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Written By ND

धापूबाई 115 की और बेटा 95 का

विश्व वृद्धावस्था दिवस पर विशेष

धापूबाई 115 की और बेटा 95 का -
- प्रेमचंद द्विती

ND
मध्यप्रदेश के बड़नगर तहसील के ग्राम बालोदा लक्खा की श्रीमती धापूबाई जीवन के 115 वर्ष पूरे कर चुकी हैं। उनका कुनबा सैकड़े के करीब है। श्रीमती धापूबाई के चेहरे की झुर्रियों के बीच से झाँकती मुस्कुराहट में उनका आत्मविश्वास झलकता है। इस उम्र में भी उनके दोनों कान तो अभी भी बराबर साथ दे रहे हैं, किन्तु आँखों ने धुँधला देखना शुरू कर दिया है। कुछ नए दाँत ऊग आए हैं। उनकी दीर्घायु का राज है नियमित दिनचर्या।

वैष्णव बैरागी समाज की श्रीमती धापूबाई के पति श्री कुशालदास ने 40 बरस पहले ही उनका साथ छोड़ दिया था। उनकी दीर्घायु ने उन्हें पाँचवी पीढ़ी के साथ समय बिताने का अवसर दिया है। उनके तीन पुत्रों में सबसे बड़े ठाकुरदास की आयु 95 वर्ष है, जबकि सालगराम 90 वर्ष व कृष्णदास करीब 70 वर्ष के हो चुके हैं। एक बहन 75 वर्ष की आयु में स्वर्ग सिधारीं।

ठाकुरदास के तीन बेटे और दो बेटियाँ हैं। मझले बेटे सालगराम के 6 बेटे और 2 बेटियाँ हैं। सबसे छोटे कृष्णदास के परिवार में दो बेटे और एक बेटी है। ठाकुरदास के तीन बेटों में बड़े गोपालदास के दो बेटे और चार बेटियाँ हैं। दूसरे बेटे राजाराम के पाँच बेटे हैं और तीसरे बेटे मनोहर के तीन बेटे हैं। सालगराम के 6 पुत्र व 2 पुत्रियाँ हैं। इनमें से चार की संतानों में 6 लड़के और 1 लड़की है। तीसरे बेटे कृष्णदास को भी दो पुत्र और एक पुत्री है। इन भाइयों की लड़कियों की बेटियों के बच्चों के भी विवाह हो चुके हैं। इस तरह श्रीमती धापूबाई के कुनबे में सौ के करीब सदस्य हैं।
मध्यप्रदेश के बड़नगर तहसील के ग्राम बालोदा लक्खा की श्रीमती धापूबाई जीवन के 115 वर्ष पूरे कर चुकी हैं। उनका कुनबा सैकड़े के करीब है। श्रीमती धापूबाई के चेहरे की झुर्रियों के बीच से झाँकती मुस्कुराहट में उनका आत्मविश्वास झलकता है।


खुद निपटाती हैं अपने काम
श्रीमती धापूबाई ने बताया कि अब उन्हें धुँधला दिखाई देता है। परिचितों को पहचान कर राम-राम कहना वे नहीं भूलतीं। अपने दैनंदिन के कार्य वे स्वयं निपटा लेती हैं। अब उनके नए दाँत भी आ रहे हैं। किंतु भगवान का पूजन करना वे नहीं भूलतीं।

सूखा व कालाबुखार याद
धापूबाई को वर्ष 1956 का सूखा और कालाबुखार का दौर अब भी याद है। घोड़ा दाँत जैसी मक्का अँगरेजों द्वारा अकाल के दौरान खिलाने की भयावह त्रासदी भी वे नहीं भूली हैं।

रास नहीं आई गाँव की हव
खेती करने वाले उनके बेटे उनके साथ ही रहते हैं। जबकि पाँचवी पीढ़ी के बच्चों को गाँव की हवा रास नहीं आती और वे अभिभावकों के साथ शहरों में रहे हैं। परिवार में विवाह जैसे अवसरों पर सभी एकत्र होते हैं और सभी उन्हें पूरा सम्मान भी देते हैं।