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Last Modified: शनिवार, 2 फ़रवरी 2019 (12:14 IST)

कहीं भी आना-जाना फ़्री करने वाला है एक देश

कहीं भी आना-जाना फ़्री करने वाला है एक देश - luxembourg city
- मार्क औक्सेनफेंट (बीबीसी कैपिटल)
 
दो घंटे में आप पूरा लक्ज़मबर्ग घूम सकते हैं। पूरब में मोसेल नदी के किनारे अंगूर के बगानों को देख सकते हैं। उत्तर में आप आर्डेन की घुमावदार घाटी और केंद्र में महलों और पुराने फ़ार्महाउस वाले आकर्षक गांवों को देख सकते हैं।
 
 
लेकिन लक्ज़मबर्ग की राजधानी लक्ज़मबर्ग सिटी की भीड़भाड़ वाली सड़कों पर दो घंटे सिर्फ़ घर से ऑफ़िस और ऑफ़िस से घर आने-जाने में लग जाते हैं। पिछले साल के अंत में लक्ज़मबर्ग ने तब सुर्खियां बटोरीं जब उसने ऐलान किया कि वह सभी तरह के सार्वजनिक परिवहन को फ़्री कर देगा।
 
 
एक मार्च 2020 से ट्रेन, ट्राम और बसों में आने-जाने का कोई पैसा नहीं लिया जाएगा। जर्मनी, फ्रांस और बेल्जियम के बीच ये नन्हा सा देश स्थित है। उसके इस क़दम से 6,02,000 निवासियों, 1,75,000 सीमा-पार के मज़दूरों और यहां आने वाले सालाना 12 लाख सैलानियों को फ़ायदा होगा।
 
 
सवाल है कि इस फ़ैसले के पीछे क्या वजह है और इससे क्या हासिल होगा?
 
 
आना-जाना फ्री
पिछले चार दशकों में लक्ज़मबर्ग की आबादी 2,40,000 बढ़ी है। साल 1998 में मज़दूरों की संख्या 1,61,000 थी जो 2018 में 4,27,000 हो गई। इसका एक कारण सीमा-पार से आने वाले मज़दूरों की संख्या में 168 फ़ीसदी इज़ाफ़ा होना भी है।
 
 
यूरोपीय संघ के सभी देशों के मुक़ाबले यहां प्रति व्यक्ति कार की संख्या सबसे ज़्यादा है। लक्ज़मबर्ग में 60 फ़ीसदी से अधिक लोग ऑफ़िस जाने के लिए अपनी कार का इस्तेमाल करते हैं। सिर्फ़ 19 फ़ीसदी लोग सार्वजनिक परिवहन के साधनों का उपयोग करते हैं। सार्वजनिक परिवहन को फ्री करने के पीछे भीड़भाड़ कम करना या पर्यावरण की दशा सुधारना मुख्य मक़सद नहीं है।
 
 
औसत सालाना सैलरी
लक्ज़मबर्ग के मोबिलिटी एंड पब्लिक वर्क्स मिनिस्टर फ्रांक्वा बॉश का कहना है कि यह एक सामाजिक फ़ैसला है। "इसका मक़सद अमीरों और ग़रीबों के बीच बढ़ती खाई को पाटना है। कम मज़दूरी पर काम करने वाले लोगों के लिए परिवहन का ख़र्च बहुत मायने रखता है।"
 
 
लक्ज़मबर्ग को अमीर देश माना जाता है। ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलेपमेंट (ओईसीडी) देशों में यहां की औसत सालाना तनख़्वाह सबसे ज़्यादा है, लेकिन ग़रीबी भी बढ़ रही है।
 
 
सांख्यिकी विभाग के मुताबिक़ सबसे नीचे के 10 फ़ीसदी लोग हर महीने औसत 1,011 यूरो (878 पाउंड या 1,144 डॉलर) पर गुज़ारा करते हैं। 13 फ़ीसदी मज़दूरों और लगभग 10 फ़ीसदी पेंशनभोगियों पर ग़रीबी का ख़तरा मंडरा रहा है।
 
 
'कमाल का आइडिया'
हाल ही में दोबारा चुनी गई लक्ज़मबर्ग सरकार मुफ्त परिवहन को इसी साल क़ानून की शक्ल देना चाहती है। इसके साथ न्यूनतम मज़दूरी, पेंशन समायोजन और उच्च शिक्षा के लिए वित्तीय मदद पर भी क़ानून बनाने का प्रस्ताव है। लक्ज़मबर्ग के नेशनल होलसेल मार्केट हॉल में काम करने वाले मैबरेक राबी कहते हैं, "मुफ़्त परिवहन का विचार कमाल का है।"
 
 
मैबरेक तलाक़शुदा हैं और अपने 12 साल के बच्चे के साथ रहते हैं। वह न्यूनतम सरकारी मज़दूरी पर काम करते हैं। टैक्स चुकाने के बाद हर महीने उनके पास 1,770 यूरो (1,540 डॉलर) की सैलरी होती है। इसमें से वह 900 यूरो किराया देते हैं और 50 यूरो सार्वजनिक परिवहन पर ख़र्च करते हैं। वह सीज़न टिकट पर 400 यूरो ख़र्च नहीं कर सकते।
 
 
सफ़ाई का काम
मैबरेक को लगता है कि न्यूनतम मज़दूरी बढ़ने से और परिवहन मुफ़्त हो जाने से कम आमदनी वाले लोग अपनी ज़रूरतें अच्छे से पूरी कर पाएंगे। लेकिन कार चलाने वाले लोगों को ट्रेनों और बसों में चढ़ने के लिए राज़ी कर पाना आसान नहीं होगा। बहुत सारे लोग सार्वजनिक परिवहन को असुविधाजनक मानते हैं।
 
 
फ़ातिमा ब्रागा न्यूनतम मज़दूरी पर सफ़ाई का काम करती हैं। वह दिन में घरों में काम करती हैं और शाम में दफ्तरों में। दो नौकरियों के बीच के ब्रेक में वह अपने कुत्ते की देखरेख के लिए घर आती हैं। वह कहती हैं, "मुफ़्त परिवहन से मेरे पैसे बचेंगे। लेकिन अलग-अलग जगहों से घर आने-जाने में बस में मुझे डेढ़ घंटे लगेंगे जबकि अभी कार से सिर्फ़ 50 मिनट लगते हैं।"
 
 
कार छोड़ना मुश्किल
उच्च आय वर्ग के लोगों को कार छोड़कर ट्रेनों और बसों में सफ़र करने के लिए मनाना और मुश्किल है। ऐने क्लेन लैमेडिलेन के हाई स्कूल में जर्मन पढ़ाती हैं। यह शहर लक्ज़मबर्ग सिटी से 30 किलोमीटर दक्षिण में है। वह सुबह-सुबह घर से निकलती हैं और 30 मिनट में ही स्कूल पहुंच जाती हैं।
 
 
अगर वह दोपहर में स्कूल जाएं तो दोगुना समय लगेगा। इसलिए वह कार छोड़कर बस या ट्रेन पकड़ने को तैयार नहीं हैं। "ट्रेन से जाने में मुझे एक घंटा लगता है। मुझे दूसरी ट्रेन बदलने की ज़रूरत पड़ती है, जो मुझे या तो स्कूल बहुत जल्दी पहुंचा देती है या बहुत देर से पहुंचाती है।"
 
 
ऐने क्लेन को किताबों से भरा भारी बैग भी ले जाना होता है। इसलिए कार से आने-जाने में भले ही ज़्यादा पैसे लगते हैं, लेकिन उनके लिए यही सबसे सुविधाजनक है।
 
 
बेहतर सीमा-पार संपर्क
सरकार ने परिवहन के बुनियादी ढांचे और अपनी नई मोबिलिटी रणनीति Modu 2.0 में निवेश की योजना बनाई है। ताकि ऐसा परिवहन नेटवर्क बनाया जा सके जो साल 2025 तक 20 फ़ीसदी ज़्यादा लोगों को ढो सके।
 
 
इस प्लान में रेल नेटवर्क का आधुनिकीकरण, बेहतर सीमा-पार संपर्क और नये ट्रेन-ट्राम-बस एक्सचेंज हब का निर्माण शामिल है। लक्ज़मबर्ग सरकार साल 2023 तक इसमें 2.2 अरब यूरो का निवेश करने वाली है। किराये से मिलने वाला राजस्व ग़ायब हो जाए तो यह निवेश महंगा लगता है।
 
 
लेकिन लक्ज़मबर्ग में सार्वजनिक परिवहन पर पहले से भारी सब्सिडी है। दो घंटे के सफ़र की क़ीमत 2 यूरो और पूरे दिन के लिए सेकेंड क्लास टिकट की क़ीमत 4 यूरो है।
 
 
महंगा सौदा!
कई लोगों को ये टिकट अब भी मुफ़्त मिल सकते हैं। जैसे 20 साल से कम उम्र के लोगों को, 30 साल के कम उम्र के छात्रों को और न्यूनतम मज़दूरी गारंटी पर काम करने वाले लोगों को। टिकट किराए से मिलने वाला कुल राजस्व 4.1 करोड़ यूरो है जो 49.1 करोड़ यूरो की कुल परिचालन लागत के 10 फ़ीसदी भी नहीं है।
 
 
बॉश का कहना है कि मुफ़्त परिवहन से किराया नहीं मिलेगा, लेकिन इस योजना को लागू करने की लागत न्यूनतम है। सरकार उन क़ानूनों की समीक्षा करने जा रही है जो मज़दूरों को उनके वार्षिक टैक्स बिल में से यात्रा ख़र्च के नाम पर एकमुश्त कटौती की अनुमति देते हैं।
 
 
टैक्स छूट बंद
इस क़दम से सरकार का राजस्व बढ़ाने में मदद मिलेगी। अनुमान है कि इससे सालाना 11.5 करोड़ यूरो मिलेंगे। फ्रांस के मोंडॉर्फ से लक्ज़मबर्ग आकर बैंक की नौकरी करने वाले फ्रेड टिन उन लोगों में से एक हैं जिनको इससे घाटा हो सकता है। रोजाना 45 किलोमीटर के सफ़र के लिए फ़िलहाल वे अपने सालाना टैक्स रिटर्न में 2,079 यूरो का यात्रा ख़र्च दिखाते हैं और इस पर टैक्स छूट लेते हैं।
 
 
फ्रेड टिन को कार से ऑफ़िस आने-जाने में 26 मिनट लगते हैं। यदि वह सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करें तो सालाना क़रीब 2,000 यूरो बचा सकते हैं। लेकिन सफ़र में उनको रोज़ डेढ़ से दो घंटे लगेंगे। वह कहते हैं, "बस या ट्रेन एक घंटे में एक छूटती है। यदि शाम के 7:35 बजे की बस छूट जाती है तो मेरे पास टैक्सी लेकर घर आने के अलावा और कोई चारा नहीं होगा।"
 
 
सफलता में संदेह
सरकार की योजना से सीमा-पार से आने वाले यात्रियों को निश्चित ही फ़ायदा होगा। बॉश कहते हैं कि पड़ोसी देश के परिवहन नेटवर्क के साथ चर्चा के बाद ट्रेन और बस किराये को समायोजित किया जाएगा।
 
 
जो लोग शान से सफ़र करना चाहते हैं उनके पास 660 यूरो सालाना या 75 यूरो प्रति महीने की दर पर फर्स्ट क्लास का टिकट ख़रीदने का विकल्प होगा। ट्रांसपोर्ट फ़्री करने के क़दम ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा।
 
 
अर्थशास्त्री मिचेल-एडॉर्ड रूबेन कहते हैं, "अगर लक्ज़मबर्ग ने प्रचार अभियान चलाया होता तो करोड़ों का ख़र्च होता। इस घोषणा से उसे मुफ्त प्रचार मिल गया।"
 
 
मुफ़्त सार्वजनिक परिवहन का विरोध
रूबेन को मुफ़्त यात्रा का विचार ग़लत और फ़ैशनेबल लगता है और इसके कारगर होने में उन्हें संदेह है। उनको लगता है कि यह पैसा अगर किराये की सब्सिडी या सामाजिक आवास पर ख़र्च किया जाता तो बेहतर होता। लक्ज़मबर्ग यूनिवर्सिटी की सीनियर रिसर्चर कॉन्स्टेंस कैर की भी यही राय है। वह कहती हैं, "मुफ़्त सार्वजनिक परिवहन एक जटिल मुद्दा है और भाड़ा कोई समस्या नहीं है।"
 
 
कैर महंगे घरों को मुख्य सामाजिक मुद्दा बताती हैं। उनका कहना है कि महंगे होते जा रहे घरों के कारण लोग शहर के बाहरी इलाक़ों की ओर जा रहे हैं। राष्ट्रीय परिवहन संघ भी इस योजना का विरोध कर रहे हैं। रेलवे यूनियन साइप्रोलक्स की प्रमुख माइलेन बियांची का कहना है कि परिवहन मुफ़्त कर देने से तोड़फोड़ बढ़ेगी। "लोग इसे सराहेंगे कम और तोड़-फोड़ ज़्यादा करेंगे।"
 
 
क्या यह कारगर होगा?
यूनियनों को यह भी डर है कि कई स्टाफ की नौकरी चली जाएगी। लेकिन बॉश ने आश्वस्त किया है कि किसी को भी नौकरी से नहीं निकाला जाएगा। "टिकट निरीक्षक और डेस्क कर्मचारी बोर्ड और स्टेशनों पर रहेंगे। वे सूचना और सुरक्षा के काम संभालेंगे।"
 
 
लक्ज़मबर्ग यह कोशिश करने वाला पहला देश नहीं है। इस्टोनिया की राजधानी टैलिन में जनवरी 2013 में सार्वजनिक परिवहन को मुफ़्त कर दिया गया था। इसके दो मक़सद थे- भीड़भाड़ से निपटना और कम आय वाले लोगों की मदद करना।
 
 
टैलिन के लोगों को 2 यूरो का एक ग्रीन कार्ड ख़रीदना होता है जिससे वे पूरे शहर की यात्रा कर सकते हैं। ग़ैर-निवासियों और सैलानियों को किराया चुकाकर यात्रा करनी पड़ती है।
 
 
अप्रत्याशित बात सामने आई
फ्रांस के शहर डनकर्क ने भी सितंबर 2018 से अपने दो लाख निवासियों के लिए बसों की यात्रा मुफ़्त कर दी है। योजना शुरू करने के एक महीने बाद कुछ रूट पर यात्रियों की संख्या 50 फ़ीसदी बढ़ी तो कुछ दूसरे रूट पर इसमें 85 फ़ीसदी की बढ़ोतरी रही।
 
 
लोग जब बस सेवा के लिए पैसे चुका रहे थे, उसके मुक़ाबले अब ज़्यादा लोग इसकी तारीफ़ करते हैं। टैलिन में एक सर्वे में एक अप्रत्याशित बात सामने आई। औसत यात्रा की लंबाई 10 फ़ीसदी कम हो गई। इससे संकेत मिला कि लोग जो सफ़र पैदल या बाइक से कर रहे थे, उसके लिए भी वे बस की सवारी करने लगे थे।
 
 
शहर के केंद्र में यात्रियों की संख्या तीन फ़ीसदी बढ़ी, लेकिन जिस ज़िले में बेरोज़गारी दर ज़्यादा थी वहां इसमें 10 फ़ीसदी का उछाल आया।
 
 
रोजगार नहीं बढ़ा
बाद की एक रिपोर्ट में पाया गया कि कम आय वालों और बेरोजगारों की गतिशीलता सुधरने के सबूत मिले-जुले थे। गाड़ियों के फेरे ज़्यादा लगे, लेकिन ऐसे कोई संकेत नहीं मिले कि नई परिवहन नीति से रोजगार के मौके़ बेहतर हुए।
 
 
फिलहाल, लक्जमबर्ग के लोगों की रुचि सरकार के सामाजिक क़ानून के एजेंडे के दूसरे हिस्सों में है। कुछ ही लोग बस या ट्रेनों में मुफ़्त सवारी के लिए कार छोड़ने को तैयार हैं।
 
 
कैर कहती हैं, "इस लत से छुटकारे के लिए शिक्षा की ज़रूरत है।" "लेकिन कारों के इस्तेमाल को कम करने के लक्ष्य से बनाई गई नीतियां अलोकप्रिय हैं और राजनीतिक रूप से वर्जित।"