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यहां लोगों के दिमाग पर 'पानी का भूत' सवार है

यहां लोगों के दिमाग पर 'पानी का भूत' सवार है - water crises
-  सौतिक बिस्वास, लातूर से
 
लातूर। तापमान 42 डिग्री सेल्सियस, बावजूद इसके 10 साल की अंजलि पटोले को चिलचिलाती धूप में वॉटर टैंकर के पास लंबी कतार में खड़ा होना पड़ता है। अंजलि, उसकी मां और चाचा झुलसाती धूप में रोज कम से कम तीन घंटे तक पानी के इंतजार में खड़े होते हैं, तब जाकर वो 150 लीटर पीने का पानी जमा कर पाते हैं।
पानी जमा करने के लिए खाना बनाने के बर्तन से लेकर प्लास्टिक तक के कनस्तर होते हैं। अंजलि के पिता काम की तलाश में पुणे चले गए और वहां सब्जी बेचने का काम करते हैं।
 
लातूर के घरों में नल तीन महीने पहले ही सूख चुके हैं। हर आठ दिन में नगर निगम का पानी का टैंकर आता है। हर परिवार को 200 लीटर पीने का पानी दिया जाता है।
 
200 लीटर पानी अंजलि के परिवार के लिए पर्याप्त नहीं है। इसलिए दुर्बल और शक्तिहीन अंजलि चिलचिलाती गर्मी में पानी की तलाश में भटकती रहती है। मैंने उसके चाचा से पूछा कि क्या उन्हें डर नहीं लगता कि अंजलि को लू लग जाएगी?
 
इसी हफ्ते की शुरुआत में बीड़ जिले में चार घंटे तक धूप में पानी का इंतज़ार करने के बाद 12 साल की एक लड़की को लू लगी और उसकी मौत हो गई। जब मैं अंजलि से मिला, तब वो दो घंटे से धूप में घूम रही थी। वह मेरे सवाल पर कहती है, 'मजबूरी है, मजबूरी है। हमारे पास कोई विकल्प नहीं है।'
 
तीन साल से बहुत कम बारिश की वजह से भारत के 256 सूखा प्रभावित जिलों के 33 करोड़ लोगों में से एक है लातूर। लातूर की करीब पांच लाख आबादी की जिंदगी पानी के इर्दगिर्द ही घूम रही है। पानी उनके जेहन में हर वक्त घूमता रहता है। मैं टैंकर के आने का इंतजार करूं या लाइन में लगने चला जाऊं? क्या मुझे जाकर गली के कोने में लगे हैंडपंप को देखना चाहिए?
 
क्या इस चिपचिपाती गर्मी में मुझे एक बार और नहाना चाहिए? क्या मुझे दोस्तों को खाने पर बुलाना चाहिए? पानी के लिए पैसे बचाने हैं तो क्या मैं सर्जरी टाल दूं?
 
21वीं सदी में पानी के लिए जिस जंग की भविष्यवाणी की गई है, वह यहां अभी से कई लोगों के दिमाग में चल रही है। शहर में अफवाहों और शंकाओं का जोर है।
 
क्या एक पार्षद अपने क्षेत्र में ज्यादा टैंकर भेज रहा है? क्या मेरा पड़ोसी टैंकर चालक को रिश्वत देकर धोखे से ज़्यादा पानी ले रहा है? पानी के लिए इस तीखे संघर्ष में दो लोग हार्टअटैक से मर गए। इनमें एक तो पानी की लाइनों का प्रबंधन करने वाला कार्यकर्ता था। दूसरी मौत घंटों तक पानी की लाइन में खड़ी रहने को मजबूर एक औरत की थी।
 
लाइनों में खड़े लोग आपस में लड़ पड़ते हैं। दंगों को रोकने के लिए उन जगहों पर भीड़ के जमा होने पर प्रतिबंध लगाया जाता है जहां पानी बांटा जाता है। इलाके में पानी के स्टोरेज टैंकों के बाहर प्रदर्शन आम बात है और लोगों को पानी लेकर भागने से रोकने के लिए प्रशासन ने खास तरह के इंतजाम किए हैं।
 
शहर के एक प्रमुख पुलिस स्टेशन में पानी को लेकर झगड़े की करीब 20 शिकायतें दर्ज हुई हैं। थाने के इंचार्ज सुधाकर बोकार कहते हैं, 'लोग पानी को लेकर बहुत परेशान हैं।'
 
अमीर लोग पीने के लिए बोतलबंद पानी खरीद रहे हैं और सफाई और धुलाई के लिए निजी टैंकर मंगा रहे हैं। गरीब लोग अपना ज़्यादातर समय निगम के पानी के टैंकरों के सामने लाइनों में बिता रहे हैं।
 
पार्षद शैलेष स्वामी कहते हैं, 'पिछले छह से आठ महीने से यही अब सामान्य बात हो गई है। पिछले चार महीने पहले जब नल सूख गए तब से स्थिति और खराब हो गई है।'
 
रात में शहर के बीच में स्थित स्टोरेज टैंक के बाहर लोगों की लंबी लाइनें लग जाती हैं। सड़कें सुनसान रहती हैं, लेकिन गीली पटरी पर कोलाहल होता है।
 
कंपकंपाती स्ट्रीट लाइटों के नीचे पानी की तलाश करने वाले लोग लगातार इकट्ठा होते रहते हैं। बाल्टियां, खाना बनाने के बर्तन, ड्रम, घड़े, बोतलों की भी कतार लग जाती है। आधी रात को हम एक फैक्ट्री में काम करने वाले रबिंद्र मिरकाले और उनके भतीजे से मिले जो 12 बर्तन लिए एक मोपेड पर वहां पहुंचे थे।
 
मोपेड पर इतने बर्तन लेकर चलना एक छोटा-मोटा चमत्कार ही लगता है। मिरकाले को लगता है कि वे अपने हिस्से का 200 लीटर पानी क़रीब छह घंटे बाद सुबह होने के समय तक ले पाएंगे। वे कहते हैं कि मैं दिनभर काम करता हूं और रात को पानी इकट्ठा करता हूं। वे कुढ़ते हैं, ये भी कोई जिंदगी है।
 
इसी बीच शेख मुइनुद्दीन वहां पहुंचे, 20 बर्तन लादकर एक साइकल को घसीटते हुए...वे इस गर्मी में पसीना बहाते हुए एक किलोमीटर दूर से आए थे। पानी का इंतजार करते हुए वे बताते हैं कि उनके घर में करीब एक दर्जन लोग हैं। हफ्ते में एक बार पानी के टैंकर से काम नहीं चल पाता है।
 
जैसे-जैसे लोग लाइन में बढ़ते जाते हैं, एक खास किस्म का तनाव बढ़ता जाता है। अपने बच्चे को पास ही की एक टंकी पर सुलाकर एक महिला बेचैनी से अपनी बारी का इंतजार कर रही है।
 
स्टोरेज टैंक के पास ही कूड़ा जल रहा है जिससे हवा और गर्म हो रही है। तभी अचानक ट्रांसफॉर्मर धमाके के साथ जल जाता है और पानी के लिए लगी लाइन अंधेरे में डूब जाती है। अधिकारियों का दावा है कि रोज 125 वॉटर टैंकर पीने का पानी पहुंचाने के लिए चक्कर लगाते हैं।
 
लातूर के वरिष्ठतम अधिकारी पांडुरंग पोले ने मुझे बताया कि फरवरी में जब पानी की कमी चरम पर थी, तब शहर को अपनी रोज की जरूरत 2.5 करोड़ लीटर का एक चौथाई हिस्सा ही मिल पा रहा था। लगातार दो साल बारिश की कमी से लातूर को पानी की आपूर्ति करने वाली मंजारा नदी में पानी बहुत कम हो गया है और अब इसमें कीचड़ और पत्थर ही बचे हैं।
 
पोले बताते हैं कि अब शहर में पानी की कमी को दूर करने के लिए हरसंभव स्रोत से 2 करोड़ लीटर पानी का रोज़ इंतजाम किया जा रहा है। अब शहर के लिए पानी को दो बांधों, एक बैराज, 150 कुंओं और सबसे ज़्यादा चर्चित पानी की ट्रेन से जुटाया जा रहा है। वे कहते हैं, 'यह बहुत ही मुश्किल परिस्थिति है। अब हमारे पास जुलाई तक का पानी है और उम्मीद कर रहे हैं कि इस साल बारिश होगी।'
 
शहर के बाहर हालात और खराब हैं। टैंकर 800 में से 150 गांवों में पीने का पानी पहुंचा रहे हैं। भूजल का स्तर 500 फीट तक नीचे गिर गया है। निराश ग्रामीण पानी के लिए और गहरे कुंए खोद रहे हैं।
 
ज़्यादा पानी वाली फसलों- जैसे कि गन्ना और कपास उगाने का मतलब ही था कि कम पानी वाले क्षेत्रों में भूजल तेजी से कम होगा। कर्ज के बोझ से 30 से भी ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं, लेकिन उम्मीद की किरणें बाकी हैं। मोटे तौर पर लोग असाधारण रूप से सहनशील और लचीला रुख़ रखते हैं...भले ही नेता पानी की ट्रेन का श्रेय लेने के लिए टैंकरों पर अपने पोस्टर लगाते दिखें।
 
इस शोरगुल से परे आर्ट ऑफ लिविंग संस्था की प्रेरणा से स्थानीय लोगों ने 3 करोड़ रुपए इकट्ठे किए हैं ताकि जिले को जीवन देने वाली मंजारा नदी की 18 किलोमीटर तक खुदाई की जा सके। इस काम को पूरा करने के लिए 20 ड्रेजर दिन-रात काम कर रहे हैं। इस ग्रुप में काम कर रहे महादेव गोमारे कहते हैं, 'प्रकृति ने हमें पानी दिया है। हमें इसके स्रोत को बचाए रखना चाहिए।'
 
विकास मानिकराव सुले ने अपने दस एकड़ के खेतों में मकई की खेती की सिंचाई के लिए एक कुआं खरीदा था। उन्होंने हर शाम दो घंटे गांववालों को पानी देने का फैसला किया है।
 
31 साल के मानिकराव वकालत भी करते हैं। वे कहते हैं, 'फसलें इंतजार कर सकती हैं। प्रभावित परिवारों को पानी उपलब्ध करवाना ज्यादा जरूरी है। संकटकाल में आपको फ़ायदे के बारे में नहीं सोचना चाहिए।'
 
यदि लातूर को इस संकट का स्थायी समाधान करना है तो उसे अपने पानी का संरक्षण बेहतर करना होगा और खेती के तरीकों में बदलाव लाना होगा। लेकिन पहले अच्छी बारिश होनी चाहिए।
 
आकाश की ओर देखते हुए शैलेष स्वामी कहते हैं कि मुझे हमेशा प्यास लगती रहती है। क्या जब सालों तक बारिश नहीं होती तो ऐसा ही होता है?
 
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