएंगे। केजरीवाल समर्थक यह सोच सकते हैं कि यदि सरकार सुशासन से चले तो मतदाता पांच वर्ष बाद यह उठापटक भूल जाएंगे, लेकिन आम आदमी पार्टी की नैतिक शक्ति अब निस्तेज हो गई है। पार्टी के कार्यकर्ता निराश है और एक-दूसरे के प्रति अविश्वास चरम पर है। ऐसी स्थिति मे आंदोलन से उपजी इस पार्टी का हाल भी उन क्षेत्रीय दलों जैसा ही हो सकता है, जो लोकप्रियता के चलते शिखर पर पहुंचे, लेकिन आपसी अविश्वास, सत्ता-संघर्ष, अहंकार के कारण फिर से शून्य पर आ गए। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि सत्ता भ्रष्ट करती है और अति सत्ता अतिभ्रष्ट करती है।
 
उनका यह कथन तमाम सत्ताधीशों पर लागू हुआ है और अरविंद केजरीवाल भी इसके अपवाद साबित होते नहीं दिख रहे हैं। केवल दिल्ली जैसे एक छोटे से सूबे या एक महानगर की सत्ता से ही वे इतने मदांध हो गए कि उनको समझ नही आ रहा कि कौन पार्टी का हितैषी है और कौन दुश्मन? अरविंद केजरीवाल यदि इसी तरह अपनी पार्टी और सरकार चलाना चाहते हैं तो देश के लोकतंत्र के लिए यह शुभ नहीं होगा। फिलहाल तो आम आदमी पार्टी के बुरे दिनों की शुरुआत हो चुकी है।