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Written By समय ताम्रकर

हॉरर फिल्मों का समय बदल रहा है : श्याम रामसे

हॉरर फिल्मों का समय बदल रहा है : श्याम रामसे -
फिल्मकार श्याम रामसे का मानना है कि शहरों में आधारित कहानियों वाली हॉरर फिल्मों की लहर बदलते समय की निशानी है लेकिन सफलता का सूत्र कहानी कहने के ढंग में ही छिपा हुआ है। दशकों से भारतीय हॉरर फिल्मों की पहचान पुरानी हवेलियां, चुड़ैलें या किसी सुनसान जगह में फंस जाना रहा है। पिछले एक दशक से ऐसा हुआ है कि हॉरर के सूत्र शहर में आए हैं। रामगोपाल वर्मा की 'भूत' एक ऐसी फिल्म थी जिसने ट्रेंड को बदला, जहां कहानी को मुंबई के एक पेंटहाउस में ले जाया गया।

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क्या आपको लगता है कि भारत में हॉरर फिल्मों का वक्त बदल रहा है?
हां, तभी हमें ऐसी हॉरर फिल्मों की लहर देखने का मिल रही है, जहां कहानी शहरों में आधारित होती है या फिर उसमें शहरी टच होता है। उदाहरण के लिए 'रागिनी एमएमएस 2', 'डर एट द मॉल' या फिर 'नेबर्स' जिसका निर्देशन मैंने किया है।

हवेलियों की हॉरर फिल्में दर्शकों ने बहुत देखी हैं। आप उन्हें अब किस तरह आकर्षित करेंगे?
आज के दर्शकों में युवाओं की संख्या बहुत अधिक है। वे हर तरह की फिल्में देखते हैं जिनमें पश्चिम की हॉरर फिल्में भी होती हैं, जो ज्यादातर शहरों में आधारित होती हैं। अगर कहानी शहर में आधारित होती है तो लोग उससे आसानी से कनेक्ट कर लेते हैं। सच्चाई यह है कि इस तरह की परिचित जगहें डर को और बढ़ाती हैं। दर्शक अपने सामने घट रही कहानी को खुद से जोड़कर आसानी से उसे महसूस कर पाते हैं। 'रागिनी एमएमएस' ने एक कहानी बताई। यह 'फॉर्मेट द ब्लेयर विच प्रोजेक्ट' और 'पैरानॉर्मल एक्टीविटी सीरीज' से मशहूर हुआ। इस तरह की कहानियां न सिर्फ भारतीय दर्शकों के लिए तोहफा होती हैं बल्कि हॉरर के अनुभव में प्रामाणिकता जोड़ती हैं।

तो क्या इसका मतलब यह है कि शहरों में आधारित हॉरर फिल्में हवेलियों वाली हॉरर फिल्मों से ज्यादा बेहतर होती हैं?
ऐसा तो नहीं है, बैकड्रॉप्स का महत्व कुछ निश्चित जगहों पर होता है। यह पटकथा पर निर्भर होता है इसीलिए विक्रम भट्‌ट की 1920 की जरूरत हवेली है तो भूत की जरूरत पेंटहाउस। हॉरर फिल्मों में राज करने के बाद और 32 फिल्मों के बाद हमारी अगली फिल्म 'नेबर्स' हमारी पिछली सभी फिल्मों से अलग है। यह मुंबई शहर की कहानी और हॉरर के तत्व के रूप में इसमें वैम्पायर जुड़े हैं। फिल्म की हीरोइन हॉरर की शौकीन है और उसे पता चलता है कि उसके पड़ोसी खून चूसने वाले हैं और लोगों को मार रहे हैं। बैकड्रॉप चाहे जो भी हो, कहानी को कहने का ढंग ही सबसे महत्वपूर्ण है। इसके अलावा आजकल की तकनीक बहुत शानदार हो गई (स्पेशल इफेक्ट्‌स वगैरह) और इसके साथ सराउंडिंग साउंड के अनुभव के साथ फिल्म देखने की सुविधा सुलभ है। आज मुझे पहले की अपनी फिल्मों की तरह ढेर सारा मैकअप या नकली चीजों की जरूरत नहीं है, यह सब स्पेशल इफेक्ट्‌स के जरिए आसानी से किया जा सकता है।

क्या आप पश्चिम की फिल्मों से प्रभावित होते हैं?
हां, होता हूं लेकिन पश्चिम से प्रभावित होने या हॉरर के साथ प्रयोग करते हुए हुए हमें यह जरूर याद रखना चाहिए कि फिल्म की आत्मा भारतीय हो, क्योंकि आखिरकार इसी एक तत्व के साथ हमारा दर्शक जुड़ेगा। भारत की पहली जॉम्बी फिल्म 'गो गोआ गॉन' अच्छी फिल्म थी लेकिन ज्यादा इसीलिए नहीं चली, क्योंकि हमारे दर्शकों के लिए थोड़ी ज्यादा ही पश्चिमी थी। इसके साथ यह भी याद रखना चाहिए कि कोई पश्चिमी कहानी 3 घंटे तक नहीं खींची जा सकती, क्योंकि फिर यह डॉक्यूमेंट्री बन जाती है।