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Written By WD

आनंद बक्षी : तुम्हारे हर शाहकार को सलाम

- दिनेश 'दर्द'

आनंद बक्षी : तुम्हारे हर शाहकार को सलाम -
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आज क़लम पर ज़िम्मेदारी है उस साहिबे क़लम (आनंद बक्षी) का अफ़्साना लिखने की, ख़ुद जिसने न जाने कितने अफ़्सानों को नग़मों के बदन में पिरोया। न जाने कितने जज्बात को लफ़्ज़ों की शक्ल दी। न सिर्फ़ शक्ल दी, बल्कि इस ख़ूबसूरती से निखारा भी, कि तक़रीबन हर नग़मा अपनेआप में एक शाहकार बन पड़ा। समझ नहीं आता कि सादा-सी शक्ल और ठीक-ठीक क़द-काठी वाले इस शख्स को क्या कहें- नग्मानिगार, मुसव्विर, या जादूगर, या फिर कोई दीवाना। कुछ तो था इस शख्स में, जिसने स्कूल में किताबी पढ़ाई तो महज़ 7वीं तक की, लेकिन ज़िंदगी के इम्तेहान भरी जवानी तक देता रहा।

आसमान खरोंचा या समंदर खंगाला गीतों के लिए : पता नहीं नग्मों के लिए दिलो दिमाग़ के रास्ते कहाँ-कहाँ गया होगा ये शख्स। कभी लगता है कि गीतों के लिए इसने आसमान खरोंचा होगा। कभी दिल कहता है कि, नग्मों के लालो-जवाहिर की जुस्तजू में इसने एक शनावर (गोताखोर) की तरह समंदर खंगाल डाला होगा। और कभी लगता है कि दूर किसी वीरान-सुनसान में जाकर इसने दोजहाँ के मालिक से ही नग़्मों की ख़ैरात मांगी होगी। क्योंकि मुख्तलिफ़ अंदाज़ के मानीख़ेज़ गीतों की जो जाएदाद उसके नाम है, वो सब कमाना किसी एक सादा आदमी के बस की बात तो नहीं लगती। पता नहीं, कौन-सी ग़ैबी ताकत थी उसके साथ।

...और शुरू हुआ सांसों का हिसाब-किताब : जी हाँ, हमारा इशारा उसी शख्स की तरफ है, जिसने रावलपिंडी में चित्तियां हत्तियां के मोहल्ला क़ुतुबुद्दीन स्थित अपने पूर्वजों के मकान में आँखें खोलीं। और इसी के साथ 21 जुलाई 1930 से शुरू हो गया दुनिया-ए-फ़ानी में उसकी सांसों का हिसाब-किताब। माँ सुमित्रा बाली और बैंक मैनेजर पिता मोहनलाल वैद बक्षी ने अपने बेटे को पहचान के लिए नाम दिया, आनंद बक्षी। जी हाँ, वही आनंद बक्षी, जिनके गीतों से हिन्दुस्तानी फिल्मी दुनिया मालामाल है।

नसीब का लिक्खा सामने आया : बहरहाल, हर ख़ास या आम बच्चे की तरह ये भी मुस्कुराहट के मानी समझने से पहले मुस्कुराने लगे थे, शरारतों का मतलब समझने से पहले शरारतें भी करने लगे थे। मगर हर किसी के नसीब में कहाँ देर तक मुस्कुराना या मस्तियां करना लिक्खा होता है। लिहाज़ा, इनके नसीब में भी जो लिक्खा था, सामने आया। और महज़ 10 की उम्र में माँ चल बसीं।

स्कूली किताबें बेचकर देखी फ़िल्में : गाने का शौक़ तो बचपन से ही था। कभी-कभार नाटक और रामलीला में भी हिस्सा ले लिया करते थे। और फ़िल्में देखने का शौक़ तो ऐसा, कि अक्सर स्कूल की किताबें बेचकर, टिकटें ख़रीदीं और फ़िल्में देखीं। गाने का ये शौक़ रफ़्ता-रफ़्ता कब लिखने में बदल गया, इसका एहसास ही नहीं हुआ। बचपन से ही लगता था कि फिल्मी गीत ही लिक्खूंगा। और बचपन में ही ये अहद (प्रतिज्ञा) भी कर लिया था कि कभी न कभी, किसी न किसी दिन बंबई ज़रूर जाऊँगा और गीतकार बनूँगा।

रॉयल नेवी से किया बर्खास्त : इस बीच पढ़ाई छोड़कर कराची में 12 जुलाई 1944 को 'बॉए 1' के रूप में इस उम्मीद से रॉयल इंडियन नेवी जॉइन की, कि किसी रोज़ उनका जहाज़ (पहले एच.एम.आई.एस. दिलावर, बाद में एच.एम.आई.एस. बहादुर) उनकी सपनों की नगरी, बंबई के किसी डॉक पर जा लगेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और मायूसी हाथ लगी। ये दु:ख तो था ही, मगर इस बीच उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ बंबई हार्बर में नौसेना विद्रोह में हिस्सा लेने के लिए चलते गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में 5 अप्रैल 1946 को रॉयल नेवी ने उन्हें बर्खास्त कर दिया।

माल-मस्बाब छोड़ा, तस्वीरें नहीं छोड़ सके : बचपन की सारी मासूमियतें-शरारतें लेकर लड़कपन जा चुका था। बिना माँ के तमाम तल्ख़ तजुर्बे देकर किशोरावस्था भी गुज़र जाने के क़रीब ही थी और ऐसे में आज़ाद होने के साथ ही हिंदुस्तान दो हिस्सों में बंट भी गया। आख़िर, 2 अक्टूबर 1947 को बसे-बसाए बक्षी परिवार को अब पाकिस्तान का हिस्सा बन चुके रावलपिंडी से हिज्रत (प्रवास) करनी पड़ी। जहां इस वक़्त पाकिस्तान छोड़कर हिन्दुस्तान आने वाले लोग अपना माल-अस्बाब साथ लाने के इंतेज़ाम कर रहे थे, ऐसे में आनंद बक्षी ने अपने साथ लाने के लिए सिर्फ़ तस्वीरें चुनीं। पिताजी ने यह देखा तो डांटते हुए कहा कि बसे-बसाए घर के ज़रूरी सामान छोड़कर तुम सिर्फ़ तस्वीरें क्यों बटोर रहे हो, उन्होंने उत्तर दिया- पैसे तो मैं अपनी ज़िंदगी में कमा ही लूँगा, लेकिन ये तस्वीरें अनमोल हैं, छूट गईं तो फिर कभी नहीं मिलेंगी।

किराया देने के पैसे तक नहीं थे : विभाजन के बाद वे भारतीय सेना में भर्ती होकर जबलपुर स्थित सिग्नल कोर में पदस्थ हुए। 1950 में फौज छोड़कर पहली बार बंबई पहुंचे। ख़ूब काम ढूँढा, बहुत कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली। डेढ़-दो महीने में ही हार गए और ये क़सम खाकर कि इस शहर में अब कभी दोबारा नहीं आऊंगा, लौट गए। इस बार भारतीय सेना की ईएमई (क्रॉप्स ऑफ इलेक्ट्रिकल & मैकेनिकल इंजीनियर्स) इन्फैंट्री में भर्ती कर लिए गए। साथ ही यह कोशिश भी की कि ऐसी कोई वजह पैदा कर लूं कि बंबई जाने का ख़याल ही दिल से निकल जाए। यही सोचकर लखनऊ में रहने वाली कमला मोहन से शादी भी कर ली, बेटा राकेश और बेटी सुमन भी पैदा हो गए। मगर इन सब पर गीतकार बनने की कुलबुलाहट अब भी भारी पड़ रही थी। आख़िर, 27 अगस्त 1956 को ईएमई छोड़कर अगस्त महीने में वापस बंबई आ धमका। इस बार तय कर लिया था कि चाहे गाना पड़े, तो गा लेंगे, गाने को न मिला, तो गीत लिख लेंगे, कुछ भी करेंगें लेकिन रहेंगे बंबई में ही। तीन-चार महीने तक ख़ूब हाथ-पैर मारे लेकिन सब फ़ुज़ूल, हिम्मत फिर जवाब देने लगी थी। दादर के जिस गेस्ट हाउस में रहते थे, उसका किराया तक देना मुश्किल हो रहा था।

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अजनबी दोस्त दुआ बनकर आया : इन दिनों एक अजनबी आदमी आनंद बक्षी का दोस्त बन गया, जो रेलवे में टिकट चेकर था। परेशान होकर बक्षी ने दोस्त से कहा कि, भाई ! मुझे दिल्ली का टिकट दिला दो, मैं वापस जाना चाहता हूँ। मगर वो बंदा पता नहीं क्यूं, आनंद बक्षी से बहुत मुतअस्सिर था। कहने लगा, देखना एक दिन तुम ज़रूर गीतकार बनोगे। उसने बक्षी साहब को दिल्ली रवाना करने की बजाए उनका सामान उठाया और अपने घर बोरीवली ले आया। इसके बाद उस शख्स ने 6 साल तक आनंद बक्षी को अपने साथ रखा। खाने का बंदोबस्त भी वही करता, और तो और जगह-जगह भटकने के लिए रोज़ कुछ रुपए भी दे दिया करता था। एक जगह बक्षी साहब बताते हैं कि अगर वो शख्स मदद न करता, तो इस बार भी मुझे कभी वापस न आने की क़सम खाकर लौटना पड़ता।

भगवान दादा ने दिया मौका: इन 6 सालों में स्टूडियो-स्टूडियो ख़ूब भटके, जो मिला उससे काम मांगा लेकिन कुछ नहीं हुआ। इसी सिलसिले में एक दिन भगवान दादा से भी मुलाक़ात की। पता चला, वो 'भला आदमी' बनाने वाले थे और अपने गीतकार के इंतेज़ार में दफ़्तर में बैठे थे। इत्तिफ़ाक़न, आनंद बक्षी अच्छे मौके पर पहुंच गए और बताया कि गीतकार हूँ, उन्होंने कहा कि तो फिर लिखो। 3-4 रोज़ में ही 4 गीत लेकर पहुंचे। सभी फ़िल्म में ले लिए गए, जिनका संगीत निसार बज्मी ने तैयार किया था लेकिन चूँकि वो छोटी स्टंट फ़िल्म थी, ख़ास नहीं चली। लिहाज़ा, काम ढूँढने के लिए सुबह-शाम की भागदौड़ फिर शुरू।

जब पैदल पहुंचे रोशन के दरवाज़े पर : उनके संषर्घ के दौर का एक ये क़िस्सा भी क़ाबिले ग़ौर है। जब वे काम के लिए स्टूडियो-स्टूडियो निर्माता, निर्देशकों, संगीत निर्देशकों के चक्कर लगाते थे। एक दिन संगीतकार रोशन ने उनकी गुज़ारिश पर गौर किया और अगले दिन सुबह 10 उन्हें अपने घर आने को कहा। बद्क़िस्मती से उसी रात मुंबई में ज़ोरदार बारिश हुई, जिसके चलते अगले दिन ट्रेन-बसें आदि सब बंद रहे। इस पर भी बक्षी साहब ने हिम्मत नहीं हारी। सुबह वक्त से काफी पहले उठकर रोशन साहब के घर की दूरी का अंदाज़ा लगाया। अपनी डायरी प्लास्टिक पैकेट में रखकर, छाता लिया और निकल पड़े बोरीवली से सांताक्रूज़ के लिए। रास्तें में आंधी-तूफान का कहर ऐसा बरपा कि छाता टूट गया। डायरी गीली हो गई। इसके बावजूद ठीक 10 बजे रोशन साहब के घर पहुंचकर उन्होंने रोशन साहब को चौंका दिया था। हैरत में डूबे रोशन ने कहा ऐसे मौसम में इतनी दूर पैदल आना इतना ज़रूरी भी नहीं था, लेकिन उन्होंने कहा कि आपके लिए शायद नहीं हो, लेकिन मेरे लिए यहां पहुंचना बहुत ज़रूरी था।

फिर मिली...जब जब फूल खिले : कुछ वक्त बाद दोस्त और दूर के रिश्तेदार सुनील दत्त मिले, उनकी सिफारिश पर शोमैन राजकपूर के पास पहुंचा। राज साहब के सेक्रेटरी हीरेन खेड़ा ने बात की, पूछा लिखकर लाए हो। 3-4 मुखड़े, जो लिखकर ले गया था, सुना दिए। राज साहब बहुत व्यस्त थे, काफी देर बाद मिले। वहां जाता, इससे पहले हीरेन साहब ने कहा कि राज साहब शायद तुमसे गाने न लिखवाएं लेकिन अगर मैं प्रोड्यूसर बना, तो वादा करता हूँ- तुमसे गाने ज़रूर लिखवाऊंगा। नसीब से 3-4 महीने बाद ही ये मौका आया और फ़िल्म बनी 'मेहंदी लगी मेरे हाथ', जिसने मुझे बतौर गीतकार कुछ पहचान दी। फिर 1965 में आई 'जब जब फूल खिले' मेरी ज़िंदगी का टर्निंग पॉइंट साबित हुई। यह बड़ी हिट रही। इसके गीत ख़ूब मशहूर हुए और फिर मुझे कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा।

साहिर साहब ने ख़ूब मदद की : आनंद बक्षी ने एक जगह कहा था कि जब मैं इंडस्ट्री में आया, तब साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, राजा मेहंदी अली खां, शैलेंद्र, राजेंद्र कृष्ण जैसे बड़े नाम थे, जिनका फ़िल्मों के साथ अदब में भी ख़ासा दख़ल था। यह वजह रही कि इतने बरसों तक मुझे बंबई शहर में जूतियां घिसनी पड़ीं। मगर इनमें कुछ शायर ऐसे भी थे, जिन्होंने मेरी ख़ूब मदद की। शैलेंद्र मेरी बहुत तारीफ़ किया करते थे। साहिर ने भी बहुत हौंसला दिया। इतना ही नहीं साहिर साहब ने मुझे कई लोगों से मिलवाया और मुझसे गीत लिखवाने की सिफ़ारिश भी की। उस समय 5-6 महीने में एक-आध गाना मिल जाता या साल भर में 4-5 गीत लिखने को मिल जाते थे, जिससे 400-500 रुपए हाथ आ जाते और इसी में हम खुश भी हो लिया करते थे।

डीएन मधोक सबसे ज़ियादा पसंद : इस तरह कुछ दोस्तों की मेहरबानी और कुछ ऊपर वाले का क़रम रहा, कि बक्षी साहब की गाड़ी चल पड़ी। उन्हें फ़िल्मी शायरी में सबसे अधिक डीएन मधोक ने प्रभावित किया, जिन्हें महाकवि भी कहा जाता था। शैलेंद्र से भी वे ख़ासे प्रभावित रहे। इनके अलावा साहिर लुधियानवी, जिनकी शायरी में अदब भी था और फ़िल्मी रंग भी, बहुत मुतअस्सिर किया।

लोक रंग में डूबे गीत लिखना पसंद: एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि अदबी शायरी का भी उन्हें कुछ हद तक शौक़ था। कुछ ग़ज़लें-नज्में लिखी भी और मशहूर शायर बिस्मिल सईदी से इस्लाह भी लेता रहा लेकिन शौक तो मुझे गीत ही लिखने का रहा। गीत भी ऐसे, जिनमें लोक रंग का पुट हो, जिनसे देश की मिट्टी की महक आए।

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हिट गीत किसे मानते हैं, इस सवाल पर उन्होंने बताया था कि बात 'मिलन' के वक्त की है। फ्रंटियर मेल से मेरा दिल्ली जाना हो रहा था। अचानक आधी रात को ट्रेन एक छोटे-से स्टेशन पर खड़ी हो गई, जहां उसका स्टॉपेज भी नहीं था। उस वक्त ऐसी निर्जन जगह पर एक फ़क़ीर अपनी मस्ती में गा रहा था 'सावन का महीना, पवन करे सोर..'। बस्स, वही पल था, जब मुझे एहसास हुआ कि हिट गाना क्या होता है। और उस फ़क़ीर के मुंह से अपना लिखा गाना सुनकर मैंने महसूस किया कि सचमुच मेरा गाना हिट हो गया।

ख़ूबसूरत लड़की ने लिखवा लिया गीत : आनंद बक्षी के बेटे राकेश ने किसी से बात में 'आराधना' के गीत 'रूप तेरा मस्ताना, प्यार मेरा दीवाना...' के वुजूद में आने की कहानी साझा की थी। उन्होंने बताया कि 'पापा अपने दोस्त के साथ कार से जा रहे थे, तभी सड़क पर एक ख़ूबसूरत लड़की जाती दिखी और उन्होंने पापा से कहा कि देखो इस लड़की ने कितना अच्छा रूप पाया है। उसी वक्त पापा ने दोस्त से कार रोकने को कहा और कार रुकी, पापा ने 555 नं. सिगरेट का पैकेट निकाला और उसी पर मुखड़ा लिख लिया। जब फिल्म रिलीज़ हुई, तब उन्होंने दोस्त को वही वाकया याद दिलाया और बताया कि उस ख़ूबसूरत लड़की को देखकर मैंने 'रूप तेरा मस्ताना, प्यार मेरा दीवाना...' गीत लिखा था।' इसी तरह 'मेरा गांव मेरा देश' के गीत 'मार दिया जाए के छोड़ दिया जाए...' का जन्म सिकंदर द्वारा क़ैदी बनाए गए पोरस से पूछे गए सवाल (तुम्हारे साथ कैसा सुलूक़ किया जाए) से हुआ था। ऐसे ही कई गीतों के अस्तित्व में आने के क़िस्से उनके साथ जुड़े थे।

इससे ज़ियादा शब्द ही नहीं मेरे पास : आनंद बक्षी का मानना था कि सुनने में सरल लगने वाले गीत लिखना दरअस्ल, इतना आसान नहीं होता। एक बार किसी ने उनसे पूछा भी था कि आप इतनी गहरी बातें, इतने आसान लफ़्ज़ों में कैसे कह जाते हो। बक्षी जी ने जवाब दिया, 'शायद इसलिए कि मैं सिर्फ़ 7वीं पास हूँ, मेरे पास शब्द ही नहीं हैं इससे ज़ियादा।

एक जान हो गए थे हम : संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ आनंद बक्षी ने सबसे ज़ियादा काम किया। इसी संगीतकार जोड़ी का मानना था कि हम आनंद बक्षी के साथ एक जान हो गए थे। कभी-कभी हम यहां कोई धुन तैयार करते थे और उधर इस धुन से बेख़बर बक्षी साहब कोई गीत रच रहे होते थे। मगर जब हम मिलते, तो लगता जैसे हमारी धुन और उनके बोल एक-दूसरे के लिए ही वजूद में आए हैं। ऐसा तालमेल था हमारा।

गाने का शौक़ भी पूरा किया : फ़िल्मों में गाने का शौक़ भी कुछ हद तक उन्होंने पूरा किया। पहला गीत उन्होंने 'मोम की गुड़िया' के लिए 'बागों में बहार आई, होठों पे पुकार आई' गया। फिर शोले के लिए कव्वाली 'चाँद सा कोई चेहरा ना पहलू में हो' गाई। हालांकि फ़िल्म की लंबाई अधिक होने के कारण उसे जगह नहीं दी गई। इनके अलावा ''महाचोर', 'चरस', 'बालिका बधु' आदि फ़िल्मों में भी उन्होंने गीत गाए।

हिट देने की मजबूरी में द्विअर्थी गीत : इस दौर में हिट देने की मजबूरी के चलते द्विअर्थी गीतों को लेकर भी वे चिंतित थे। हालांकि उन्होंने यह भी स्वीकारा कि फ़िल्म की परिस्थितियों के मद्देनज़र मैंने भी 'चोली के पीछे क्या है...' सहित कुछ गीत ऐसे लिक्खे हैं लेकिन अब तो लगता है कि ऐसे गीतों की पैटर्न ही चल पड़ा है। और ऐसा होना अच्छा संकेत नहीं है।

फ़िल्म फेयर पुरस्कार : आनंद बक्षी साहब को फिल्म फेयर अवार्ड के लिए सबसे अधिक (क़रीब 40) बार नामित किया गया लेकिन यह पुरस्कार मिला उन्हें केवल 4 बार। 'आदमी मुसाफ़िर है' [अपनापन (1977)], 'तेरे मेरे बीच कैसा है यह बन्धन अंजाना' [एक दूजे के लिए(1981)], 'तुझे देखा तो यह जाना सनम' [दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995)] और 'इश्क़ बिना क्या जीना यारों' [ताल(1999)] के लिए वे फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार भी सम्मानित किए गए।

आदमी मुसाफ़िर है, आता है जाता है... : आनंद बक्षी ने अपने गीतों से क़रीब 45 बरस तक भारतीय सिनेमा को मालामाल किया। उन्होंने 636 फ़िल्मों में 3500 से ज़ियादा गीत लिक्खे। हर पीढ़ी के सुनने वालों को उन्होंने अपने गीतों से तृप्त किया। भला आदमी, बॉबी, क़र्ज़, शोले, कटी पतंग, एक दूजे के लिए, मेरी जंग, खिलौना, दो रास्ते, अपनापन, पिया का घर से लेकर ताल और यादें तक उन्होंने तक़रीबन हर मूड के गाने लिख डाले। और सबसे ज़ियादा हिट भी रहे। उनके गीतों में मुहब्बत की चाशनी है, तो जीवन का दर्शन भी, दर्द है, तो खुशियों का बसेरा भी। लेकिन फेफड़े और दिल के बीमारी के चलते ज़िंदगी से उनका बसेरा 30 मार्च 2002 को उठ गया। शब्दों से गीतों का मोहजाल बना देने वाला यह चितेरा अब हूबहू तो नहीं, लेकिन अपने नग्मों के ज़रिए हमारे और आपके दिलों में हमेशा महफ़ूज़ रहेगा। और रब ने चाहा, तो फिर किसी न किसी शक्ल में वो हमारे दरमियान होगा। क्योंकि इसी रब ने उनकी कलम से कभी लिखवाया था- 'आदमी मुसाफ़िर है, आता है जाता है...'।