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Written By ND

अंगूर : 'बहादुर... गैंऽऽऽग...!'

अंगूर : ''बहादुर... गैंऽऽऽग...!'' -
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डबल रोल वाली फिल्में तो खूब बनी हैं लेकिन 'अंगूर' की बात निराली है। दो-दो कलाकारों का डबल रोल और दोनों का यादगार अभिनय। कसावट भरी पटकथा में कहीं कोई भटकाव नहीं। कॉमेडी के नाम पर न कोई फूहड़ता और न ही केले के छिलके पर किसी को गिराकर दर्शकों को हँसाने की कोशिश।

टनाक्रम इतना सीधा-सहज कि लगे कि हमारे आसपास ही, हम जैसे लोगों के साथ ही सब कुछ घट रहा है। विलियम शेक्सपीयर के नाटक 'द कॉमेडी ऑफ एरर्स' पर गुलजार ने जो फिल्म रची, वह कॉमेडी सिनेमा का दस्तावेज बन गई।

कौन भूल सकता है अशोक की दोहरी भूमिका में संजीव कुमार और बहादुर के डबल रोल में देवेन वर्मा को! बचपन में बिछड़े दोनों जोड़ी जुड़वाँ भाइयों का चेहरा-मोहरा, कद-काठी, नाम और यहाँ तक कि पूरी फिल्म में लिबास भी एक जैसा...। केवल अपने चेहरे के भावों और बॉडी लैंग्वेज से संजीव और देवेन ने अशोक-1 व अशोक-2 तथा बहादुर-1 व बहादुर-2 के बीच भेद कराया। जिस बारीकी से गुलजार ने सभी किरदारों को गढ़ा है और कलाकारों ने इन्हें निभाया है, वह देखते ही बनता है।

एक अशोक पत्नी की हार पाने की जिद से हैरान-परेशान... और दूसरा अशोक जासूसी उपन्यासों में डूबा हुआ, इतना कि नए शहर में हर चीज को शक की नजर से देखता है और हर 'संदिग्ध' उसे किसी 'गैंग' का सदस्य लगता है। फिर चाहे वह रेलवे स्टेशन के बाहर मिला टैक्सी ड्राइवर हो या पुलिस इंस्पेक्टर या फिर जौहरी। एक बहादुर अपने मालिक के नौकर से ज्यादा मित्र व संरक्षक, तो दूसरा बहादुर अफीमची।

सदा चकचक करती और बाल्टी भर आँसू बहाती सुधा (मौसमी चटर्जी) हो या नाक पर सरक आया चश्मा चढ़ाती उसकी बहन तनु (दीप्ति नवल) या फिर अपने बहादुर को अपने अँगूठे के नीचे रखने वाली प्रेमा (अरुणा ईरानी), फिल्म का हर पात्र अपने आप में संपूर्ण था।

किसी क्लासिक की एक पहचान यह होती है कि उसमें कोई एक यादगार दृश्य चिह्नित करना लगभग नामुमकिन हो जाता है। यही बात 'अंगूर' पर लागू होती है। अशोक द्वारा बहादुर को होटल के कमरे का दरवाजा न खोलने की सख्त हिदायत और अपने आने पर 'प्रीतम आन मिलो' का कूट संकेत देना...। आगे चलकर अजनबी मकान में कैद बहादुर द्वारा भाँग के नशे में इसी पुराने गाने की पूरी की पूरी पैरोडी गा जाना...।

अशोक द्वारा बार-बार एक विशिष्ट अंदाज में 'गैंऽऽऽग...' कहकर बहादुर को आगाह करना...। 'वो' अशोक-बहादुर समझकर 'ये' अशोक-बहादुर को जबरदस्ती 'घर' लाया जाना, फिर पकौड़ों में भाँग मिलाकर घर की तीनों महिलाओं से पीछा छुड़ाने की बहादुर की नाकाम चाल...। फिर अंत में दोनों जोड़ियों का आमने-सामने आना और उन्हें देखकर तनु का बेहोश होकर गिर पड़ना... और होश में आने पर मात्र इतना कहना कि वो जीजाजी नहीं थे...! गुलजार की इस 'अंगूर' में खट्टा ढूँढना मुश्किल है, सब मीठा ही मीठा है...।

- विकास राजावत