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Written By Author अनिल जैन

युद्धखोरी ने अमेरिका को खोखला कर दिया

युद्धखोरी ने अमेरिका को खोखला कर दिया - America Economy
अमेरिका इस समय जिस आर्थिक संकट से रूबरू हो रहा है उसकी एक बड़ी वजह यह है कि लगभग एक शताब्दी से अधिक समय तक आर्थिक समृद्धि और सामरिक शक्ति के मामले में दुनिया के शिखर पर रहने के बावजूद अमेरिकी समाज न तो कभी अपने स्वभाव में स्थिरता ला पाया और न ही अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त हो सका। बीसवीं सदी की शुरुआत से लेकर 1970 तक का समय तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था का स्वर्णिम दौर था। लेकिन 1970 के बाद उसने अपने यहां बढ़ते प्रदूषण तथा अन्य कारणों से अपने यहां के कई उद्योगों को चीन तथा अन्य विकासशील देशों की ओर खिसका दिया।
 

ऐसा करने से वह निर्माता और निर्यातक देश से आयातक देश की भूमिका में आ गया, जिसका सीधा असर उसकी अर्थव्यवस्था पर पड़ा और उसे व्यापारिक घाटा हुआ। हालांकि वह अपने यहां की बहुराष्ट्रीय कंपनियों, व्यापारिक तंत्र और अन्य विकसित औद्योगिक देशों से लिए गए कर्ज के बूते अपनी अर्थव्यवस्था को टिकाए रखने और वैश्विक पूंजी बाजार में अपना दबदबा बनाए रखने में कामयाब रहा। लेकिन इसके बावजूद पांच दशक पहले तक दुनिया का सबसे बड़ा निर्माता रहा यह देश धीरे-धीरे सबसे बड़े उपभोक्ता देश में तब्दील हो गया। आज उसकी आर्थिक हालत इतनी खोखली हो गई है कि उसके असर से दुनिया की बाकी अर्थव्यवस्थाओं की भी सांसें फूलने लगी हैं और दुनिया के तमाम आर्थिक विशेषज्ञ 1930 के दशक जैसी महामंदी आने की आशंका जता रहे हैं। 
 
चूंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था समूची वैश्विक अर्थव्यवस्था की एक चौथाई मानी जाती है और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में दुनिया भर की वित्तीय व्यवस्थाओं और बाजारों के साथ-साथ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाएं भी एक-दूसरे से गुंथी हुई हैं, लिहाजा अमेरिकी अर्थव्यवस्था को जुकाम होता है तो भारत से लेकर ब्राजील तक की अर्थव्यवस्थाएं छींकने लगती हैं। ऐसा 2007 से 2009 के दौरान भी हम देख चुके हैं जब अमेरिकी मंदी ने दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं को अपनी चपेट में ले लिया था।
 
अब एक बार फिर अमेरिका की बदौलत वैसे ही हालात बनते जा रहे हैं, बल्कि यूं कहें कि बन चुके हैं। दरअसल, अमेरिकी अर्थव्यवस्था जिस तरह कर्ज पर जीने की आदी हो चुकी है, उसके कारण यह नौबत आना ही थी। यह जगजाहिर हकीकत है कि आज अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा कर्जखोर देश बन चुका है। अगर कहा जाए कि वह वैश्विक कर्ज का ब्लैक होल बन गया है, तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसा ब्लैक होल जो पिछले कई दशकों से दुनियाभर के अधिकांश देशों की बचत-पूंजी को निगलता जा रहा है।
 
ताजा आंकड़ों के मुताबिक इस समय अमेरिका पर कुल संघीय कर्ज लगभग 140 खरब डॉलर का है। इसमें करीब 44 खरब डॉलर का विदेशी कर्ज है। इस विदेशी कर्ज में सबसे बड़ा हिस्सा चीन का लगभग 26 फीसदी का है। इसके अलावा जापान, हांगकांग, ब्रिटेन, ब्राजील और यहां तक कि भारत जैसे देशों का भी काफी पैसा अमेरिकी अर्थव्यवस्था में दांव पर लगा हुआ है। 
 
अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान ने कर्ज का जितना इस्तेमाल वैभव और विलासिता के भौंडे प्रदर्शन पर किया है, उससे कहीं ज्यादा उसका बेजा इस्तेमाल युद्धों और सैन्य कार्रवाइयों पर तथा दूसरे देशों में चरमपंथी और अलगाववादी संगठनों को बढ़ावा देकर वहां अस्थिरता पैदा करने में किया है। हालांकि यह और बात है कि अपने दम-खम पर वह आज तक कोई युद्ध नहीं जीता। हां, अपने विध्वंसकारी हथियारों का डर दिखाकर अपने विरोधियों को झुकाने में वह जरूर कामयाब रहा है। सीधे युद्ध में वह न तो विएतनाम का मनोबल तोड़ पाया और न ही अफगान तालिबान से जीत पाया। दोनों ही युद्धों में उसे एक तरह से बेआबरू होकर अपने कदम पीछे खींचने को बाध्य होना पड़ा है।
 
इराक में सद्दाम हुसैन की हुकूमत को उसने जरूर अपने अत्याधुनिक संहारक हथियारों के जरिए ध्वस्त कर दिया लेकिन आईएसआईएस के सिरफिरे लड़ाके आज भी उसका सिरदर्द बने हुए हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि आतंकवाद के खिलाफ अफगानिस्तान और इराक युद्ध के नाम पर पिछले तेरह वर्षों में अमेरिका का युद्ध बजट चार खरब डॉलर तक पहुंच गया है और अंतिम आकलन में वह पांच खरब डॉलर से भी ऊपर तक जा सकता है। कहना न होगा कि आज अमेरिकी अर्थव्यवस्था युद्धों के बोझ से दबी जा रही है। हालांकि कई बुनियादी ढांचागत समस्या भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ी हुई हैं, लेकिन वास्तव में तो युद्ध मशीनरी ही दीमक की तरह उसे भीतर से खोखला किए जा रही है।
 
अमेरिकी सत्ता तंत्र औरों से ही नहीं बल्कि अपने नागरिकों से भी इतना भयभीत रहता है कि 9/11 की घटना के बाद तो आंतरिक सुरक्षा के नाम पर उसने अपने मुल्क को एक तरह से पुलिस स्टेट में तब्दील कर दिया है। गोरे पुलिसकर्मियों द्वारा किसी भी अश्वेत व्यक्ति को संदिग्ध मानकर उसे अपमानित-प्रताड़ित करना, यहां तक कि उसे गोली मार देना आम बात हो गई है।
 
अमेरिका में करीब चार सौ साल पहले डच उपनिवेशवादियों द्वारा कायम की गई दास प्रथा तो कोई डेढ़ सौ साल पहले राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के दौर में समाप्त हो गई थी लेकिन दास प्रथा को जन्म देने वाली यूरोपीय गौरांग महाप्रभुओं की रंगभेदी/नस्लभेदी मानसिकता अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। उसके प्रेत वहां अभी भी रह-रहकर जाग उठते हैं और अपना खेल निर्द्वंद्व होकर खेलते हैं। वहां कभी किसी गुरुद्वारे पर हमला कर दिया जाता है तो कभी किसी सिख अथवा दक्षिण-पश्चिमी एशियाई मूल के किसी दाढ़ीधारी मुसलमान को आतंकवादी मानकर उस पर हमला कर दिया जाता है। कभी कोई गोरा पादरी किसी नीग्रो या किसी और मूल के अश्वेत जोड़े की शादी कराने से इनकार कर देता है तो कभी किसी भारतीय राजनेता, राजनयिक और कलाकार से सुरक्षा जांच के नाम बदसुलूकी जाती है तो कभी किसी भारतीय अथवा एशियाई मूल के व्यक्ति को रेलगाड़ी के आगे धक्का देकर मार दिया जाता है। हाल के वर्षों में वहां इस तरह की कई घटनाएं हुई हैं।
 
अमेरिका में नस्लभेदी बदसुलूकी के शिकार सिर्फ भारत और भारतीय उपमहाद्वीप के लोग या स्थानीय और प्रवासी मुसलमान ही नहीं होते बल्कि अमेरिका के अश्वेत मूल निवासियों के साथ भी वहां के गोरे भेदभाव और बदसुलूकी करते हैं। मई 2012 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के विशेष जांचकर्ता जेम्स अनाया ने अपनी रिपोर्ट में अमेरिका के मूल निवासियों के खिलाफ 'व्यवस्थित' ढंग से भेदभाव किए जाने का आरोप लगाया था। जेम्स अनाया दुनियाभर में कबाइली और मूल निवासी लोगों के अधिकारों के बारे में जांच करते हैं।
 
उनकी रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका के मूल निवासी लंबे समय से अपनी वे जमीनें वापस पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं जो आक्रमणकारी गोरों ने वर्षों पहले उनसे छीन ली थीं। अश्वेत मूल निवासियों की जमीनें और खनिज संपदा छीनने, उनके बच्चों को परिवार और समुदाय से अलग करने, उनकी परंपराओं और रीति रिवाजों को तोड़ने, उनके साथ किए गए समझौतों को तोड़ने तथा अमानवीय व्यवहार करने का सिलसिला आज भी लगातार जारी है। उन्हें स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य बुनियादी और सामाजिक सेवाएं हासिल करने में भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। 
 
एमर्सन कॉलेज पोलिंग सोसायटी की 2013 में जारी रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में रह रहे 61 फीसदी अफ्रीकी अमेरिकी मानते हैं कि देश में दोनों नस्लों के बीच तनाव लगातार गहराता जा रहा है। कई बड़े और मझौले शहरों में श्वेत और अश्वेत आबादी अलग-अलग समूहों में रहती है। 1968 में न्यूयॉर्क, लास एंजेलिस, डेट्राइट और शिकागो में हुए भीषण जातीय दंगों की जांच के लिए गठित केर्नर कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि अमेरिका में श्वेतों और अश्वेतों के रूप में दो अलग-अलग और असमान समाज पनप रहे हैं। सामाजिक गैरबराबरी की इस को खाई आज लगभग आधी सदी बाद भी पाटा नहीं जा सका है, बल्कि वह और ज्यादा चौड़ी और गहरी हुई है।
 
अमेरिकी समाज आज जिस तरह के तमाम सामाजिक और सांस्कृतिक अंतरविरोधों और जातीय या नस्लीय तनावों से ग्रस्त है और जिस तरह की आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा है, उसे देखते हुए लोहिया के शब्दों में कहा जा सकता है कि अमेरिका का मौजूदा समूचा संकट एक मर चुकी सभ्यता की सड़ांध है। हालांकि अमेरिका अब भी सबसे समृद्ध और ताकतवर देश है और चूंकि दुनिया का आधुनिक आर्थिक ढांचा ऐसा है कि जब तक अमेरिका से इतर कोई अन्य देश अपनी समृद्धि से वैश्विक पूंजी का प्रवाह अपनी ओर नहीं मोड़ लेता तब तक अमेरिका की मौजूदा सड़ांध मारती चौधराहट बनी रहेगी।