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Written By दीपक असीम

चार दिन की चांदनी : फिल्म समीक्षा

40 मिनट की भी नहीं है चाँदनी

Chaar din ki Chandani Movie Review | चार दिन की चांदनी : फिल्म समीक्षा
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बैनर : टॉप एंगल प्रॉडक्शन्स
निर्माता-निर्देशक : समीर कर्णिक
संगीत : संदेश शांडिल्य, आरडीबी, शिव हरि, अभिषेक रे
कलाकार : तुषार कपूर, कुलराज रंधावा, अनुपम खेर, ओम पुरी, चंद्रचूड़ सिंह, जॉनी लीवर

"यमला, पगला, दीवाना" के हिट हो जाने पर निर्देशक समीर कर्णिक ने यही अंदाजा लगाया कि लाउडनेस ही फिल्म हिट कराने का फॉर्मूला है। वे भूल गए कि "यमला पगला दीवाना" को स्टार पावर मिला था। धर्मेन्द्र, सनी और बॉबी को लोग एकसाथ स्क्रीन पर देखना चाहते थे। मगर "चार दिन की चाँदनी" में ऐसा कुछ नहीं है कि लोग उसे देखें।

जितने लाउड समीर "यमला, पगला..." में थे, उससे तीन गुना लाउड वे "चार दिन की चाँदनी" में हो गए हैं, लिहाजा फिल्म ऐसी बुरी बन पड़ी है कि देखने से उबकाइयाँ आती हैं। कहानी वही शादी वाली है।

"यमला, पगला, दीवाना" में मध्यांतर के बाद एक गुंडे टाइप सिख परिवार का चित्रण है। इस परिवार के मुखिया का रोल "अनुपम खेर" ने किया था। यहाँ भी उसी माहौल को बनाने की कोशिश की गई है। वही अनुपम खेर हैं, उनके वही साथी सहयोगी हैं। फर्क यह है कि इस बार अनुपम खेर का चरित्र भ्रष्ट है। उनके किरदार को कॉमिक करने के चक्कर में उनका कैरेक्टर तहस-नहस कर दिया गया।

जबरन हास्य पैदा करने की कोशिश की गई है जिससे फिल्म का बंटाढार हो गया है। तुषार कपूर से एक्टिंग ठीक से नहीं होती, उनसे ओवर एक्टिंग कराई गई है। फिल्म में इतनी सारी खामियाँ हैं कि गिनना और गिनाना मुश्किल है। जो गाने ओरिजनल हैं, वे बहुत बकवास हैं। फिल्म "चाँदनी" का एक गीत जस का तस उठाकर उस पर जितेन्द्र वाले तमाम मशहूर डांस तुषार कपूर से करा दिए गए हैं। समझ नहीं आता कि ये सब क्या है?

ओम पुरी और फरीदा जलाल वगैरह से फिल्म को संभलवाने की कोशिश की गई है, मगर फिल्म पारे की तरह ऐसी फिसली है कि संभाले नहीं संभलती। यह फिल्म मानसिक रूप से कमजोर लोगों के लिए है जिन्हें हर बात चीख-चीखकर समझानी पड़ती है और दस बार समझानी पड़ती है। सामान्य समझ का आदमी ऐसी बातों से खीज उठेगा। कुलराज रंधावा कभी-कभी सुंदर भी लगती हैं, मगर उनके अलावा सब चौपट है।

दरअसल, समीर कर्णिक बहुत ही औसत डायरेक्टर हैं। उनकी पहली फिल्म थी- "क्यों हो गया ना"। अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय के बावजूद फिल्म सुपर फ्लॉप रही थी। मगर इन्हें फिर एक फिल्म मिल गई, जिसका नाम था "नन्हे जैसलमैर"। इस फिल्म का हाल तो पहली से भी बुरा रहा। मगर मुंबई में आँख के अंधों और गाँठ के पूरों की कमी नहीं है।

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तीसरी फिल्म "हीरोज" बनी और ठीक-ठाक ही रही। फिर एक और फिल्म बनाई "वादा रहा"। ये भी फ्लॉप। इसके बाद धर्मेंदर एंड फैमेली के साथ बनाई "यमला, पगला" जो अन्य कारणों से हिट हो गई। उनका ट्रेक रेकॉर्ड देखते हुए उनकी फिल्म में न जाना ही समझदारी थी। मगर जाना पड़ता है, सो गए और "चार दिन की चाँदनी" को झेलने की कोशिश भी की। मगर अफसोस कि फिल्म ऐसी भी नहीं कि अंत तक देखी जा सके। समीर कर्णिक से सावधान रहने की जरूरत है। आइंदा भी जब ये फिल्म बनाएँ तो संभलकर देखिएगा।