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Last Modified: बुधवार, 24 मई 2017 (12:03 IST)

मोदी सरकार के तीन साल की बैलेंस शीट

मोदी सरकार के तीन साल की बैलेंस शीट - Three years of Modi government
- राजेश प्रियदर्शी (डिजिटल एडिटर)
सबसे पहले सबसे ज़रूरी बात--बैलेंस शीट में लोकप्रियता और जनभावना का कोई कॉलम नहीं होता। मोदी की लोकप्रियता में कोई शक नहीं है, न ही इसमें कि शहरी मध्यवर्गीय बहुसंख्यकों का विश्वास मोदी में बना हुआ है, लेकिन ये ब्लैक एंड व्हाइट भी नहीं है, इन तीन सालों में मोदी के नेतृत्व में दिल्ली, पंजाब और बिहार में हार मिली है तो यूपी में भारी जीत।
 
ये मोदी सरकार है, ये बीजेपी या एनडीए की सरकार नहीं है, इसलिए सरकार के कामकाज का आकलन करते हुए उसमें से मोदी फ़ैक्टर को अलग कर पाना मुश्किल है, लेकिन 'परफॉर्मेंस' अलग चीज़ है और 'परसेप्शन' अलग। 'परसेप्शन मैनेजमेंट' के मामले में मोदी सरकार ने नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं, और उसके भी ऊपर हैं धार्मिक-सांस्कृतिक भावनाएँ जिन्हें हमेशा उबाल पर रखकर 'परफॉर्मेंस मैनेजमेंट' पर ठोस, तार्किक बहस की गुंजाइश तकरीबन ख़त्म कर दी गई है।
ज़रूरत
सरकार के कामकाज पर सवाल उठाना इन दिनों मोदी की व्यक्तिगत आलोचना है, सवाल करने वाले की नीयत फ़ौरन शक के दायरे में आ जाती है, इसमें सबसे बड़ी सुविधा ये है कि सवाल का जवाब देने की ज़रूरत नहीं रह जाती। अब शायद समय आ गया है कि इस सरकार के तीन साल के प्रदर्शन को प्रचार के घटाटोप, नारों की गूंज और राजनैतिक हाहाकार से परे जाकर देखा जाए, बैलेंस शीट की तरह।
 
तथ्यों और तर्कों के साथ, भावनाओं और व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से परे। पहले साल लोगों ने कहा अभी कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी, दूसरे साल लोगों ने कहा कि कोई जादू की छड़ी नहीं है, अब तीसरा साल भी पूरा हो चुका है, अब नहीं तो कब?
 
टूटे और अधूरे वादों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है, ख़ास तौर पर रोज़गार और विकास के मामले में, सरकारी आँकड़े ही चुगली कर रहे हैं कि रोज़गार के नए अवसर और बैंकों से मिलने वाला कर्ज़, दोनों इतने नीचे पहले कभी नहीं गए लेकिन जन-धन योजना के तहत 25 करोड़ खाते खुलना और उज्ज्वला स्कीम के तहत ग़रीब घरों तक गैस पहुँचना निस्संदेह कामयाबी है।
 
पड़ताल
बीबीसी हिंदी मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर सिर्फ़ उन मुद्दों की पड़ताल कर रही है जिन्हें बैलेंस शीट पर परखा जा सकता हो, यानी पक्के आंकड़े और उनके सही संदर्भ, इसके अलावा कुछ नहीं।
 
लव जिहाद, एंटी रोमियो स्क्वॉड, गोरक्षा, घर वापसी, राम मंदिर और हिंदू राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे इन तीन सालों में सरकार के लिए रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था से कम अहम नहीं रहे हैं। 'सर्जिकल स्ट्राइक' और 'नोटबंदी' जैसे दो अति नाटकीय फ़ैसले भी हुए जिनके विस्तृत और विश्वसनीय परिणाम अब तक जनता या मीडिया के सामने नहीं आए हैं, इन दोनों का भावनात्मक लाभ सरकार को ज़रूर मिला है।
 
"मोदी जी ने कुछ तो किया होगा तभी इतने लोकप्रिय हैं", इस तरह सोचने के बदले ठोस तर्कों के आधार पर मोदी सरकार की कितनी कितनी तारीफ़ की जा सकती है? यही असली सवाल है।
 
ऐसी कोई सरकार नहीं हो सकती जो कुछ भी काम न करे, या सब कुछ ग़लत करे, और ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ जय-जयकार के लायक हो, ज़ाहिर है, सच कहीं बीच में छिपा है जिसे हम ढूँढने की कोशिश करेंगे। बीबीसी हिंदी ने तय किया है कि भावनात्मक मुद्दों को परे हटाकर, मोदी की लोकप्रियता और उनकी शख़्सियत से अलग जाकर, रोज़गार, 'मेक इन इंडिया' और स्वच्छ भारत जैसे वादों का आकलन किया जाए।
 
बीबीसी के संवाददाता इस काम में निष्पक्ष जानकारों की मदद ले रहे हैं, नए-पुराने आँकड़े खंगाल रहे हैं और आप तक सही तस्वीर पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि बैलेंस शीट बताए कि बड़े वादों पर सरकार ने क्या हासिल किया।