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Last Modified: गुरुवार, 21 जनवरी 2016 (10:52 IST)

ऐसे भागे थे घर से, जैसे भूकंप आ गया हो

ऐसे भागे थे घर से, जैसे भूकंप आ गया हो - kashmiri pandits
- ज़ुबैर अहमद (दिल्ली)
 
घरों में सामान बिखरा पड़ा था। गैस स्टोव पर देग़चियां और रसोई में बर्तन इधर-उधर फेंके हुए थे। घरों के दरवाज़े खुले थे। हर घर में ऐसा ही समां था। ऐसा लगता था कि भूकंप के कारण घर वाले अचानक अपने घरों से भाग खड़े हुए हों...हुआ भी ऐसा ही था।
फर्क़ केवल इतना था कि ये प्राकृतिक आपदा का नतीजा नहीं था। श्रीनगर के रैनावाड़ी मोहल्ले में रहने वाले कश्मीरी पंडितों को रातों रात अपने घरों को छोड़कर भागना पड़ा था। ये 26 साल पुरानी बात है। 19 जनवरी 1990 की रात हजारों कश्मीरी पंडित घाटी छोड़कर चले गए।
 
मैं वहां रिपोर्टिंग के लिए एक साल बाद गया था। लेकिन एक साल के बाद भी इन घरों के सामान वैसे ही बिखरे पड़े थे। ये सिलसिला महीनों बल्कि सालों तक जारी रहा। लेखक राहुल पंडिता उस समय 14 वर्ष के थे। बाहर माहौल खराब था। मस्जिदों से उनके खिलाफ नारे लग रहे थे। पड़ोसी कह रहे थे, 'आजादी की लड़ाई में शामिल हो या वादी छोड़कर भागो।'
 
कश्मीरी पंडित हिंसा, आतंकी हमले और हत्याओं के माहौल में जी रहे थे। सुरक्षाकर्मी थे लेकिन इतने नहीं कि वो उनकी जान और सामान की सुरक्षा कर सकें।
राहुल पंडित के परिवार ने तीन महीने इस उम्मीद में काटे कि शायद माहौल सुधर जाए। लेकिन आखिर उनके जाने की घड़ी आ गई। वो 3 अप्रैल 1990 का दिन था। 'हमलों के डर से हमारे घर में लाइट बुझा दी गई थी।'
 
राहुल आगे कहते हैं, 'कुछ लड़के जिनके साथ हम क्रिकेट खेला करते थे हमारे घर के बाहर पंडितों के खाली घरों को आपस में बांटने की बातें कर रहे थे।' उन्होंने बताया, 'हमारी लड़कियों के बारे में बुरी बातें कह रहे थे। ये बातें मेरे जहन में अब भी ताजा हैं।'
 
उसी शाम को राहुल के पिता ने फैसला किया कि अब कश्मीर में रहना मुमकिन नहीं। अगले ही दिन एक टैक्सी करके वो जम्मू चले गए।
 
शुरू में उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं। 'जम्मू में पहले हम सस्ते होटल में रहे, छोटी-छोटी जगहों पर रहे। बाद में एक धर्मशाला में रहे जहां मेरी मां की तबीयत बहुत खराब हो गई। उस समय अपने भविष्य को लेकर हमें कुछ मालूम नहीं था।'
 
उस साल ऑल इंडिया कश्मीरी समाज के अध्यक्ष विजय ऐमा का घर भी उजड़ गया था। लेकिन ऐमा कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों की त्रासदी किसी एक परिवार की नहीं बल्कि ये उनकी सामूहिक त्रासदी थी। ऐमा कहते हैं, 'ये त्रासदी उन कश्मीरी पंडितों की कहानी है जो उस रात अपने घरों को छोड़ने पर मजबूर हुए।'
 
कश्मीरी पंडितों के अनुसार उन्हें उनके घरों से नहीं बल्कि उनकी जड़ों से बेदखल किया गया। विजय ऐमा कहते हैं, 'विश्वास नहीं होता था कि जिस जगह हम सदियों से रहते आए हैं वहां ऐसा माहौल होगा। मालूम नहीं था कि कैसे हम जिंदा बचेंगे, कैसे अपनी औरतों की आबरू बचा पाएंगे।'
 
उनके अनुसार उस माहौल को 'लफ्जों में बयान नहीं किया जा सकता।' अधिकतर कश्मीरी पंडितों ने जम्मू में शरण ली। वहां खेमों का एक शहर सा बस गया। राहुल पंडित के अनुसार उस साल जून की गर्मी से ख़ेमों में कई लोगों का देहांत हो गया जिसके बारे में उन्होंने अपनी नई प्रकाशित किताब में भी जिक्र किया है।
जम्मू और दिल्ली में शरण लेने वाले कश्मीरी पंडितों को ये लगा कि इन जगहों पर उनके दर्द को लोग समझेंगे, लेकिन उन्हें जल्द समझ में आ गया कि 'उन्हें पूछने वाला कोई नहीं।'
 
राहुल पंडित कहते हैं, 'हमें ये उम्मीद थी कि जब हम कश्मीर से पलायन करके जम्मू, दिल्ली और लखनऊ आएंगे जहां बहुसंख्यक हिन्दू समाज है तो उन्हें एहसास होगा कि हम कश्मीर से भागकर आए हैं।'
 
'लेकिन निर्वासन के तुरंत बाद समझ में आ गया कि जो मकान मालिक होता है वह न तो हिन्दू होता है और न मुसलमान। वो केवल मकान मालिक होता है और उसका मजहब केवल पैसा होता है।'
 
कश्मीरी पंडितों को आमतौर पर सभी से शिकायत है। विजय ऐमा कहते हैं कि देश की सिविल सोसाइटी ने, मीडिया ने, नेताओं ने और हुकूमतों ने...किसी ने उनका हाल नहीं पूछा।
 
एक अंदाजे के मुताबिक पिछले 26 सालों में तीन लाख कश्मीरी पंडित घाटी को छोड़ कर चले गए जिनमें से अधिकतर 1990 में ही चले गए थे। लेकिन कुछ परिवार ऐसे थे जो अपने घरों को छोड़कर नहीं गए।
अब वादी में ऐसे लोगों की संख्या 2700 से थोड़ा अधिक है। इनमें संजय टीकू भी एक हैं जो आज भी उसी घर में रह रहे हैं जहां 26 साल पहले रह रहे थे।
 
वो कहते हैं, 'जब हम अपने रिश्तेदारों को ढूंढने जम्मू को निकले, जब हमने अपने रिश्तेदारों के हालात वहां खेमों में देखे तो हम ने फैसला किया कि बेहतर है हम कश्मीर में ही रहें। मौत लिखी है तो कश्मीर में होगी।'
 
अब राज्य से बाहर कई कश्मीरी पंडित पहले से बेहतर हाल में हैं, लेकिन वो अपने वतन को लौटना चाहते हैं। क्या ये संभव है?
 
राहुल पंडित कहते हैं, 'पिछले 26 सालों में किसी भी सरकार ने ऐसा माहौल तैयार नहीं किया है जिससे कश्मीर में उनकी वापसी हो सके।' जम्मू और कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्लाह ने मंगलवार को एक समारोह में कहा कि कश्मीर लौटने की जिम्मेदारी खुद कश्मीरी पंडितों की है।
 
इस बयान ने कश्मीरी पंडितों को काफ़ी मायूस किया। विजय ऐमा के अनुसार पहल कश्मीरी मुस्लिम समाज को करनी होगी। कश्मीरी पंडित के बहुमत के विचार में अगर वो घर लौटे तो खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करेंगे।
कुछ कहते हैं उन्होंने काफी पहले बदहाली में अपने घर बेच दिए। संजय टीकू कहते, 'मैं कश्मीर में सर उठा कर जीता हूं, सर झुका कर नहीं।' कश्मीर के पैंथर्स पार्टी के अध्यक्ष भीम सिंह कहते हैं कि हालात पहले से काफी बेहतर हैं। 'मैं राजपूत हूं, एक हिन्दू हूं। मैं खुली गाड़ी में श्रीनगर जाता हूं।'
 
संजय टीकू के अनुसार कश्मीर में 186 अलग-अलग जगहों पर 2700 कश्मीरी पंडित रहते हैं। लेकिन कश्मीर से बाहर रहने वाले पंडितों के अनुसार ये अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडित वहां दबकर रहते हैं।
 
कश्मीरी पंडितों की घर वापसी पर एक सुझाव आया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्मार्ट सिटी बनाने की योजना रखते हैं। संजय टीकू कहते हैं कि एक स्मार्ट सिटी कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के लिए बना दिया जाए तो अधिकतर लोग वापस कश्मीर लौट जाएंगे।
 
'मैं भी अपने लोगों के बीच रहना चाहता हूं। स्मार्ट सिटी में 60 प्रतिशत कश्मीरी पंडित और 40 प्रतिशत मुस्लमान रहें तो हमें ये मंजूर होगा।'
 
राहुल पंडित और विजय ऐमा इस सुझाव को स्वीकार करते हैं। राहुल कहते हैं, 'ये पहले कदम के तौर पर सही फैसला होगा। लेकिन साथ ही हमें इन्साफ चाहिए।' इन्साफ से उनका मतलब ये था कि कश्मीरी पंडितों के घरों को लूटने, उनकी हत्या करने और उनके मंदिरों को जलाने वालों को सजा दी जाए।