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Written By समय ताम्रकर

जज़्बा : फिल्म समीक्षा

जज़्बा : फिल्म समीक्षा - Jazbaa, Aishwrya Rai Bachchan, Sanjay Gupta, Samay Tamrakar
विदेशी फिल्मों से प्रेरित फिल्मकार संजय गुप्ता की ताजा फिल्म 'जज़्बा' दक्षिण कोरियाई फिल्म 'सेवेन डेज़' का हिंदी रिमेक है। जैसा कि आमतौर पर संजय गुप्ता की फिल्मों में होता है, कंटेंट पर तकनीक हावी हो जाती है और यही कहानी 'जज़्बा' में भी दोहराई गई है। 
 
कहानी है एक वकील अनुराधा वर्मा (ऐश्वर्या राय) की जो एक बच्ची की मां भी है। तेज-तर्रार वकील अनुराधा की बेटी का अपहरण हो जाता है। बदले में उससे पैसे नहीं बल्कि एक अपराधी (चंदन रॉय सान्याल) को बचाने के लिए कहा जाता है जिसने एक लड़की का बलात्कार कर हत्या कर दी है। अनुराधा के पास बहुत कम समय है। उसके हर कदम पर पर अपहरणकर्ता की नजर है।
 
यहां से फिल्म दो ट्रेक पर चलती है। एक तो अनुराधा को केस में ट्विस्ट देकर ऐसे अपराधी को बचाना है जिसे फांसी होने वाली है और दूसरी ओर अपनी बेटी को भी तलाश करना है। सस्पेंड इंस्पेक्टर और अनुराधा का दोस्त योहान (इरफान खान) अनुराधा की मदद करता है। दोनों मोर्चे पर अनुराधा-योहान काम करते हैं और उनकी लड़ाई समय के खिलाफ भी है जो तेजी से बीत रहा है। 
कुछ फिल्म अपनी धीमी गति के कारण उबाऊ हो जाती है तो कुछ की गति इतनी तेज होती है कि दर्शकों को तालमेल बैठाने में दिक्कत होती है। 'जज़्बा' में निर्देशक संजय गुप्ता ने कहानी को इतना तेज भगाया है कि फिल्म का मजा लेने का आनंद जाता रहा है। फिल्म कभी भी दर्शकों को अपने से जोड़ नहीं पाती और यह फिल्म का सबसे बड़ा दोष है। इसका सीधा-सीधा जिम्मेदार संजय गुप्ता का निर्देशन है। 
 
वे फिल्म में इमोशन पैदा करने में नाकाम रहे। ऐश्वर्या के दर्द को दर्शक कभी महसूस नहीं करते। न ही संजय अपने प्रस्तुतिकरण में ऐसा थ्रिल पैदा कर सके कि दर्शक बैचेन हो जाए। उनका प्रस्तुतिकरण बनावटी और सतही लगता है। शॉट फिल्माने की कला वे बखूबी जानते हैं, लेकिन केवल स्टाइलिश लुक के कारण ही फिल्म बेहतर नहीं बन जाती। 
 
फिल्म के क्लाइमैक्स में दर्शकों को चौंकाने की कोशिश है, लेकिन तब तक बहुत देर हो गई है। अनुराधा का अपने परिवार के खिलाफ जाकर बेटी पैदा करने का फैसला और फिल्म के अंत में बलात्कार के आंकड़े दिखा कर फिल्म को महिला समर्थक दिखाने की कोशिश थोपी हुई लगती है। 
 
 
ऐश्वर्या राय बच्चन ने पांच वर्ष बाद वापसी की है। वे सुंदर हैं, फिट हैं और अपने कैरेक्टर को जरूरी एटीट्यूड के साथ उन्होंने पेश किया है, लेकिन उनका अभिनय बनावटी लगा है। वे चीखती या रोती हैं तो बिलकुल भी प्रभावी नहीं लगती।
 
काला चश्मा चढ़ाए और स्टाइलिश ड्रेसेस पहने इरफान असहज लगे हैं। खासकर उस दृश्य में जब उन्हें पता चलता है कि ऐश्वर्या की बेटी का अपहरण हो गया है और वे अपना गुस्सा निर्जीव चीजों पर निकालते हैं। शबाना आजमी और अतुल कुलकर्णी प्रभावी रहे हैं जबकि जैकी श्रॉफ और चंदन रॉय सान्याल का अभिनय औसत दर्जे का है। 
 
समीर आर्या की फोटोग्राफी उल्लेखनीय है, हालांकि उन्होंने कई दृश्यों में कैमरे को ज्यादा ही घुमाया है। फिल्मों में जोरदार संवाद पसंद करने वालों को कमलेश पांडे के लिखे 'मोहब्बत है इसलिए जाने दिया, जिद होती तो बांहों में होती' जैसे कुछ संवाद पसंद आ सकते हैं। बैक ग्राउंड म्युजिक इतना लाउड है कि कानों में दर्द हो सकता है। 
 
गुप्ता अपनी फिल्मों को एक खास कलर में फिल्माते हैं। 'मुसाफिर' में ब्राउन रंग का जोर था तो जिंदा में ग्रे का। यहां हरे रंग का जमकर प्रयोग हुआ है, लेकिन फिल्म रंगहीन रही है। 
 
बैनर : ज़ी स्टुडियो, व्हाइट फीदर फिल्म्स, वाइकिंग मीडिया एंड एंटरटेनमेंट प्रा.लि.
निर्माता : संजय गुप्ता, आकाश चावला, नितिन केनी, सचिन जोशी, रैना सचिन जोशी, अनुराधा गुप्ता, ऐश्वर्या राय बच्चन 
निर्देशक : संजय गुप्ता
कलाकार : ऐश्वर्या राय बच्चन, इरफान खान, शबाना आजमी, चंदन रॉय सान्याल, जैकी श्रॉफ
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए 
रेटिंग : 2/5