गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By समय ताम्रकर

एक चालीस की लास्ट लोकल : धीमा सफर

एक चालीस की लास्ट लोकल : धीमा सफर -
निर्माता : क्वार्टेट फिल्म्स
निर्देशक : संजय खंडूरी
कलाकार : अभय देओल, नेहा धूपिया, स्नेहल दुबे, दीपक शिर्क

जब कोई निर्देशक पहली फिल्म बनाता है जो अपने आपको अलग दिखाने के लिए वह कुछ प्रयोग करता है। ऐसे ही छोटे-मोटे प्रयोग निर्देशक संजय खंडूरी ने भी ‘एक चालीस की लास्ट लोकल’ में किए हैं। लेकिन वे नए नहीं लगते। फिल्म को शूट करने के बाद निर्देशक जब संपादक के साथ एडिटिंग टेबल पर बैठता हैं तो उसे अपने दृश्यों से प्यार हो जाता है और वह उन पर कैंची चलाने की हिम्मत नहीं दिखा पाता। ‘एक चालीस…..’ ढाई घंटे की है। यदि संजय खंडूरी उसे आधे घंटे छोटी कर देते तो फिल्म में कसावट आ सकती थी। फिल्म स्लो ट्रेक और फास्ट ट्रेक के बीच झूलती हुई नजर आती है।

नीलेश (अभय देओल) रात की एक चालीस वाली लोकल मिस कर देता है। इसके ढाई घंटे बाद दूसरी ट्रेन है। ऑटो रिक्शा की हड़ताल है। मधु (नेहा धूपिया) की भी ट्रेन मिस हो जाती है। दोनों की मुलाकात होती है। टाइम पास करने के लिए वे सड़क पर निकल पड़ते है। नीलेश के पास मात्र सत्तर रूपए है।

वे एक बार में जाते है। बार में मधु की इज्जत बचाने के चक्कर में नीलेश की एक गुंडे से झड़प हो जाती है। गुंडा फिसलकर मर जाता है और इल्जाम नीलेश के सिर पर आ जाता है। वह गुंडा अंडरवर्ल्ड के डॉन का भाई था। बस यहीं से नीलेश पुलिस और अंडरवर्ल्ड के चक्कर में आ जाता है।

मधु दरअसल एक वैश्या रहती है जो एक चालीस की लोकल मिस करने वालों को अपने जाल में फंसाती है। उसकी असलियत जानने के बावजूद भी नीलेश को उससे प्यार हो जाता है। पूरे ढाई घंटे तक नीलेश और मधु तरह-तरह की परिस्थितियों में फंसते है। ढाई घंटे बाद जब नीलेश इन सब झमेलों से मुक्त होता है तो उसके हाथ में ढाई करोड़ रुपए और मधु होती हैं।

फिल्म की कहानी सुनने में जरूर अच्छी लगती है लेकिन उसका फिल्मी रूपांतरण उतना दमदार नहीं है। निर्देशक के पास ज्यादा दिखाने के लिए कुछ नहीं था इसलिए संवादों के जरिए फिल्म को खींचा गया। टुकड़ों-टुकड़ों में फिल्म अच्छी-बुरी लगती है। नीलेश और मधु के मिलने वाले और सड़क पर टहलने वाले दृश्य कुछ ज्यादा ही लंबे हो गए हैं। दोनों के बार में जाने के बाद ही फिल्म गति पकड़ती है।

निर्देशक ने रात के माहौल को अच्छी तरह दर्शाया है। मुंबई की सूनसान सड़कें, बा‍रिश से भीगा शहर, सड़कों के किनारे बैठे मवाली और रात में चलने वाली गैर-कानूनी हरकतें फिल्म को प्रभावशाली बनाती है। संजय खंडूरी की यह पहली फिल्म है। उनसे और बेहतर की उम्मीद की जा सकती है। पूरी फिल्म पर पकड़ बनाने की कला उनको सीखना होगी।

एक सामान्य लड़के की भूमिका में अभय देओल फिट नजर आते हैं। नेहा धूपिया अभी तक अभिनय नहीं सीख पाई। पूरी कोशिश करने के बावजूद भी उसके चेहरे पर भाव नहीं आ पा रहे थे। उसकी जगह कोई सशक्त अभिनेत्री होती तो फिल्म का प्रभाव और बढ़ता। वीरेन्द्र सक्सेना, स्नेहल दुबे, अशोक समर्थ, दीपक शिरके के अलावा अन्य कलाकारों ने भी अच्छा काम किया है। गानों की फिल्म में सिचुएशन नहीं बनती थी, इसलिए निर्देशक ने उनका कम से कम उपयोग किया है। फिल्म के संवाद आगे की सीट पर बैठने वाले दर्शकों को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं।

‘एक चालीस की लास्ट लोकल’ का सफर थोड़ा छोटा होता तो ज्यादा मजा देता।