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Last Updated : सोमवार, 18 जून 2018 (12:12 IST)

कामयाबी के लिए मल्टी टास्किंग कितनी कारगर

कामयाबी के लिए मल्टी टास्किंग कितनी कारगर | multi tasking
- डेविड रॉबसन (बीबीसी कैपिटल)
 
एकाग्रता को कामयाबी का मूल मंत्र कहा जाता है। टेलीफ़ोन ईजाद करने वाले अलेक्ज़ेंडर ग्राहम बेल एक वक़्त में एक ही काम करने के पक्षधर थे। उनके मुताबिक़ अगर कोई काम करते वक़्त ज़हन भटकता है, तो इसका सीधे-सीधे मतलब है कि आपका दिमाग़ उस काम के बारे में नहीं सोच रहा है।
 
 
ये भटकाव नाकामी की ओर ले जाएगा। इस मुद्दे पर बहुत तरह की रिसर्च हुई और आज भी जारी है। शुरुआती रिसर्च के नतीजे ग्राहम बेल के ख़याल के मुताबिक़ आए। लेकिन हाल की रिसर्च कुछ और बयान करती है।
 
आज हरेक कंपनी को मल्टीटास्कर लोगों की ज़रूरत है। ऐसे में ग्राहम बेल की एक ही लक्ष्य पर निगाह रखने की थ्योरी कमज़ोर पड़ती नज़र आती है। और यहीं से नई रिसर्च शुरू होती है जिसके मुताबिक़ क्रिएटिविटी के लिए एक साथ कई ख़यालात ज़हन में आना ज़रूरी है।
 
 
सोच में भटकाव कई बार आउट ऑफ़ द बॉक्स आइडिया को जन्म देता है। जब हम किसी एक ही ख़याल के बारे में सोचते रहते हैं तो उस पर वक़्त बहुत लग जाता है और नतीजा बहुत तसल्ली बख़्श नहीं होता। मनोविज्ञान में इसे 'कॉग्निटिव फ़िक्सेशन' कहा जाता है। जानकार इसे रचनात्मक सोच के लिए सबसे बड़ा रोड़ा मानते हैं।
 
मल्टी टास्किंग कितनी कारगर
एक वक़्त में एक ही ढर्रे पर काम करने की आदत से बाहर आने में मल्टीटास्किंग कितनी कारगर है, इसके लिए अमरीका के कोलंबिया बिज़नेस स्कूल में एक प्रयोग किया गया। इसमें शामिल लोगों को दो तरह के काम दिए गए। पहले प्रयोग में सभी को एक निश्चित समय अंतराल में रोज़मर्रा के इस्तेमाल की किसी भी आम-सी चीज़ के अलग-अलग इस्तेमाल के बारे में सोचने को कहा गया। जबकि दूसरे प्रयोग में ईंट और टूथपिक के अलग-अलग इस्तेमाल के बारे में सोचने को कहा गया।
 
कुछ प्रतिभागियों को हिदायत दी गई थी कि वो पहले सिर्फ़ ईंट के इस्तेमाल के बारे में सोचेंगे। उसके बाद टूथपिक के बारे में सोचेंगे। जबकि कुछ प्रतिभागियों को कोई भी काम मर्ज़ी के मुताबिक़ करने की छूट दी गई थी। पाया गया कि एक ही वक़्त में दोनों काम करने वालों का प्रदर्शन बेहतर था।
 
इसी तरह एक और प्रयोग किया गया। कुछ प्रतिभागियों को एक वक़्त में दो समस्याओं का हल तलाशने को कहा गया। वहीं कुछ प्रतिभागियों को पहले एक, फिर दूसरी समस्या का हल खोजने को कहा गया।
 
 
इस तजुर्बे के नतीजे पहले किए गए तजुर्बों से भी ज़्यादा चौंकाने वाले थे। जिन लोगों ने एक ही वक़्त में दो समस्याओं का हल खोजा था उनकी तादाद 51 फ़ीसदी थी। जबकि एक-एक कर हल सोचने वालों की संख्या महज़ 14 फ़ीसदी थी।
 
कुछ स्टडी इस ओर भी इशारा करती हैं कि ग्रुप में काम करने से नतीजे बहुत बेहतर नहीं निकलते। दरअसल हर शख़्स कॉग्निटिव फ़िक्सेशन का सामना करता है। लेकिन, जब ग्रुप में किसी मुद्दे पर बहस होती है तो हर किसी पर एक दूसरे के ख़यालात असर डालते हैं। यही वजह है कि ऑफ़िस मीटिंग्स में बात-चीत के बाद भी किसी समस्या का वक़्ती हल तो निकल आता है। लेकिन, कोई नया और अलग-सा आइडिया सामने नहीं आता।
 
 
एजुकेशन यूनिवर्सिटी ऑफ़ हांगकांग के प्रोफ़ेसर उत-ना-स्यू का कहना है कि इसमें थोड़े सुधार से बेहतर नतीजे हासिल किए जा सकते हैं। स्यू कहते हैं कि 'जब आप किसी ग्रुप में काम करते हैं और किसी एक ख़ास विचार को ही सुनते रहते हैं, तो वो भी फ़िक्सेशन को बढ़ावा देते हैं। लेकिन जब काम बदल बदल कर किए जाते हैं तो किसी ख़ास ख़याल का असर कम हो जाता है। दिमाग़ नए सिरे से काम करने लगता है।
 
स्यू सुझाव देते हैं कि जब भी आप किसी आइडिया को लेकर अटक जाएं तो उस वक़्त उसके बारे में मत सोचिए। कोई दूसरा काम शुरू कर दीजिए। लेकिन साथ में नोट पैड ज़रूर रखिए। यक़ीनन दूसरा काम करते हुए भी पहले वाले आइडिया के बारे में ख़्याल ज़रूर आएगा। आइडिया आने पर उसे तुरंत लिख लीजिए।
 
 
साथ ही स्यू का ये भी कहना है कि जब आप किसी क्रिएटिव आइडिया पर काम करें तो ब्रेक ज़रूर लें। ये छोटे-छोटे ब्रेक आइडिया की ताज़गी बनाए रखेंगे। आम तौर पर कामयाबी के लिए लोग ग्राहम बेल के फॉर्मूले पर काम करते हैं। क्रिएटिव कामों के लिए वो ज़रूरी है भी। लेकिन नई रिसर्च साबित करती हैं कि एक ही वक़्त में कई आइडिया पर काम करके ज़्यादा बेहतर नतीजे हासिल किए जा सकते हैं।