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Last Updated : शनिवार, 25 अक्टूबर 2014 (11:57 IST)

जज़्बात का भी एक कोना था साहिर के दिल में

जज़्बात का भी एक कोना था साहिर के दिल में - Sahir Ludhianvi
गीतकार साहिर लुधियानवी की पुण्यतिथि पर विशेष-
(25 अक्टूबर 1980)

 
- दिनेश 'दर्द'

पत्थरों से पानी का सोता बहते देख अक्सर हैरत होती है। पहाड़ों से बहता कोई चश्मा (झरना) भी शायद इसीलिए जादू-सा मालूम पड़ता है। ऐसे करिश्मों को देखते हुए साफ़ ज़ाहिर होता है कि पत्थर सिर्फ़ सख़्त ही नहीं होते, उनमें नमी की सिफ़त (गुण) भी होती है। कभी-कभी हालात की सख़्तियों के चलते कुछ इंसान भी पत्थर की मानिंद सख़्त हो जाते हैं। मगर, शायद यही सख़्ती जब हद से गुज़रती है, तो उस इंसान के दिल में जज़्बात के सोते भी फूट पड़ते हैं। और ये मोजिज़ा (चमत्कार) वही कर सकता है, जो पत्थरों में पानी भरता है, और पानी को रवानी देता है। इसी जादूगर ने एक बार लुधियाना में पैदा हुए अब्दुल हयी को रफ़्ता-रफ़्ता साहिर (जादूगर) कर दिया था। वही साहिर, जो दुनिया के तज्रुबात से पत्थर होते चले गए। मगर इसी पत्थर होते साहिर के ज़ेहनो दिल में कहीं जज़्बात का एक नम कोना भी मौजूद था। लिहाज़ा, साहिर ने हालात की रगड़ से तीखे हुए अपने क़लम को जज़्बात की रौशनाई में डुबोया और एक से एक शाहकार रचते चले गए। दुनिया ने भी सर झुकाकर साहिर के हर शाहकार को न सिर्फ़ दिल में जगह दी, बल्कि दिलो दिमाग़ की रग-रग में रवाँ कर लिया।

पिता की उंगली के बजाए माँ का आँचल थामा : साहिर, यानी साहिर लुधियानवी ने अपनी ज़िंदगी ख़ुद के ही लिक्खे गीत की तरह जी। उन्होंने 1961 में फिल्म 'हम दोनों' के लिए एक गीत लिक्खा था, 'मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया'। 8 मार्च 1921 को एक जागीरदार घराने में पैदा हुए साहिर का बचपन तो ख़ैर बड़े नाज़ों में बीता, लेकिन इस नाज़ की उम्र ज़ियादा नहीं थी। लिहाज़ा, पिता का माँ से अलगाव होने के चलते ज़िंदगी के इम्तेहान भी शुरू हो गए। साहिर ने पिता की उंगली के बजाए माँ के आँचल को तवज्जोह दी और थाम लिया। थामा ही नहीं, बल्कि माँ की आख़िरी साँस तक उनके आँचल के साए में रहे। माँ की ज़िंदगी से मुतअस्सिर होकर ही कभी उन्होंने लिक्खा था कि-

'औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया,
जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया...' (साधना)

जब आँसुओं में डुबो लिया क़लम को : अपनी माँ के संघर्षों से ख़यालों की रसद लेने वाले साहिर ज़िंदगी में कई बार टूटे। मगर माँ ने ही हर बार इस टूटन को अपनी मुहब्बत से भर दिया। लेकिन उस वक़्त साहिर बेतरह टूट गए, जब उनकी माँ की साँसों का तसल्सुल टूट गया। ऐसे में कोई और तो क्या उनके आँसू पोंछता। उन्होंने ख़ुद ही इसकी तदबीर (उपाय) की और अपने आँसुओं में क़लम डुबो लिया। कभी अश्कों से तराने लिक्खे, तो कभी ख़ूने दिल से। शायद ऐसे ही किसी हालात में उन्होंने लिक्खा होगा कि-

'तंग आ चुके कश्मकशे जिंदगी से हम,
ठुकरा न दे जहाँ को कहीं बेरुख़ी से हम...' (प्यासा)

मुहब्बत से रीती ही रही साहिर की ज़िंदगी : उम्र के सफ़र में जवानी के रास्ते साहिर को मुहब्बतों के इलाक़ों तक भी ले गए। इस दौरान कॉलेज की मुहब्बत के अलावा पंजाबी साहित्यकार अमृता प्रीतम और गायिका सुधा मल्होत्रा के अलावा भी कई नाम साहिर के साथ जुड़े, लेकिन अफ़सोस कोई नाम ज़िंदगी भर के लिए साहिर का हमसफ़र नहीं हो सका। कभी 'कोई' साहिर की नहीं हो सकी, तो कभी साहिर 'किसी' के नहीं हो सके। इस तरह मुहब्बत के मुआमले में साहिर की ज़िंदगी का पन्ना कोरा ही रहा। कभी वफ़ा के कुछ क़तरे नसीब हुए भी, तो जल्द ही हालात की धूप में सूख भी गए। साहिर को शोहरतें बेशक ख़ूब मिलीं, मगर किसी की माँग में सिंदूर बनकर सँवरना उन्हें ज़िंदगी भर नसीब नहीं हुआ। अपनी मुहब्बत की डोली का रुख़ किसी और के आँगन की सिम्त रवाँ देख ही लिखा होगा शायद उन्होंने-

'बर्बाद मुहब्बत की दुआ साथ लिए जा,
टूटा हुआ इक़रारे वफ़ा साथ लिए जा...' (लैला मजनू)

ख़ुद्दारी में भी कोई सानी नहीं था साहिर का : इश्क़ में नाकाम रहे साहिर ने तमाम दुश्वारियों के बावजूद कभी भी जीने की उम्मीद नहीं छोड़ी। उन्होंने न केवल ख़ुद ज़िंदगी को अपने तरीक़े से जिया, बल्कि मज़्लूम और बेबस लोगों को भी जीने का सलीक़ा सिखाया। साहिर ही थे, जिनमें सच को सच कहने का जज़्बा था। ख़ुद्दारी में भी कोई साहिर का सानी नहीं मिलता। उनकी ख़ुद्दारी के यूँ तो कई क़िस्से मशहूर हैं। मसलन, वे स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर से इस ज़िद के साथ एक रुपया ज़ियादा लेते थे, कि गायक या संगीतकार के मुक़ाबले गीतकार ज़ियादा महत्वपूर्ण होता है। वजह बताई कि, गीतकार गीत ही नहीं लिक्खेगा, तो संगीतकार किस रचना को संगीत देगा और गायक/गायिका गाएगा क्या। हिम्मत हार चुके लोगों को जीने का सलीक़ा सिखाते हुए साहिर ही लिख सकते थे कि-

'जिंदगी हंसने गाने के लिए है पल, दो पल
इसे खोना नहीं, खो के रोना नहीं...' (ज़मीर)

'नौजवान' से मिली पहचान : इसके अलावा गीतकारों को रॉयल्टी दिलाने की लड़ाई का बिगुल भी सबसे पहले साहिर ने ही फूँका और आख़िर रॉयल्टी हासिल करने वाले पहले गीतकार बनकर ही दम लिया। 1951 की फ़िल्म 'नौजवान' के गीत 'ठंडी हवाएं लहरा के आए...' के साथ ही फ़िल्मी दुनिया में साहिर को कुछ पहचान मिली। इस गीत को संगीत में पिरोया था, संगीतकार एसडी बर्मन ने। मगर जिस फ़िल्म ने उन्हें इस मैदान में काबिज़ कर दिया, वो थी गुरुदत्त की फ़िल्म 'बाज़ी'। इसके गीत 'तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना दे...', देख के अकेली मोहे बरखा सताए...' आदि गीत ख़ूब मशहूर हुए। इसके बाद साहिर ने बर्मन दा के साथ काफ़ी काम किया। बहरहाल, हक़ के लिए अपने तेवर बयाँ करता साहिर का एक गीत-

'पोंछ कर अश्क़ अपनी आँखों से, मुस्कुराओ तो कोई बात बने,
सर झुकाने से कुछ नहीं होगा, सर उठाओ तो कोई बात बने... (नया रास्ता)

चलन के खिलाफ़ अपनी ओर मोड़ दिया रुख़ : ये भी साहिर की ख़ुद्दारी का ही एक नमूना है कि साहिर पहले गीत लिखते, उसके बाद संगीतकार गीत के मुताबिक़ धुन तैयार करते थे। ऐसा बहुत कम ही हुआ कि साहिर ने संगीत के साँचे में लफ़्ज़ बैठाए हों, जबकि उस वक़्त यही चलन था। इतना ही नहीं, आकाशवाणी से प्रसारित गीतों के साथ केवल उसके गायक, गायिका और संगीतकार का ही नाम लिया जाता था। यह बात भी उन्हें नागवार गुज़रती थी। लिहाज़ा, उनके सख़्त ऐतराज के बाद आकाशवाणी ने अपने चलन से हटकर गीतकार का नाम भी लेना शुरू कर दिया। एक गीत और-

'माँग के साथ तुम्हारा,
मैंने माँग लिया संसार...' (नया दौर)

साहिर को समझने के लिए अमृता को पढ़ना ज़रूरी : बहरहाल, साहिर ने मुहब्बत की चाश्नी में डूबे कई मस्ती भरे गीत लिक्खे, तो दर्द में डूबी आहों के लिए भी क़लम उठाई। उन्होंने इंतिज़ार, इक़रार, इज़हार, वफ़ाई, बेवफ़ाई जैसे मुहब्बत के दीगर पहलुओं को अपने गीतों-ग़ज़लों-नज़्मों में ढाला। हालाँकि, कभी-कभी तो लगता है कि साहिर को समझने के लिए ख़ुद साहिर का लिक्खा नहीं, बल्कि अमृता का शाहकार (रसीदी टिकट) पढ़ना बेहद ज़रूरी है। जिसमें अमृता ने अपनी मुहब्बत का इज़हार कई-कई ज़ावियों (कोणों) से किया है। लेकिन यहाँ साहिर की एक तख़लीक़ (सृजन) का ज़िक्र लाज़िम है-

'कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है,
के जैसे तुझ को बनाया गया है मेरे लिए
तू अब से पहले सितारों में बस रही थी कहीं,
तुझे ज़मीं पे बुलाया गया है मेरे लिए...' (कभी-कभी)

1971 में मिला पद्मश्री सम्मान : साहिर की ख़ास किताबों में 'तल्ख़ियाँ' और 'परछाइयाँ' का ज़िक्र आता है, जो क्रमश: नज़्मों और ग़ज़लों का संग्रह है। पुरस्कारों से भी उनकी झोली हमेशा लबरेज़ रही। दो बार श्रेष्ठ गीतकार की श्रेणी में फ़िल्म फेयर अवार्ड मिले। एक बार 1964 में 'ताजमहल' के गीत 'जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा' और दूसरी बार 1977 में 'कभी-कभी' के शीर्षक गीत के लिए। वहीं 1971 में 'पद्मश्री' से भी सम्मानित किए गए।

ज़िंदगी भर सताया भी और मौत की वजह भी बना दिल : दरअस्ल, दुनिया से तज्रुबात ही ऐसे मिले कि साहिर पत्थर होते चले गए। लेकिन इसी पत्थर ने लफ़्ज़ों को जज़्बात में भिगोकर उनमें ऐसा असर पैदा किया कि यही दुनिया उनकी दीवानी भी हो गई। हालाँकि, यूँ तो दुनिया ताअबद साहिर के नग़्मों की दीवानी रहेगी। लेकिन अब उसे साहिर के और नग़्मे नहीं मिल सकेंगे। मौत ने साहिर के दिल की रगों (दिल का दौरा पड़ने से मौत हुई थी) पर शिकंजा जो कस दिया था। इसके चलते 25 अक्टूबर 1980 को उम्र के 59वें पड़ाव पर मुंबई में अदब की दुनिया के इस साहिर (जादूगर) की साँसें थम गईं थीं। इसी के साथ जीते जी जो साहिर दिल के हाथों बेक़रार रहे, मरते वक़्त भी वही दिल उनकी मौत का सबब बन गया। जितनी भी उम्र उन्हें नसीब हुई, उसमें साहिर तो अपने फ़राइज़ पूरे कर के चल दिए। अब ये दुनिया के नसीब पर है कि साहिर ने रगेजाँ निचोड़-निचोड़ कर नग़्मों की जो मताअ (पूंजी) इकट्ठा की, दुनिया वाले उस मताअ से ख़ुद के ज़मीर को कितना रौशन कर पाते हैं। एक शेर, जो साहिर को ख़ूब बयाँ करता है-

दुनिया ने तज्रुबातो-हवादिस की शक्ल में,
जो कुछ मुझे दिया है, वो लौटा रहा हूँ मैं।
अगले पन्ने पर, शानदार गीत...

यूँ तो साहिर का हर गीत लाजवाब है। यहाँ उनके हर गीत का ज़िक्र कर पाना तो मुमकिन नहीं। लिहाज़ा, 'नया रास्ता' फ़िल्म के एक मुकम्मल लेकिन मानीख़ेज़ गीत के बाद कुछ और गीतों के शुरुआती लफ़्ज़ों पर नज़र डालते चलें-

पोंछ कर अश्क़ अपनी आँखों से,
मुस्कुराओ तो कोई बात बने
सर झुकाने से कुछ नहीं होगा,
सर उठाओ तो कोई बात बने

ज़िंदगी भीख में नहीं मिलती,
ज़िंदगी बढ़ के छीनी जाती है
अपना हक़ संगदिल ज़माने से,
छीन पाओ तो कोई बात बने

रंग और नस्ल, ज़ात और मज़हब,
जो भी हो आदमी से कमतर है
इस हक़ीक़त को तुम भी मेरी तरह,
मान जाओ तो कोई बात बने

नफ़रतों के जहान में हमको,
प्यार की बस्तियाँ बसानी है
दूर रहना कोई कमाल नहीं,
पास आओ तो कोई बात बने।

कुछ और गीत-

- चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों (गुमराह)
- हम इंतज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक (बहु बेगम)
- मैं पल दो पल का शायर हूँ (कभी-कभी)
- जो बात तुझमें है, तेरी तस्वीर में नहीं (ताजमहल)
- ग़ैरों पे करम, अपनों पे सितम, ऐ जाने वफ़ा (आँखें)
- मिलती है ज़िंदगी में मुहब्बत कभी-कभी (आँखें)
- तुम अगर मुझको न चाहो, तो कोई बात नहीं (दिल ही तो है)
- किसी पत्थर की मूरत से मोहब्बत का इरादा है (हमराज़)
- रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ (ग़ज़ल)
- ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात (बरसात की रात)