‘औरत हो, तुम्हे घर चलाना है, घर की बाकी सारी जिम्मेदारियाँ मेरी हैं।’ आम तौर पर ये कहानी हर घर की होती है और लगभग सभी पुरुष में धारणा होती है कि स्त्री के लिए घर के काम करना; खाना बनाना, बच्चे संभालना, मेहमान का स्वागत, घर की साफ-सफाई वगैरह-वगैरह, काम हैं। यदि वह कामकाजी महिला है तो भी इन कामों को निपटाना उसका परम दायित्व है। चाहे कुछ भी हो पॉवर ऑफ एटॉर्नी पुरुष के हाथ में होगा।
घर में पिता मौजूद हो तो टी.वी. का रिमोट उसके हाथ में होगा, अगर वो नहीं हो तो सबसे बड़े लड़के के हाथ में - चाहे क्यों न बड़ी बहन या फिर माँ ही मौजूद हो। दूसरी ओर स्त्रियों में भी ऐसी ही धारणा है कि घरेलू महिलाएँ तो बेकार के काम करती हैं। उनके इन कामों का कोई महत्व नहीं है। कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ने के साथ ही इन सभी घरेलू काम और इन्हें करने वाली महिलाओं के प्रति दोयम व्यवहार का दायरा बढ़ा है।
काफी पहले की बात है। मेरे भईया और भाभी दोनों नौकरी करते हैं। इस दौरान गर्मी की छुट्टियों में मैं उनके पास गुड़गाँव गया था। मेरे आने से भईया-भाभी अक्सर जल्दी घर आ जाते थे। घर के सभी काम बाई करती थी। जैसा कि हमेशा होता है - घर में मेहमान (मुझे) देखकर बाई ने काम पर आना कम कर दिया।
शनिवार का दिन था। बाई नहीं आई थी। भईया पहले घर आ गए थे। भाभी के बैंक के ऑनलाइन सर्वर में मुंबई से कोई प्रॉब्लम आ गया और उन्हें देर तक रुकना पड़ा। इधर देर होता देख भईया ने फौरन किचेन संभाला और डिनर की तैयारी करने लगे। यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन भईया ने जैसे ही बर्तन धुलना शुरू किए, मुझसे नहीं रहा गया। मैंने आश्चर्य से पूछा- ‘ये क्या कर रहे हो ?
काफी पहले की बात है। मेरे भईया और भाभी दोनों नौकरी करते हैं। इस दौरान गर्मी की छुट्टियों में मैं उनके पास गुड़गाँव गया था। मेरे आने से भईया-भाभी अक्सर जल्दी घर आ जाते थे। घर के सभी काम बाई करती थी।
‘क्यों, ये काम नहीं है ? ’, भईया ने मुस्कुराते हुए कहा।
बात मेरी समझ में आ गई। भईया ने थोड़े से शब्दों में बता दिया कि उन्हें हर व्यक्ति और काम का महत्व मालूम है। दरअसल भईया और भाभी एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों को एक-दूसरे के काम के साथ ही बाकी सारे कामों का महत्व मालूम है। साथ ही एक-दूसरे के लिए इज्जत भी है।
इन सब बातों के पीछे हमारी मानसिकता का महत्वपूर्ण स्थान है। जब तक हम किसी काम को महत्व नहीं देंगे, वो बडा़ नहीं हो सकता है। कोई भी काम छोटा या बडा़ नहीं होता। असल में काम तभी किया जाता है जब उसकी उपयोगिता होती है और वह जरुरी होता है।
आम धारणा की बात करें तो महिला घर में जो काम करती है अगर वही काम दूसरे से करवाया जाए तो उसे उसके बदले कीमत मिलती है। लेकिन वह सारे काम ‘अपने लिए’ करती है। क्या पुरुष ‘अपने लिए’ कुछ नहीं करता।
पुरुष अगर कमाता है तो इसके पीछे उसका ध्येय घर चलाना होता है, धन संचय या फिर जरूरतें पूरी करना होता है। दूसरी ओर घर की महिला अपने गृहणी होने का दायित्व घर वालों के भविष्य को सुनहरा बनाने के लिए करती है। इसके साथ ही वह और भी योगदान देती है तो उसका महत्व और भी बढ़ जाता है।
जिस घर की माँ पढी़-लिखी और संस्कारित होती है, उस घर के बच्चे भी उच्च कोटि के होते हैं। यह बात सदियों से मानी जाती रही है और आज भी सच है। आज भी घरों को सवाँरने और बच्चों का भविष्य बनाने में माँ की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। माँ के भावनात्मक संबल से ही बच्चे अपने को मजबूत बनाते हैं और किसी भी परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार रहते हैं। तो घरेलू महिलाओं के योगदान को किस तरह नकारा जा सकता है।
मौजूदा भौतिकतावादी दौरा में इस बात का भी महत्व बढा़ है कि महिलाएँ घर से बाहर निकलें और अपना अस्तित्व बनाएँ। इस लिहाज से आधुनिक परिवेश में घरेलू काम के महत्व को भी नहीं नकारा जा सकता है। लेकिन यह बात उससे भी महत्वपूर्ण है कि घर-परिवार को सँवारने में पत्नी के साथ ही पति का भी उतना दायित्व है।
दोनों के परस्पर सहयोग और नवनिर्माण की भावना के कारण ही उन्नति के साथ ही नए दौरा का सामना किया जा सकता है। ये बात घर और नौकरी दोनों के लिए लागू होती है। अगर बात पर गौर किया जाए तो समझ में आता है कि एक ओर एक दो ही नहीं बल्कि ग्यारह भी होता है।