गुरुवार, 18 अप्रैल 2024
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Written By WD

कहाँ है बच्चों का बचपन?

कहाँ है बच्चों का बचपन? -
NDND
क्या ज्यादा मूल्यवान है- बर्गर या परमल, गुड़ और मूँगफली दाने से बने वो अनगढ़-से लड्डू? बचपन तो वही है, परिस्थितियाँ बदल गई हैं। अब गरमी या बड़े दिन की छुट्टियाँ भर दुपहरी में कुलाँचे भरने नहीं बल्कि हॉबी क्लास ज्वॉइन करने में गुजर जाती हैं। अष्टचंग-पे की जगह अब हिंसक वीडियो व कम्प्यूटर गेम्स ने ले ली है। वो भी शाही बचपन ही था जब कभी चवन्नी पास हो या रंगीन चॉक मिलने पर हम अपने आपको राजा से कम नहीं समझते थे और सुविधाओं से भरा, नाजो पला ये बचपन तामझाम के लिहाज से शाही है। फिर भी पता नहीं, क्यों उस मिट्टी की सौंधी महक के बचपन के आगे इस बचपन की खुशबू दब-सी जाती है।

आज घर-घर में एक या दो ही बच्चे होते हैं और वे तमाम सुख-सुविधाओं में पल रहे हैं। माता-पिता प्रेम, पैसा लुटाकर उनकी हर जरूरत पूरी करने में जुटे हैं। यहाँ तक कि उनका भविष्य भी 'सिक्योर' (सुरक्षित) करने की जिम्मेदारी समझते हुए अपना वर्तमान दाँव पर लगाए हैं। उनके खाने-पीने की हर इच्छा, आकर्षक खिलौने, रंग-बिरंगे महँगे कपड़े, नरम बिस्तर सब कुछ उनके एक इशारे पर उपलब्ध हैं। उन्हें अच्छे से अच्छे स्कूल में प्रवेश दिलाने के लिए माता-पिता अपनी हैसियत के अनुसार पैसा, पहचान व प्रभाव सभी कुछ प्रयोग में लाते हैं, स्वतः 'इंटरव्यू' के लिए तक तैयार होते हैं।

उन्हें लाने-ले जाने के लिए आरामदेह गाड़ियाँ या बसें होती हैं। स्कूल यूनिफार्म भी तीन प्रकार की, जूते-मोजे तीन प्रकार के, कई सुंदर किताबें, कॉपियाँ सबकी पूर्ति पलक झपकते ही हो रही है। इसके अलावा उनके सर्वांगीण विकासके लिए महँगे खेल, विशेष मार्गदर्शन के लिए तीन या पाँच वर्ष की उम्र से ही विशेष संस्थाओं में अलग से प्रवेश दिलाया जाता है। इसके अलावा बर्थ डे पार्टीज, पिकनिक, वीकएंड पर हॉटलिंग, कभी जू तो, कभी वॉटर पार्क की सैर, हाथ में घड़ी, मोबाइल व घूमने के लिए टूव्हीलर या बाइक सब कुछ सहज प्राप्त। इन बच्चों को घर का कोई काम करने को कभी कहा नहीं जाता।

वे जो तय करें वही मैन्यू बनता है। उनकी पढ़ाई माता-पिता की ही जिम्मेदारी है, वे ही स्कूल जाकर उनकी कमजोरियों का पता लगाते हैं। उनकी पसंद-नापसंद का अत्यधिक खयाल रखा जाता है। छोटे या बड़े घर, मध्यमवर्गीय, उच्चमध्यम वर्गीय या उच्च वर्गीय परिवारों में अधिकांशतः उनका अलग बैडरूम होता है, खिलौनों या कम्प्यूटर, म्यूजिक सिस्टम, टीवी, फोन इत्यादि से सुसज्जित।

स्कूल में भी घर जैसी ही सुख-सुविधाएँ उन्हें उपलब्ध हैं। मार या सजा का प्रावधान हट चुका है। बड़े-बड़े हवादार कमरे, बड़े-बड़े खेल के मैदान, उत्तम बैठक व्यवस्था, अच्छी लाइब्रेरी, बढ़िया डाइनिंग हॉल, पौष्टिक आहार, लाने-ले जाने के लिए आरामदेह वाहन (स्टॉप दूर हो तो घर से स्टॉप तक कार), सांस्कृतिक कार्यक्रम, विभिन्ना स्पर्धाएँ, विभिन्ना 'डेज' का सेलिब्रेशन फिर भी शिकायत कि 'बस्ते के बोझ से बेजार है बचपन'।

इस सबमें भी थोड़ी-सी तकलीफ है परीक्षा, जिसे सरलतम करने की योजनाएँ आए दिन लागू होती हैं। कभी परीक्षा हटाकर तो कभी ग्रेड देकर। इन सबके अलावा वर्तमान की ये 'भाग्यवान' अमीर व इकलौती संतानें सतत तनाव में जीती हैं। उन्हें बचपन से ही कुछ बनने की चिंता है। उन्हें न भी हो तो उनके माता-पिता को उन्हें वह बनाना है जो स्वयं नहीं बन सके। अतः बच्चों पर इन तथाकथित सुख-सुविधाओं के साथ तनाव अनजाने ही लादा जाता है। दसवीं में प्रवेश करते ही उससे सारे जग से रिश्ता तुड़वाने के प्रयास प्रारंभ कर लिए जाते हैं।

रिश्ते-नाते नहीं, दोस्त नहीं, मन भर खेल नहीं, और तो और भरपूर नैसर्गिक नींद को भी तरसने लगते हैं ये बच्चे। अतः कई बार दुःखी, उदास, अतृप्त, चिड़चिड़े व सबसे नाराज दिखाई देते हैं। बारहवीं का वर्ष तो 'अतिदक्षता' वर्ष घोषित हो जाता है। दिनभर स्कूल, क्लास, घर आकर स्कूल का होमवर्क। इन सबमें बचपन, बचपना, चंचलता, स्वातंत्र्य, इच्छा, मस्ती सब कुछ दफन हो जाता है। 'बोर' होना उनकी प्रवृत्ति हो जाती है। सब कुछ हासिल होना या करना ही जीनव का उद्देश्य बन जाता है। फिर जीवन में हार स्वीकारना, असफलता, अपयश का कटु सत्य स्वीकारना अत्यंत कठिन हो जाता है।

ऐसे में बार-बार मन में प्रश्न उठता है कि क्या सर्व सुविधायुक्त होने पर भी आज का बचपन सुखी है या हमारा अभावग्रस्त, घर के काम की जिम्मेदारी समझने वाला, बिना खिलौनों का, रेडियो पर बिनाका या रविवार को फिल्म की कहानी सुनकर खुश होने वाला, दो यूनिफार्म व एक जोड़ी जूते बरसों चलाने में गर्व महसूस करने वाला, बड़े भाई या बहन के कपड़े मिलने पर प्रसन्न होने वाला, आइसक्रीम या कुल्फी मिलने पर आनंदित होने वाला, कचोरी-समोसा खा संतुष्ट होने वाला, गणेशोत्सव या दुर्गोत्सव में रात दस बजे तक बाहर घूमने की स्वतंत्रता पा रोमांचित होने वाला, रोटी की बजाय पराठे मिलने पर माँ का एहसान मानने वाला, त्योहारों पर बने श्रीखंड, पूरणपोली, चिरोटी, चकली, सेंव इत्यादि में तृप्तियुक्त स्वाद का मजा चखने वाला व जन्मदिन वाले दिन अधिक से अधिक माँ का प्यारभरा स्पर्श (बिना डाँट खाए) व पिता का आशीर्वाद पा धन्य-धन्य होने वाला, हर छोटी-बड़ी बात पर माता-पिता की झिड़कियाँ मौन होकर नीची गर्दन करके सुनते हुए भी उनके प्रति अगाध स्नेह-प्रेम के साथ उनका आजीवन ऋणी रहने के संस्कारों वाला बचपन अधिक समाधानी व सुखी था

रिश्तों की महक से महकता, अभावों में भी जीने की खुशियों को ढूँढते, हार-जीत, जय-पराजय, सफलता-असफलता को समभाव से स्वीकारने की कला में पारंगत हो जो मिल गया उसी में सुखी होने का नाम जिंदगी है, यही तो सीखा है हमने अपने नैसर्गिक बचपन से। काश नई पीढ़ी को भी वह नैसर्गिक बचपन नसीब हो।