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Last Modified: शुक्रवार, 18 अगस्त 2017 (12:46 IST)

अमेरिकी मदद के बावजूद 1962 की जंग चीन से कैसे हारा भारत?

अमेरिकी मदद के बावजूद 1962 की जंग चीन से कैसे हारा भारत? - 1962 India China war
- रजनीश कुमार
हाल के भारत चीन तनाव के बीच दोनों देशों में 1962 में हुए युद्ध को भी याद किया जा रहा है। इस युद्ध में भारत को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था। चीन के सरकारी मीडिया की तरफ से भारत को इस युद्ध की याद लगातार दिलवाई जा रही है। दूसरी तरफ भारत का कहना है कि 1962 से भारत बहुत आगे निकल चुका है।
 
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि 1962 के युद्ध में अमेरिका ने भारत की मदद की थी। अमेरिका के सामने 1962 में चीन की ताक़त कुछ भी नहीं थी। ऐसे में सवाल उठता है कि एक महाशक्ति की मदद पाकर भी चीन से युद्ध में भारत को हार क्यों मिली?
 
इस सवाल पर जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में अमेरिकी, कनाडाई और लातिन अमेरिकी स्टडी सेंटर में प्रोफ़ेसर चिंतामणी महापात्रा कहते हैं, ''जब चीन ने भारत पर हमला किया उसी वक़्त अमेरिका क्यूबा मिसाइल संकट का सामना कर रहा था। सोवियत संघ ने क्यूबा में मिसाइल तैनात कर दी थी और एक बार फिर से परमाणु युद्ध की आशंका गहरा गई थी। उस वक़्त दुनिया पूरी तरह से संकटग्रस्त थी।''
 
नेहरू के कैनेडी को पत्र
चिंतामणी कहते हैं, ''एक कम्युनिस्ट देश चीन ने भारत पर हमला किया था तो उसके दूसरे साथी कम्युनिस्ट देश सोवियत संघ ने अमेरिका के ख़िलाफ़ क्यूबा में मिसाइलें तैनात कर दी थीं। फिर भी अमेरिका भारत को मदद करने के लिए पूरी तरह से तैयार था। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू उस वक़्त अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी को बार-बार पत्र लिख रहे थे कि वो मदद करें। नेहरू ने यहां तक कहा था कि वह एयरक्राफ्ट ख़रीदने के लिए भी तैयार हैं।''
 
नेहरू के अनुरोध पर राष्ट्रपति कैनेडी मदद के लिए तैयार हो गए थे। हालांकि एक तथ्य यह भी है कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय पर पाकिस्तान का दबाव था कि वह चीन के ख़िलाफ़ भारत को मदद नहीं पहुंचाए।
 
तो क्या इस मामले में राष्ट्रपति कैनेडी अलग-थलग पड़ गए थे?
महापात्रा कहते हैं कि ऐसा नहीं है। वह अलग-थलग नहीं पड़े थे, लेकिन पाकिस्तान ने अमरीका पर दबाव बनाया था। महापात्रा आगे कहते हैं, ''शुरुआत में नेहरू तो राष्ट्रपति कैनेडी से केवल युद्ध सामग्री ख़रीदने की बात कर रहे थे। लेकिन चीन जब भारतीय सेना को झटका देते हुए आगे बढ़ता गया तो तब नेहरू ने वॉशिंगटन डीसी को एक एसओएस भेजा। चीन पूरी तरह से समतल इलाक़े में पहुंच गया था।''
 
आख़िर वक़्त में नेहरू ने मांगी मदद
उन्होंने कहा कि नेहरू के इस अनुरोध पर अमरीका ने भारत को मदद करने का फ़ैसला किया। महापात्रा कहते, ''जब अमरीका का सपोर्ट पहुंचा उसके पहले ही चीन ने अपना क़दम पीछे खींच लिया। ऐसे में अमरीका के लिए कुछ बाक़ी नहीं रह गया था।''
 
आख़िर अमेरिका को फ़ैसला लेने में देरी क्यों हुई?
2003 में कैनेडी सेंटर में सीनियर फेलो रहे कर्नल अनिल अठाले ने 2012 में रेडिफ़ से कहा था, ''संयोग से उसी वक़्त क्यूबा मिसाइल संकट भी शुरू हुआ था। दुनिया की दो महाशक्तियां सोवियत यूनियन और अमेरिका क्यूबा में थीं। ऐसे में वर्ल्ड मीडिया ने भारत चीन युद्ध को बिल्कुल उपेक्षित कर दिया था। आज की तारीख़ में हम देखते हैं तो पता चलता है कि भारत-चीन युद्ध का प्रभाव ज़्यादा है और क्यूबा मिसाइल संकट शैक्षणिक संस्थानों के लिए अहमियत ज़्यादा रखता है।''
 
महापात्रा कहते हैं, ''15 दिनों के युद्ध में अमेरिका के पहुचंते ही चीन पीछे हट गया था। अमेरिका को यह भी डर था कि भारत पर चीनी हमले के वक़्त ही पाकिस्तान भी हमला ना कर दे। ऐसे में अमेरिका ने पाकिस्तान को समझाने की कोशिश की थी कि चीन कम्युनिस्ट देश है ऐसे में वह अपने विस्तार में उसे भी चपेट में ले सकता है। हालांकि अमेरिका के इस तर्क को पाकिस्तान समझने को तैयार नहीं था। तब उसने कश्मीर पर अमेरिका से पक्ष लेने की मांग की थी।''
 
क्यूबा मिसाइल संकट ज़्यादा अहम
कई विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका के लिए उस वक़्त क्यूबा संकट ज़्यादा महत्वपूर्ण था। क्यूबा अमेरिका के फ्लोरिडा से महज 89 किलोमीटर दूर है और वहां सोवियत संघ ने मिसाइल तैनात कर दी थी। ऐसे में अमेरिका का पूरा ध्यान उस तरफ़ ही था। तब भारत अमेरिका का कोई सहयोगी भी नहीं था। नेहरू तब भारत को गुटनिरपेक्ष आंदोलन के साथ लेकर चल रहे थे।
 
जेएनयू के चीनी स्टडीज सेंटर में प्रोफ़ेसर हेमंत अदलखा कहते हैं कि ये नेहरू की नीति को बड़ा झटका लगा था क्योंकि भारत के समर्थन में गुटनिरपेक्ष का भी कोई देश सामने नहीं आया था। उस वक़्त भारत को सोवियत संघ ने भी अकेला छोड़ दिया था। हेमंत अदलखा कहते हैं कि भले अमेरिकी मदद से पहले चीन ने क़दम पीछे खींच लिया, लेकिन अमेरिका सामने नहीं आता तो चीन और आगे बढ़ सकता था।
 
नेहरू की नीति पर सवाल?
प्रोफ़ेसर महापात्रा कहते हैं कि नेहरू अपनी गुटनिरपेक्ष की नीति की वजह से अमेरिका से मदद मांगने में भी संकोच कर रहे थे, लेकिन जब चीन असम तक पहुंच गया तो उनके पास कोई विकल्प नहीं था। तब नेहरू ने ये फ़ैसला किया कि राष्ट्रीय सुरक्षा ज़्यादा मायने रखती है और अंतरराष्ट्रीय नीति बाद में देखी जाएगी।
 
उस मुश्किल दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की भारतीय जनमानस में जगह बन गई थी। भारतीयों को उस वक़्त लगा था मुश्किल वक़्त में कैनेडी ने ही साथ दिया। महापात्रा कहते हैं, ''कैनेडी मदद करने के लिए उतावले हो रहे थे जबकि भारत ने तत्काल मदद नहीं मांगी थी। उस वक़्त कैनेडी भारत में काफ़ी लोकप्रिय हो गए थे।''
 
क्या चीन ने जानबूझकर भारत पर हमले का वह वक़्त चुना जब क्यूबा मिसाइल संकट चल रहा था। इस पर महापात्रा कहते हैं कि यह संभव है क्योंकि चीन कम्युनिस्ट देश था और सोवियत यूनियन भी वही था। भारत पर हमले के दो साल बाद ही चीन ने 1964 में परमाणु परीक्षण किया था। महापात्रा कहते हैं इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत 1962 से बहुत आगे निकल चुका है और अभी कोई क्यूबा मिसाइल संकट भी नहीं है।
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