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Written By समय ताम्रकर

सिटीलाइट्स : फिल्म समीक्षा

Citylights Movie Review | सिटीलाइट्स : फिल्म समीक्षा
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गांव से शहरों की ओर पलायन को लेकर कुछ फिल्में पहले भी बनी हैं। मुजफ्फर अली की 'गमन' इस विषय पर बनी बेहतरीन फिल्म है जिसका एक गाना 'सीने में जलन' आज भी सुना जाता है। '‍शाहिद' फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले हंसल मेहता ने अपनी अगली फिल्म 'सिटीलाइट्स' में इसी विषय को चुना है, जिसमें उनके प्रिय कलाकार राजकुमार राव ने लीड रोल निभाया है।

सिटीलाइट्स 2013 में रिलीज हुई फिल्म 'मेट्रो मनीला' पर आधारित है, जिसका भारतीयकरण हंसल मेहता ने बखूबी किया है। दरअसल गांव से शहरों की ओर काम की तलाश में जाने वाली बात आम है, इसलिए यह भारतीय फिल्म लगती है। गांव से लोग इस आशा के साथ महानगरों में जाते हैं कि कुछ न कुछ काम तो मिल ही जाएगा और उनकी दाल-रोटी निकल जाएगी। बड़े शहरों में काम तो मिलता है, लेकिन इसके साथ कई विषम परिस्थितियों और चुनौतियों से भी दो-दो हाथ करना होते हैं।

सिटीलाइट्स का मुख्य पात्र दीपक (राजकुमार राव) की राजस्थान में कपड़ों की दुकान है। परिवार में बीवी और चार-पांच साल की एक बेटी है। दीपक का व्यवसाय नहीं चलता और कर्ज ना चुका पाने के कारण उसे दुकान बंद करना पड़ती है। बिना ज्यादा सोच-विचार किए दीपक अपने परिवार के साथ मुंबई चला आता है।

सीधे-सादे दीपक को मकान के नाम पर ठग लिया जाता है और उसके सारे पैसे चले जाते हैं। किसी तरह वह मजदूरी करता है ताकि उसकी बेटी को भूखा न सोना पड़े। दीपक की पत्नी राखी (पत्रलेखा) पैसों के अभाव में बार गर्ल बन जाती है। यहां पर निर्देशक और लेखक थोड़ी जल्दबाजी कर गए। राखी का अचानक बार गर्ल बनने का फैसला अजीब लगता है, साथ ही यह ट्रेक फिल्म की कहानी में ठीक से जुड़ नहीं पाता। दीपक को पता ही नहीं चलता कि उसकी पत्नी बार गर्ल बन गई है, यह भी हैरत की बात लगती है।

एक दिन दीपक अपने दोस्तों के साथ बार जाता है और वहां उसे राखी नजर आती है। यह भी बहुत बड़ा संयोग है और इसके बजाय कुछ और सोचा जाना था जिससे राखी के इस काम के बारे में दीपक को पता चले। फिल्म में यहां तक दीपक और उसके परिवार को चुनौती के आगे संघर्ष करते दिखाया गया है, जिसमें कुछ बेहतरीन दृश्य भी देखने को मिलते हैं। दीपक को एक अंडर कंस्ट्रक्शन मकान में सौ रुपये रोज पर सिर छिपाने की जगह मिलती है। जगह देने वाला कहता है कि तुम तीन करोड़ रुपये के मकान में रह रहे हो यह घर पूरा होते ही तीन करोड़ रुपये का हो जाएगा।

यहां तक निर्देशक हंसल मेहता ने फिल्म को आर्ट फिल्म के सांचे में ढाल कर बनाया है। धीमी गति, कम रोशनी में शूटिंग और बैकग्राउंड में धीमी गति में बजते हुए गीत, लेकिन इसके बाद फिल्म की गति बढ़ती है एक नए कैरेक्टर के जरिये। नौकरी की तलाश में दीपक एक सिक्यूरिटी एजेंसी में जाता है और वहां उसकी मुलाकात विष्णु नामक एक शख्स से होती है जो उसे नौकरी दिलाने में मदद करता है। दीपक के सुपरवाइजर विष्णु का यह रोल मानव कौल ने निभाया है और उनके आते ही फिल्म में एक ऊर्जा का प्रवाह होने लगता है। दीपक को इस कंपनी में ड्राइवर की नौकरी मिलती है। वेतन है पन्द्रह हजार रुपये। उसे अमीर और अपराधी किस्म के लोगों के काले धन के बॉक्स को इधर से उधर करना होता है। ईमानदार दी‍पक खुश है, लेकिन जिंदगी ने उसके लिए कुछ और ही सोच रखा था।

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विष्णु से दीपक की अच्छी दोस्ती हो जाती है। दोनों के बीच कुछ बेहतरीन दृश्य देखने को मिलते हैं। मसलन नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए दीपक एक चुटकुला सुनाकर नौकरी हासिल करता है। सुपरवाइजर के घर जाकर दीपक का खाना खाने वाला दृश्य। सुपरवा भी अच्छा है। विष्णु नौकरी से खुश नहीं है। उसके दिमाग में कुछ और ही चल रहा है। वह दीपक से कहता है गरीबी एक बीमारी है जो जोक की तरह चिपक जाती है। वह चोरी करना चाहता है, लेकिन दीपक तैयार नहीं है। विष्णु उसे अपने जाल में फंसा लेता है और यही से फिल्म एक थ्रिलर बन जाती है। फिल्म का आखिरी पौन घंटा बांध कर रखता है। फिल्म का क्लाइमेक्स आपको चौंकाने के साथ-साथ इस बात पर सोचने के लिए मजबूर करता है किस तरह से कुछ लोगों के लिए जीवन-यापन करना कितना मुश्किल हो जाता है।

निर्देशक हंसल मेहता बिना संवाद के दृश्यों के सहारे अपनी बात कहने में यकीन रखते हैं। पहले हाफ में यदि वे ज्यादा गानों का इस्तेमाल नहीं करते तो फिल्म की गति बढ़ जाती। हंसल ने अपने कलाकारों से बेहतरीन काम भी लिया है और अपने लीड कलाकार की परेशानियों को छटपटाहट को दिखाने में कामयाब रहे हैं। दीपक के दर्द को दर्शक महसूस करते हैं।

फिल्म के सिनेमाटोग्राफर देव अग्रवाल ने बहुत ही कम लाइट्स का उपयोग किया है ताकि फिल्म वास्तविक लगे, लेकिन इस चक्कर में कई बार स्क्रीन पर अंधेरा नजर आता है।

राजकुमार राव ने दीपक के किरदार को बारीकी से पकड़ा है। पहली ही फ्रेम में उन्होंने दीपक को जो मैनेरिज्म और बॉडी लैंग्वेज दी है वह पूरी फिल्म में नजर आती है। पत्रलेखा ने उनका साथ अच्छी तरह निभाया है। मानव कौल फिल्म का सरप्राइज है। विष्णु के किरदार में वे अपना प्रभाव छोड़ते हैं। जीत गांगुली ने फिल्म के मूड के अनुरूप गीतों की धुनें बनाई हैं।

फिल्म का निर्माण मुकेश और महेश भट्ट ने किया है। अच्छी बात यह है कि सेक्स और अपराध की बी और सी ग्रेड फिल्म बनाने वाले भट्ट ब्रदर्स ने 'सिटी लाइट्स' जैसी फिल्म में भी अपना पैसा लगाया है।

'शाहिद' के बाद हंसल मेहता का फॉर्म जारी है और 'सिटीलाइट्स' को भी उन्होंने देखने लायक बनाया है।

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बैनर : विशेष फिल्म्स, फॉक्स स्टार स्टुडियो
निर्माता : मुकेश भट्ट
निर्देशक : हंसल मेहता
संगीत : जीत गांगुली
कलाकार : राजकुमार राव, पत्रलेखा, मानव कौल
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 6 मिनट 55 सेकंड
रेटिंग : 3.5/5