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Written By समय ताम्रकर

फगली : फिल्म समीक्षा

Fugly Movie Review | फगली : फिल्म समीक्षा
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ये फगली-फगली क्या है, ये फगली-फगली? इस बात का खुलासा फिल्मकार ने पहली फ्रेम में ही कर दिया, फगली यानी कि फाइटिंग द अगली'। अब इस तरह का नाम रखने की जरूरत क्यों पड़ी, ये तो वे ही जाने। अपने नाम की तरह फिल्म भी कुछ ऐसी ही है। तर्कहीन और अर्थहीन। पहली फ्रेम से बोरियत हावी होती है जो अंत तक दूर नहीं होती।

बिना कहानी के दर्शकों को बांध पाना आसान काम नहीं है। निर्देशक कबीर सदानंद और लेखक राहुल हांडा ने शुरुआती पौन घंटे बिना कहानी के फिल्म को ऐसे खींचा है कि फिल्म हांफने लगती है। कॉमेडी, दोस्तों की चुहलबाजी, दारूबाजी, बोल्ड संवाद, तीन गाने और लेह के सीन ‍भी फिल्म को संभाल नहीं पाए।

दोस्तों की मौज-मस्ती के बाद कहानी में ट्वीस्ट तब आता है जब जिमी शेरगिल की एंट्री होती है। देव (मोहित मारवाह), गौरव (विजेंदर सिंह), आदित्य (आरिफ लांबा) और देवी (किआरा अडवाणी) का ऐसे शख्स से विवाद होता है जो देवी को छेड़ देता है। सबक सिखाने के लिए उसे कार की डिक्की में बंद कर वे शहर से बाहर की ओर जाते हैं, वहां उनकी झड़प भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर चौटाला (जिमी शेरगिल) से हो जाती है। चौटाला डिक्की में बंद शख्स की हत्या कर देता है और इसका इलजाम चारों दोस्तों पर लगा देता है। मामले को दबाने के लिए वह 61 लाख रुपये मांगता है और उसके बाद उसकी ब्लेकमेकिंग बढ़ती जाती है।

जिमी के किरदार की एंट्री से लग रहा था कि फिल्म संभल जाएगी, लेकिन स्थिति और बिगड़ती चली जाती है। 'फुकरे' और 'शैतान' की राह पर चल रही यह फिल्म 'रंग दे बसंती' के ट्रैक पर चलने लगती है। ढेर सारी फालतू की बातें, बेहूदा संवाद, घटिया एक्टिंग और निर्देशन भला कैसे फिल्म को संभाल सकते थे। दर्शक कहीं कनेक्ट नहीं हो पाता और 'द एंड' टाइटल का इंतजार उसे बेसब्री से रहता है।

नई दिल्ली इन दिनों फिल्मकारों का पसंदीदा शहर हो गया है। दिल्ली के जरिये यूपी और हरियाणा का टच फिल्म को दिया जाता है। 'तेरे पिछवाड़े में डंडा घुसेड़ दूंगा' जैसे संवाद दिल्ली के नाम पर छूट लेकर दिखाए जाते हैं। कबीर ने भी दिल्ली का ऐसा ही माहौल दिखाया है, लेकिन माहौल बनाने से ही फिल्म अच्छी नहीं बन जाती।

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'फुकरे' की तर्ज पर चार लंगोटिया यार ले लिए, जिनमें से एक लड़की है। एक दोस्त हमेशा 'फट्टू' होता है और यहां भी है। लड़की के जरिये रोमांस और 'फट्टू' दोस्त के जरिये कॉमेडी दिखाने की चेष्टा की गई है जो कही से भी प्रभावित नहीं करती। बिजॉय नाम्बियार की 'शैतान' की तरह ये दोस्त मौज-मस्ती करते हैं और फिर फंस जाते हैं।

'रंग दे बसंती' की नकल के चक्कर में फिल्म की बुरी गत बन गई है। मीडिया, नेता, पुलिस को कोसा गया है, लेकिन इसके लिए जिस तरह की स्क्रिप्ट लिखी गई है वो बेहद घटिया है। 80-90 प्रतिशत जल चुका शख्स अस्पताल में मीडिया को लाइव इंटरव्यू देता है और उसे ऐसा करने की अनुमति डॉक्टर ही देता है। इस तरह के कई बचकाने प्रसंग फिल्म में है। एक पॉवरफुल नेता का बेटा होने के बाद भी गौरव एक अदने से पुलिस ऑफिसर से इतना क्यों डरता है ये भी समझ से परे है।

कई बार घटिया स्क्रिप्ट को अभिनेता अपने दम पर बचा लेते हैं, लेकिन यहां ये एक्टर्स, निर्देशक-लेखक के साथ मिले हुए हैं। मोहित मारवाह ने थोड़ी गंभीरता दिखाई है, लेकिन उनकी भी सीमाएं हैं। एक्टिंग रिंग में विजेंदर सिंह बेहद कच्चे खिलाड़ी नजर आए। अरफी लांबा ने जमकर बोर किया। किआरा आडवाणी को टिकना है तो खूब मेहनत करना होगी। जिमी शेरगिल का अभिनय अच्छा है, लेकिन वो भी कहां तक दम मारते।

फिल्म में चारों दोस्तों को पानी की तरह शराब गटकते और इतना सुट्टा मारते दिखाया है कि लगभग आधी फिल्म में स्क्रीन के कोने पर वैधानिक चेतावनी ही नजर आती है। सेंसर बोर्ड के डंडे के कारण फिल्मकार को बार-बार लिखना पड़ता है कि ये दोनों चीजें सेहत के लिए बुरी है। ऐसी चेतावनी फिल्म के लिए भी होना चाहिए कि फलां फिल्म आपके समय और धन के लिए खतरनाक है। चलिए, ये काम हम ही कर देते हैं।

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बैनर : ग्रेजिंग गोट प्रोडक्शन्स
निर्माता : अश्विनी यार्डी, अलका भाटिया
निर्देशक : कबीर सदानंद
संगीत : यो यो हनी सिंह, प्रशांत वैद्यहर, रफ्तार
कलाकार : जिमी शेरगिल, मोहित मारवाह, किआरा अडवाणी, विजेंदर सिंह, आरफी लांबा
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 15 मिनट 18 सेकंड्स
रेटिंग : 1/5