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खेती को संकट से उबारा जा सकता है, बशर्ते...!

खेती को संकट से उबारा जा सकता है, बशर्ते...! - Agriculture
-विकास जैन
किसी कृषि प्रधान देश का सबसे महत्वपूर्ण आधार किसान जब न केवल बदहाली का जीवन जीने को अभिशप्त हो बल्कि आत्महत्या जैसा भयावह कदम उठाने तक को मजबूर हो जाए तो देश के विकास का सपना बेमानी लगता है। कृषि मंत्रालय और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकडे बताते हैं कि खेती-किसानी के कारण कर्ज के जाल मे फंसे किसान न सिर्फ बदहाली का जीवन जी रहे है बल्कि आत्मघाती कदम भी उठा रहे हैं।

पिछले लगभग दो दशक से देश में साल दर साल किसानों की आत्महत्या के बढते आंकडे इस सच्चाई को उजागर करते हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक बीते दो दशक के दौरान लगभग तीन लाख किसानों ने कृषि क्षेत्र की विभिन्न समस्याओं के चलते आत्महत्या का रास्ता चुन लिया। 
 
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएसओ) की ताजा रिपोर्ट यह भी बताती है कि देश के नौ करोड किसान परिवारों में से 52 फीसदी कर्ज मे डूबे हुए हैं और हर किसान पर औसतन 47 हजार रुपए का कर्ज है। देश के लगभग 44 फीसद किसानों के पास मनरेगा का जॉब कार्ड है और गरीब किसानों ने जीवन यापन के लिए बीपीएल कार्ड बनवाया है। देश का अन्नदाता किसान यदि अपने जीवन यापन के लिए मनरेगा और बीपीएल कार्ड की बाट जोहता दिखे तो भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए यह स्थिति सचमुच शर्मनाक और विडम्बनापूर्ण है। इस स्थिति के लिए कहीं न कहीं सरकार की नीतियां ही जिम्मेदार हैं जिनमें कृषि को कभी भी देश के विकास की मुख्यधारा का मानक समझा ही नहीं गया। उल्टे उनकी खेती योग्य भूमि को तमाम तरह की विकास योजनाओं के नाम पर औने-पौने दामों में खरीदकर उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर किया जाता रहा है।
 
बीज और खाद आदि के नाम पर छिटपुट सब्सिडी और कृषि ऋण के अलावा किसानों के लिए आज ऐसी कोई सरकारी सुविधा नहीं है जो अतिवृष्टि, अनावृष्टि या अन्य प्राकृतिक आपदाओं के कारण बर्बाद हो गई फसल की भरपाई करते हुए सरकार उनके सम्मानजनक जीवन यापन का बंदोबस्त कर सके। यही नहीं, हाईब्रिड फसलों के नाम पर किसानों के सामने महंगे बीज का संकट उनकी पारंपरिक किसानी की राह का बहुत बड़ा रोड़ा साबित हो रहा है।
 
किसानों के सामने इधर खाई तो उधर कुआं वाला दोहरा संकट हमेशा बना रहता है। प्राकृतिक आपदा या अन्य किसी कारण से फसल बर्बाद हो गई तो खेती के लिए लिया गया कर्ज न चुका पाने के कारण रोटी के भी लाले पड़ जाते है और निराशा आत्महत्या तक ले जाती है लेकिन जरूरत से ज्यादा उत्पादन भी उसके लिए आफत का पैगाम लेकर ही आता है, क्योंकि उसे उसकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है और औने-पौने दामों में बेचना पड़ता है। 
 
हाल ही मे मूडीज इन्वेस्टर्स सर्विस ने अपनी इंडिया रिपोर्ट में भी कहा है कि अर्थव्यवस्था में ग्रामीण भारत की हिस्सेदारी निराशाजनक है। इसके अनुसार देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था चालू वित्त वर्ष 2015-16 में कमजोर बनी रहेगी, जो भारत सरकार व देश के बैंकों की वित्तीय साख के प्रतिकूल है।
 
अमेरिका की वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्‌यूट की एक रिपोर्ट भी कहती है कि भारत में गांवों का समुचित विकास न होने का एक प्रमुख कारण कृषि पर निर्भर आबादी मे तेजी से वृद्धि होना है। एनएसएसओ का कहना है कि कृषि क्षेत्र का जीडीपी में जो योगदान आजादी के बाद करीब 50 फीसदी था, वह लगातार घटते हुए साल 2015 में महज 17 प्रतिशत रह गया है। 40 प्रतिशत किसान खेती को काफी जोखिम भरा और दुखदायी पेशा मानते हुए इसे छोड़ना चाहते हैं।
 
कुछ दिनों पहले दिल्ली के जंतर मंतर पर राजस्थान के एक किसान गजेंद्र के आत्महत्या कर लेने पर संसद काफी हंगाम मचा था, जिस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा था कि हमें किसानों की वर्तमान दशा को बदलना होगा और यह बदलाव देश के सामूहिक प्रयासों से ही होगा। उन्होंने इस सिलसिले में सभी सांसदों और आम लोगों से सुझाव भी मांगे थे। सरकार के पास कितने और क्या-क्या सुझाव आए और सरकार ने उन पर क्या कार्यवाही की, यह अभी किसी को नहीं मालूम। 
 
विगत कई वर्षो से केंद्र और तमाम राज्य सरकारें यह तो मानती और कहती आई हैं कि हमें खेती घाटे का कारोबार हो गई है, जिसे हमें मुनाफे के कारोबार में बदलना होगा। लेकिन हकीकत यह है कि आजादी के बाद किसी भी सरकार ने इस बारे में कभी गंभीरता से प्रयास नहीं किए। हमारे शासक वर्ग यानी राजनेताओं और नौकरशाहों कभी यह महसूस ही नहीं किया कि हमारी खेतीबाडी समृद्ध हो और हमारे किसान व गांव खुशहाल बने। नतीजा यह हुआ कि आयातित बीजों और रासायनिक खाद के जरिए जो हरित क्रांति हुई, वह देशव्यापी स्वरूप नहीं ले सकी। उसका असर सिर्फ पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तरप्रदेश जैसे देश के उन्हीं इलाकों में देखने को मिला, जहां के किसान खेती में ज्यादा से ज्यादा पूंजी निवेश कर सकते थे। 
 
अगर हमारी सरकारों का मकसद यदि आम किसानों को सुखी-समृद्ध बनाने का होता तो देश के उन इलाकों में नहरों का जाल बिछा दिया जाता, जहां सिंचाई व्यवस्था पूरी तरह चौपट हो चुकी है। ऐसा होता तो खेती की लागत भी कम होती और कर्ज की मार तथा मानसून की बेरुखी के चलते किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर नहीं होना पडता। लेकिन हुआ यह कि जो बची-खुची नहरें, तालाब इत्यादि परंपरागत सिंचाई के माध्यम थे, उन्हें भी दिशाहीन औद्योगीकरण और विनाशकारी विकास की प्रक्रिया ने लील लिया। जहां खेती में पूंजी निवेश हुआ, वहां भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन हुआ और बिजली की जरूरत भी बढ गई। रही-सही कसर कीमतों की मार और बेहिसाब करारोपण ने पूरी कर दी।
 
वर्तमान सरकार अगर वाकई देश के किसानों की समस्याओं के प्रति गंभीर है और उसमें कुछ करने की इच्छाशक्ति है तो वह देश के कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन कर सकती है। इस सच्चाई से हर कोई परिचित है कि इस कृषि प्रधान देश में आज छोटा और मध्यम श्रेणी का किसान अधिकतम लागत पर भी न्यूनतम उत्पादन नही कर पा रहा है।
 
किसानों को इस स्थिति से उबारने के लिए आवश्यकता है कृषि के आधारभूत ढांचे यानी कृषि उत्पादन और उसके विपणन के परंपरागत तरीकों को बदलने की, ताकि किसानों को न्यूनतम लागत पर उनकी उपज का अधिकतम मूल्य प्राप्त हो सके। आज सरकारें कृषि क्षेत्र में सब्सिडी के रूप में अरबों रुपए दे रही है। इस व्यवस्था को समाप्त किया जा सकता है। 
 
सब्सिडी और कर्ज माफी के जरिए किसानों को मौजूदा संकट से नहीं उबारा जा सकता। किसानों का जीवन स्तर ऊंचा उठाना है तो निश्चित रूप से हमें कृषि उत्पादन की ऐसी व्यवस्था लागू करना होगी, जिससे उनकी वार्षिक आय में प्रतिवर्ष वृद्धि हो सके और नुकसान की संभावना कम से कम हो सके। सब्सिडी एवं कर्ज माफी के रूप में सरकारी खजाने से खर्च होने वाले पैसे का उपयोग कृषि कार्य में प्रयुक्त होने वाले आधुनिक उपकरणों और गांव के विकास में खर्च किया जा सकता है।
 
हमारे देश में पंचायत राज व्यवस्था है। इस व्यवस्था के तहत प्रत्येक पंचायत क्षेत्र में पब्लिक-प्रायवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल में एक ऑपरेटिंग किसान कंपनी बनाना चाहिए। यह कंपनी पंचायत क्षेत्र में रहने वाले किसानों को उनके स्वामित्व वाली भूमि के आधार पर उन्हें शेयर होल्डर बनाया जाए। इस प्रक्रिया में किसानों को यह विश्वास दिलाना होगा कि हम उनकी जमीन ले नहीं रहे हैं बल्कि खेती करने का तरीका बदल रहे हैं। कंपनी संबंधित पंचायत क्षेत्र की सभी सिंचित और असिंचित भूमि को मिलाकर एक प्लाट तैयार करेगी और उसे प्लाट पर एक साथ आधुनिक कृषि उपकरणों के माध्यम से वैज्ञानिक पद्धति से फसलों की बुआई, सिंचाई, रखरखाव और कटाई का काम करेगी।
 
फसलों के उत्पादन के बाद प्रति एक हजार एकड़ पर वेअर हाउस, कोल्ड स्टोरेज एवं फसलों की साफ-सफाई और पैकिंग का प्लांट लगाया जाएगा, ताकि फसल सीधे किसान कंपनी से उपभोक्ता के पास पहुंचाई जा सके। इस तरह हम उस कृषि उपज मंडी की व्यवस्था को खत्म कर सकते हैं, जहां बिचौलियों द्वारा कृत्रिम तौर पर तेजी-मंदी पैदा की जाती है। ऐसा करने से लागत में वृद्धि को भी रोका जा सकता है। हां, मंडी के व्यवसायी जरूर किसान कंपनी के डीलर या रिटेलर हो सकते हैं, जिनके माध्यम से उत्पादन को उपभोक्ता तक पहुंचाया जा सके।
 
इस व्यवस्था से न्यूनतम लागत पर अधिकतम मूल्यवर्धित उत्पादन उच्चतम मूल्य पर प्राप्त किया जा सकता है। इस व्यवस्था में स्थानीय पंचायत निवासी को ही कंपनी के कार्यों में लगाया जा सकता है, जिससे कि बेरोजगारी की समस्या का भी समाधान हो सके। किसानों के समय एवं श्रम का उपयोग किसान कंपनी के अन्तर्गत संचालित होने वाली विभिन्न गतिविधियों में किया जा सकता है। इसके लिए उन्हें अलग से भुगतान किया जा सकता है।
 
कंपनी को होने वाला वार्षिक लाभ किसानों को उनके शेयर के अनुसार दिया जा सकता है, जो कि निश्चित रूप से वर्तमान में प्राप्त मुनाफे से अधिक ही होगा। इस समय समूचे देश में महज 15 से 20 फीसदी किसान ही आधुनिक संसाधनों के जरिए खेती कर पा रहे हैं। हमें इस स्थिति को बदल कर सौ फीसदी तक ले जाना होगा और उपरोक्त प्रस्तावित व्यवस्था में यह संभव है। 
 
इस प्रस्तावित व्यवस्था का दूसरा सबसे बड़ा लाभ यह हो सकता है कि हम फसलों को संतुलित तरीके से उत्पादित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए एक हजार एकड़  के खेती योग्य भूखंड पर उस क्षेत्र के अनुसार एक निश्चित अनुपात में कई तरह की फसलों का उत्पादन देश की जरूरत के अनुसार कर सकते है। मसलन तीस फीसदी क्षेत्र में अनाज, तीस फीसदी में कपास, गन्ना या तिलहन, पंद्रह फीसदी में दलहन, पंद्रह फीसदी में फल एवं सब्जियां तथा दस फीसदी क्षेत्र में मसाले, चाय एवं अन्य कृषि उत्पाद' इस अनुपात में क्षेत्र विशेष की स्थिति और आवश्यकता के मुताबिक परिवर्तन भी हो सकता है। इस तरह हम देश की जरूरत के अनुसार उत्पादन कर न सिर्फ आयात पर निर्भरता को खत्म कर सकते हैं बल्कि निर्यात में भी अधिकतम लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं।
 
इस व्यवस्था के जरिए फसलों के दामों में भी संतुलन बनाया जा सकता है। कृषि उपज के मूल्य निर्धारण के लिए सरकार और किसानों के प्रतिनिधियों की केंद्र अथवा राज्य स्तरीय समिति बनाई जा सकती है। ऐसा करके न सिर्फ महंगाई पर नियंत्रण किया जा सकता है बल्कि एग्रो कमोडिटी एक्सचेंज की आवश्यकता को खत्म कर कृषि उपज पर होने वाली सट्‍टेबाजी पर भी पूरी तरह रोक लगाई जा सकती है।
 
इस प्रस्तावित योजना पर अमल का एक बड़ा लाभ यह भी होगा कि रोजगार की तलाश में गांवों से शहरों की ओर होने वाले पलायन की प्रवृत्ति पर भी रोक लगेगी और शहरों पर आबादी के बढ़ने वाला दबाव कम होगा। हालांकि इस योजना को हमारे विशाल और विविधता से भरे देश में एक साथ लागू करना आसान नहीं है, लेकिन प्रायोगिक तौर पर सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत हर संसदीय क्षेत्र में तो लागू किया ही जा सकता है। वहां अनुकूल परिणाम मिलने पर योजना के दायरे को बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए जरूरत है सरकार में बैठे लोगों में ईमानदार इच्छाशक्ति की।