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Written By WD

टेक्नोलॉजी उपयोग करें, तो समझें भी

टेक्नोलॉजी उपयोग करें, तो समझें भी -
- ज्योति जै

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दृश्य एक-
पिछले दिनों एक सुप्रसिद्ध वक्ता को स्थानीय सभागृह में सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। बड़े ही कुशल वक्ता थे व दर्शकों/श्रोताओं को बाँधे रखने का माद्दा रखते थे। उनका गंभीर, कुशल, सहज, संतुलित व बेहद प्रभावी उद्‍बोधन चल रहा था कि अचानक ही ट्रिंग...ऽऽ...ट्रिंग...ऽऽ...मोबाइल बज उठा। ये बात अलग है कि प्रारंभ में ही संचालक ने सभी से निवेदन किया था कि वे अपने सेल फोन वाइब्रेटर पर कर लें।

खैर...आवाज की दिशा में सारे सिर घूमे, मोबाइलधारी महिला ने शर्मिंदा होकर जल्दी-जल्दी या यूँ कहें, हड़बड़ाकर बैग से मोबाइल निकाला और बंद कर दिया। ऐसा 3-4 मर्तबा हुआ। कुछ देर बाद फिर कहीं से 'शिर्डी वाले साँई बाबा...' की ट्यून बजने लगी। वो बंद हुआ तो तीसरे किसी कोने से 'तू मेरी अधूरी प्यास-प्यास...' शुरू हो गया।

चौथी जगह से बलजिंदर सिंह की बाँसुरी वाली ट्यून बजने लगी। हर ट्यून पर सबके सिर घूमते, अजीब से भाव चेहरे व आँखों में भी नजर आते। और सबसे ज्यादा दुःख व आश्चर्य की बात ये थी कि वे सारे फोन स्त्रियों के पास थे।

दृश्य दो-
मैं डॉक्टर के क्लीनिक पर थी। दो महिलाएँ स्कूटी पर आईं। डॉक्टर को दिखाकर जब जाने लगीं तो स्कूटी स्टार्ट नहीं हुई। सेल्फ से चालू नहीं हुई तो किक पर किक बारी-बारी से दोनों लगाए जा रही थीं, पर गाड़ी स्टार्ट नहीं हुई। दोनों चिंतित हो वार्तालाप कर रहीं थी कि-घर से तो अच्छी भली लाए, पता नहीं क्या हुआ? तब तक मैं फ्री हो गई और मदद की गरज से पूछा कि वे कहाँ रहती हैं। उन्होंने पास ही का पता बताया।

मैंने कहा- मैं छोड़ देती हूँ, फिर आप गाड़ी बाद में ले जाइए और जैसे ही मैं नीचे उतरी और स्कूटी की ओर निगाह डाली तो पाया कि पेट्रोल 'ऑफ' था। जाहिर है गाड़ी थोड़ी सी दूर तो आ गई मगर वहाँ बंद हो गई। जब पेट्रोल 'ऑन' करके दिया तो गाड़ी स्टार्ट हो गई।

ये दो दृश्य सिर्फ उदाहरण मात्र हैं कि मोबाइल व मोपेड (एक्टिवा, स्कूटी आदि) ने महिलाओं में क्रांति तो ला दी है उनकी जिंदगी में रफ्तार भी आ गई है। मगर दिक्कत ये है कि हम इस्तेमाल करने वाली चीजों के बेसिक्स नहीं सीखते।

मोबाइल का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं, मगर उसे 'वायब्रेटर' पर करना हो तो सामान्यतः महिलाएँ नहीं कर पातीं। मैं स्वयं भी यदि 'सच का सामना' करूँ तो मेरा नया-नया सेल था। एक टॉक शो के दौरान मैंने मोबाइल वायब्रेटर पर तो कर लिया पर जब स्विच ऑफ ही करने को कहा गया तो बहाना बनाकर बाहर गई और बेटी से पूछकर ही मोबाइल 'स्विच ऑफ' कर पाई। तभी तय कर लिया कि इसके सारे फंक्शन सीखकर ही रहूँगी।

असल में होता यह है कि ज्यादातर महिलाएँ (अपवाद नहीं) 'बेसिक फंडे' में यकीन नहीं रखतीं। रास्ते में गाड़ी बंद हो जाए तो इंतजार करेंगी कि कोई बेटा/भैया आ के 'किक' लगा दे। और ये बेटा-भैया फुर्ती से आ भी जाते हैं। पार्किंग में गाड़ी नहीं लग रही हो तो किसी की मदद ले ली। विषम परिस्थिति में मदद लेने में कोई बुराई भी नहीं, मगर हम कोशिश तो करें, हम प्रयास ही नहीं करते और यही वजह है कि सीख नहीं पाते।

सीखने की कोई उम्र नहीं होती। आजकल तो उम्रदराज महिलाएँ भी कम्प्यूटर पर उँगलियाँ चलाने लगी हैं, कार की स्टेयरिंग पर नाजुक कलाइयों की मजबूत पकड़ है, एक्टिवा पर हथेलियों की स्ट्रांग ग्रिप है, मोबाइल के नंबर, बटन अँगूठे के इशारे पर नाचते हैं।

सो जब आपने इन सबको थाम लिया है तो इनकी बारहखड़ी भी सीख ही लीजिए, ताकि आपको न तो भरी सभा में शर्मिंदा होना पड़े और न ही सड़क अथवा चौराहे पर। साथ ही आपने खुद सीखा हुआ है तो अपनी किसी सखी की मदद भी कर सकती हैं। चाहे वह मोबाइल का मामला हो या मोपेड का।