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Last Modified: शुक्रवार, 25 सितम्बर 2015 (10:59 IST)

सिलिकॉन वैली का टॉप टैलेंट भारतीय ही क्यों?

सिलिकॉन वैली का टॉप टैलेंट भारतीय ही क्यों? - Indian CEOs in Silicon Valley
- निक क्लेटन (बीबीसी कैपिटल) 
 
मोटवानी और पिचाई दोनों इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नालॉजी (आईआईटी) से निकले और गूगल में शीर्ष स्तर की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया है। वैसे ये बात केवल सुंदर पिचाई और मोटवानी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अमेरिका की तकनीकी दुनिया में भारतीयों की मौजूदगी लगातार बढ़ रही है।
अमेरिका में लगभग एक तिहाई स्टार्टअप भारतीय लांच कर रहे हैं। इतने स्टार्टअप वहां रह रहे दूसरे सात गैर-अमेरिकी समुदाय मिलकर भी लांच नहीं कर पा रहे हैं।
 
2011 के आंकड़ों के मुताबिक, अमेरिका में भारतीय समुदाय सबसे ज्यादा औसत सालाना आमदनी वाला समूह है। अमेरिका में रह रहे भारतीय साल में 86,135 डॉलर कमाते हैं जबकि अमेरिका की औसत आय 51,914 डॉलर सालाना है। हालांकि भारतीय समुदाय को यहां तक पहुंचने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। अब पिचाई का ही उदाहरण देखिए।
 
चेन्नई के एक इंजीनियर के बेटे पिचाई जब अमेरिका गए तो हवाई टिकट उनके पिता के सालाना वेतन के बराबर था। पैसे की तंगी की वजह से वे छह महीने तक अपनी होने वाली पत्नी को फोन नहीं कर पाए थे।
 
2004 में गूगल से जुड़ने से पहले पिचाई मैनेजमेंट कंसल्टेंट के तौर पर मैकेंजी और माइक्रोप्रोसेसर सप्लायर एप्लायड मैटेरियल्स के साथ कम कर चुके थे। गूगल के सीईओ बनने से पहले पिचाई ने वेब ब्राउजर गूगल क्रोम की स्थापना की थी।
 
दरअसल पिचाई जैसे भारतीय लोगों के बढ़ते दबदबे की सबसे बड़ी वजह यही है कि अमेरिकी सिलिकॉन वैली में शीर्ष स्तर पर जो कार्य-संस्कृति है उसमें बड़ा बदलाव आया है।
भारतीयों का दबदबा : पहले के सीईओ काफी इगो वाले, कर्मचारियों के साथ सख्ती से पेश आने वाले और काफी हद तक निर्णायक फैसले लेने वाले होते थे जो गुणवत्ता सुधारने के लिए, प्रतिस्पर्धी माहौल बनाने के लिए और कर्मचारियों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए जान-बूझकर टकराव का रास्ता अपनाते थे।
 
अब प्रबंधन का अंदाज बदला है और टकराव के बदले, उसे नजरअंदाज करके बेहतर काम करने का रास्ता अपनाया जा रहा है। इस संस्कृति में भारतीय सीईओ एकदम फिट साबित हो रहे हैं। यही वजह है कि माइक्रोसॉफ्ट ने सत्या नडेला को अपना सीईओ बनाया है। स्टीव बॉमर के माइक्रोसॉफ्ट छोड़ने का बाद उन्हें सीईओ बनाया गया।
 
इसके अलावा जापान के टेलीकॉम मल्टीनेशनल सॉफ्टबैंक ने गूगल के निकेश अरोड़ा को अपना प्रेसीडेंट बनाया है।
 
एडोब को शांतानु नारायण चला रहे हैं।
 
आईटी की विशालकाय कंसल्टेंसी कंपनी कॉग्नीजेंट को फ्रांसिस्को डिसूज़ा लीड कर रहे हैं। कंप्यूटर मेमरी की बड़ी कंपनी सैनडिस्क के मुखिया संजय मेहरोत्रा भी भारतीय ही हैं।

स्टार्टअप्स में अव्वल : केवल टेक्नॉलाजी की बड़ी कंपनियों पर ही भारतीयों का दबदबा नहीं हैं। बल्कि शराब का कारोबार करने वाली सबसे बड़ी कंपनी डियाजियो के सीईओ इवान मेनेजेस भी भारतीय मूल के हैं। मास्टरकार्ड के बॉस अजय बंगा भी भारतीय हैं। पेप्सी की सीईओ इंद्रा नूयी भी टॉप तक पहुंचने वाली भारतीयों में शामिल हैं।
 
सिलिकॉन वैली में भारतीय वर्क फोर्स की आबादी कुल मानव संसाधनों में 6 फीसदी है लेकिन दूसरी ओर सिलिकॉन वैली के 15 फीसदी स्टार्टअप्स के संस्थापक भारतीय हैं।
 
अमेरिका के सिंगुलरिटी, स्टैनफोर्ड और ड्यूक यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले प्रोफेसर विवेक वाधवा के एक अध्ययन के मुताबिक ब्रिटेन, चीन, ताइवान, जापान मिलकर जितने स्टार्ट अप शुरू करते हैं ये उससे भी अधिक है। इस अध्ययन के मुताबिक अमेरिका की एक-तिहाई स्टार्टअप्स भारतीय लोगों ने शुरू किए हैं।
 
ऐसे में सवाल ये है कि भारतीय मूल के लोग अमेरिका में इतने कामयाब क्यों हो रहे हैं?
कामयाबी की वजह : इसकी एक बड़ी वजह भारतीयों का अंग्रेजी ज्ञान है। ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चलते भारत में उच्च शिक्षा अंग्रेजी माध्यम में ही उपलब्ध हैं, ऐसे भारतीय पेशेवरों को अलग से अंग्रेजी सीखने में मेहनत नहीं करनी होती है।
 
सिलिकॉन वैली में नेटवर्किंग संस्था चला रहे द इंडस इंटरप्रेन्योर्स के अध्यक्ष वेंकटेश शुक्ला इसकी एक दूसरी वजह भी मानते हैं। वे कहते हैं, 'इनमें से ज्यादातर लोग भारत से तब आए थे जब वहां सीमित अवसर उपलब्ध थे। अमेरिका की वीजा नीतियों के कारण सिर्फ बेहतरीन प्रतिभाएं ही यहां आ सकीं। तो यहां भारत के सबसे प्रतिभाशाली लोग मौजूद हैं।'
 
इसके अलावा कुछ और पहलू हैं जिसके चलते भारतीय अच्छा कर रहे हैं। इन्हीं पहलुओं में विविधता भी शामिल है। वेंकटेश शुक्ला कहते हैं, 'अगर आप भारत में पले-बढ़े हों तो विविधरंगी समाज आपके लिए कोई नई बात नहीं होती। सिलिकॉन वैली में ज्यादा राजस्व और बेहतर उत्पाद की बात होती है, आप कैसा दिखते हैं और क्या बोलते हैं, इसका कोई मतलब नहीं होता।'
 
कल्चरल डीएनए के लेखक गुरनेक बैंस कहते हैं, 'ग्लोबलाइजेशन के मनोविज्ञान ने विविधता की समझ को भी बेहतर बनाया है। भारतीय विविध उत्पाद, विविध वास्तविकता और विविधरंगी नज़रिए को समझते हैं।'
 
बैंस कहते हैं, 'इसके चलते भारतीय तेज़ी से बदलती आईटी की दुनिया की चुनौतियों को संभालने में सक्षम हैं।' बेंस के मुताबिक अमेरिकी सोचने का काम ज्यादा करते हैं लेकिन योजना को अमल में लाने में भारतीय काफी आगे हैं। 
 
बैंस के फर्म वायएससी के 200 से ज्यादा सीईओ के आकलन और विश्लेषण के दौरान ये बात भी सामने आई कि भारतीय कुछ हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं और उनमें बौद्धिकता का एक स्तर भी होता है।
खामियां भी हैं मगर...
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है हर कोई परफैक्ट ही होता है। तमाम गुणों के बावजूद भारतीयों में एक बड़ी खामी भी है। बैंस के अध्ययन के मुताबिक, 'भारतीय टीम वर्क में सबसे कमजोर हैं।' इस पहलू में अमेरिकी और यूरोपीय सबसे बेहतर हैं। हालांकि जो भारतीय लंबे समय से बाहर रहे हैं वो टीम वर्क के गुर भी सीख रहे हैं।
 
विवेक वाधवा कहते हैं, 'भारत के बच्चे माइक्रोसॉफ्ट और गूगल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करते हैं और वे इन कंपनियों के भारतीय सीईओ को भी देख रहे हैं। यह काफी प्रेरक है।'
 
वाधवा के मुताबिक भारतीय पेशेवरों को अब अपनी क्षमता दिखाने के लिए अमेरिका जाने की बाध्यता भी नहीं है क्योंकि भारत अब अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।
 
वाधवा कहते हैं, 'अगले तीन से पांच साल के बीच भारत में करीब 50 करोड़ की आबादी स्मार्टफोन का इस्तेमाल करने लगेगी। टेक क्रांति यहां दिखाई देगी। भारत से कई अरब डॉलर वाली कंपनियां निकलेंगी। अब अवसर भारत में मौजूद हैं।'