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पूजा स्थल पर क्यों करते हैं कलश स्थापना, जानिए रहस्य

पूजा स्थल पर क्यों करते हैं कलश स्थापना, जानिए रहस्य - religious importance of Kalash
हिन्दू धर्म में कलश-पूजन का अपना विशेष महत्व है। विशेष मांगलिक कार्यों के शुभारंभ पर जैसे गृह प्रवेश के समय, व्यापार में नए खातों के आरंभ के समय, नववर्षारंभ के समय, दीपावली के पूजन के समय, नवरात्र में दुर्गा पूजा के समय, किसी भी अनुष्ठान, पूजा आदि के अवसर पर कलश स्थापना की जाती है। किसी भी पूजन आदि से पहले कलश की स्थापना अवश्य की जाती है।

परंपरा के अनुसार लोग पुरोहित के कहने पर कलश की स्थापना कर देते हैं। क्या आपने कभी इस विषय में सोचा है कि कलश स्थापना क्यों की जाती है? आइए आपको कलश स्थापना के मर्म-रहस्य से अवगत करा दें।
 
कलश विश्व ब्रह्मांड का, विराट ब्रह्म का, भू-पिंड (ग्लोब) का प्रतीक है। इसे शांति और सृजन का संदेशवाहक कहा जाता है। संपूर्ण देवता कलशरूपी पिंड या ब्रह्मांड में व्यष्टि या समष्टि में एकसाथ समाए हुए हैं। वे एक हैं तथा एक ही शक्ति से सुसं‍बंधित हैं। बहुदेववाद वस्तुत: एक देववाद का ही एक रूप है। एक माध्यम में, एक ही केंद्र में समस्त देवताओं को देखने के लिए कलश की स्थापना की जाती है। कलश को सभी देव शक्तियों, तीर्थों आदि का संयुक्त प्रतीक मानकर उसे स्थापित एवं पूजित किया जाता है। वेदोक्त मंत्र के अनुसार कलश के मुख में विष्णु का निवास है, उसके कंठ में रुद्र तथा मूूल में ब्रह्मा स्थित हैं।

कलश के मध्य में सभी मातृशक्तियां निवास करती हैं। कलश में समस्त सागर, सप्तद्वीपों सहित पृथ्वी, गायत्री, सावित्री, शांतिकारक तत्व, चारों वेद, सभी देव, आदित्य देव, विश्वदेव, सभी पितृदेव एकसाथ निवास करते हैं। कलश की पूजा मात्र से एकसाथ सभी प्रसन्न होकर यज्ञ कर्म को सुचारुरूपेण संचालित करने की शक्ति प्रदान करते हैं और निर्विघ्नतया यज्ञ कर्म को समाप्त करवाकर प्रसन्नतापूर्वक आशीर्वाद देते हैं।


कलश में पवित्र जल भरा रहता है। इसका मूल भाव यह है कि हमारा मन भी जल की तरह शीतल, स्वच्‍छ एवं निर्मल बना रहे। हमारे शरीररूपी पात्र हमेशा श्रद्धा, संवेदना, तरलता एवं सरलता से लबालब भरे रहें। इसमें क्रोध, मोह, ईर्ष्या, घृणा आदि की कुत्सित भावनाएं पनपने न पाएं। अगर पनपें भी तो जल की शीतलता से शांत होकर घुलकर निकल जाएं।

कलश के ऊपर आम्रपत्र होता है जिसके ऊपर मिट्टी के पात्र में केसर से रंगा हुआ अक्षत (चावल) रहता है जिसका भाव यह होता है कि परमात्मा यहां अवतरित होकर हम अक्षत अथवा अविनाशी आत्माओं एवं पंचतत्व की प्रकृति को शुद्ध करें। दिव्यज्ञान को धारण करने वाली आत्मा आम्रपत्र (पल्लव) के समान हमेशा हरियाली (सुखमय) युक्त रहे।
कलश में डाला जाने वाला दूर्वा-कुश, सुपारी, पुष्प इस भावना को दर्शाती है कि हमारी पात्रता में दूर्वा (दूब) के समान जीवनी-शक्ति, कुश जैसी प्रखरता, सुपारी के समान गुणयुक्त स्थिरता, फूल जैसा उल्लास एवं द्रव्य के समान सर्वग्राही गुण समाहित हो जाए।
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