28 साल की स्मारिका रैट् सिंड्रोम से पीड़ित हैं। वो न बोल सकती हैं, न ही स्वयं कुछ कर सकती हैं। जीवन के लिए वो अपने मां-बाप पर निर्भर हैं लेकिन अपने मां-बाप के लिए वो एक विशेष बेटी हैं। पढ़िए स्मारिका के नाम लिखा उनके पिता का पत्र। स्मारिका के पिता समुन खरेल बीबीसी नेपाली सेवा के वरिष्ठ पत्रकार हैं।
प्यारी बेटी स्मारिका,
आज तुम्हारा जन्मदिन है। तुम 28 की हो गई हो। मैं जानता हूं कि तुम ये पत्र नहीं पढ़ सकतीं। कोई सुना दे तो भी समझ नहीं सकतीं। मैं ये पत्र तुम्हारे तकिए के नीचे रख रहा हूं इस उम्मीद से कि कोई तरंग तुम्हारे दिल तक हमारी भावनाओं को ले जाए।
काठमांडू में तुम्हारे जन्म के दिन हमने जश्न मनाया था। तुम हमारे चेहरे की हंसी बनकर आईं थीं। तुम घुटनों के बल देर से चलीं और मां-बाबा भी देर से बोला। तुम बड़ी हुईं मगर बोली में सुधार नहीं आया। हम चिंतित हो गए। डॉक्टर बोले ‘बड़े लाड़-प्यार से पाला है, धीरे-धीरे बोलना शुरू कर देगी।’
हम प्रतीक्षा करते रहे, लेकिन तुम नहीं बोलीं। बहुत अस्पतालों में दिखाया लेकिन कोई कुछ नहीं बता सका। तुम पांच साल की हो गईं और तुम्हारा भाई भी दुनिया में आ गया।
तुम चल सकती थीं, लेकिन किसी को तुम्हें उठाना पड़ता था। खा सकती थी, लेकिन किसी को खिलाना पड़ता था। हर काम के लिए तुम्हें किसी का सहारा चाहिए था।
मेरा बीबीसी लंदन में चयन हुआ और दिल के एक कोने में तुम्हारे ठीक होने की उम्मीद जगी। लंदन में दो साल की जांचों के बाद बीमारी की पहचान हुई।
डॉक्टरों ने बताया कि स्मारिका को रैट् सिंड्रोम है. ये लाइलाज बीमारी सिर्फ़ लड़कियों को होती है। इसमें क्रोमोज़ोम में गड़बड़ी के कारण सिर्फ़ शारीरिक विकास होता है, मानसिक नहीं।
ये जानकारी हम पर बिजली गिरने जैसी थी। मैंने उस पल तुम्हें देखा, दुनिया की क्रूरता से बेख़बर अपनी उंगलियां मुंह में डाले एक बालिका मुस्कुरा रही थी। तुम्हारे ख़ूबसूरत चेहरे को निहारते, तुम्हें सीने से लगाए हम दिन-रात तड़पते रहे।
और फिर हमने तुम्हें अपना ईश्वर मान लिया।
ईश्वर जो ना कुछ बोलता है, ना मांगता है, बस मुस्कुराता है और हमें आशीर्वाद देता है। बेहद ख़ूबसूरत ईश्वर, जिसे हम हमेशा पूजते रहेंगे।
रैट् सिंड्रोम के बारे में लोग कम जानते हैं, तुम्हारी अनुमति के बिना लिख रहा हूं। माफ़ करना। सुस्त मनोस्थिति के बच्चे अब भी हमारे समाज में घुलमिल नहीं पाते हैं।
ऐसे बच्चों को नज़रअंदाज़ किया जाता है जबकि उन्हें ज़रूरत होती है हमारे प्यार और देखभाल की। ऐसे विशेष बच्चों के लिए मैंने और तुम्हारी मां ने एक गीत लिखा 'स्मारिका'।
मैं चाहता हूं कि तुम अपनी मातृभूमि जाओ लेकिन वहां तुम्हारे लिए हालात मुश्किल हैं। वहाँ अभी तुम जैसे बच्चों के बारे में सोचा तक नहीं गया है।
वहां दांग तुलसीपुर गांव में रूपा गन्धर्व अपने चार नेत्रहीन बच्चों और मोरंग इटहरा में तुलसीराम अपने पांच विकलांग बच्चों को पालने का अकेले ही जतन कर रहे हैं।
लेकिन तुम फ़िक्र ना करो बेटी, क्योंकि तुम ब्रिटेन में हो जहां हमारे बाद भी तुम्हारी देखभाल निश्चित है।
यहां तुम समाज का एक हिस्सा हो। उस पर बोझ नहीं। हम जानते हैं कि तुम भी हमसे कुछ कहना चाहती होगी। तुम बोलो, ये बहुत मुश्किल है. लेकिन फिर भी हमें आस है।
कहते है न, जब तक है सांस, मत छोड़ो आस। इसीलिए फिर भी कहेंगे-एक बार, बस एक बार…