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Written By ND

अमरबेल नहीं बरगद रोपिए

अमरबेल नहीं बरगद रोपिए -
- बकुला पारे
ND
किसी की मदद करना कतई बुरा नहीं, लेकिन किसी सक्षम व्यक्ति को बेवजह सुविधाओं या मदद पर आश्रित कर देना गलत है। उनकी सक्षमता को कार्यरूप में परिणित कर न केवल सार्थक मदद दी जा सकती है बल्कि एक व्यक्ति को हौसला देकर भविष्य में किसी पर निर्भर न रहने की सीख भी दी जा सकती है

अमरबेल एक पौधा, जो कि वनस्पति विज्ञान में ‘कुस्कुट’ के नाम से जाना जाता है, परजीवी होता है। क्लोरोफिल न होने से यह पौधा स्वयं अपना भोजन नहीं बना पाता, इस कारण से वह बेल के रूप में अन्य पौधों पर आश्रित रहकर उनका भोजन छीनता है। ठीक इसी तरह हमारे जीवन में भी कुछ संदर्भों में हम दूसरों को अमर बेल बनाते हैं।
  आवश्यकता के समय किसी के काम आना या मदद का हाथ बढ़ा देना गलत नहीं। जरूरत चाहे छोटी हो या बड़ी यदि जायज है तो उसे पूरी करने में न हिचकिचाएँ। जरूरतमंद को सहायता करना मानवता धर्म के अंतर्गत आता है। लेकिन जरूरतमंद को सहायता स्वरूप उँगली दें, पूरा पंजा नहीं।      
वह भी उनके सामर्थ्य को नजरअंदाज करते हुए प्रयत्नपूर्वक। अगर बनाना ही है तो अमर बेल नहीं बरगद बनाइए

श्रीमान कथूरियाजी का बहुत बड़ा व्यापार है। आपकी माताजी धर्म परायण स्वभाव की हैं। वे प्रति सप्ताह तीन निश्चित दिनों में संबंधित मंदिरों के बाहर बैठे भिक्षुओं को दान दिया करती हैं। भिक्षुक भी उनकी राह देखते बैठे रहते हैं। एक बार ड्रायवर के छुट्टी पर होने से बहू सलोनी उन्हें मंदिर ले गई।
उसने सब देखा एवं कतार में बैठे भिक्षुओं से पूछा-'कौन काम करना चाहता है?' 15 से 10 लोग सक्षम दिख रहे थे, इसके बावजूद सिर्फ 2 ही आगे आए। सलोनी ने अपने ससुरजी से कहकर उन्हें काम पर लगवाया। अब वे स्वावलंबी बनकर अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं

कंचनजी की आर्थिक क्षमता बेटी के ससुराल से अधिक है। इस बात से दुःखी बेटी को वे हमेशा कुछ न कुछ पहुँचाती रहती हैं। इस बात को स्वाभिमानी जवाई ने समझा। अपने ऑफिस में एक पद रिक्त होने पर उन्होंने पत्नी के लिए कोशिश कर उसे नौकरी पर लगवा दिया। स्वयं की मेहनत पर तनख्वाह पाने पर पत्नी भी स्वावलंबी का अर्थ समझी। आज वे बगैर मायके की सहायता से अपना परिवार चला रहे हैं।

दौलतरामजी ने अपनी इकलौती पुत्री को बड़े लाड़-प्यार से पाला है। वे अपनी प्यारी बेटी को दहेज में सब कुछ देना चाहते हैं। इस पर बेटी का ध्यान पढ़ाई में नहीं लग पाता है। वह बस सहेलियों के साथ मौज-मस्ती में व्यस्त है।
लेकिन दौलतरामजी की पत्नी सीतादेवी काफी समझदार महिला हैं। वे उसे एक कार्यक्रम में ले गईं, जहाँ पर विशेष पद पर आसीन महिलाओं का सम्मान किया जाना था। घर आकर पढ़ाई के महत्व को भी समझाया। इस समझाइश का असर उस पर हुआ। वह कुशाग्र तो थी ही, आज अच्छे पद पर काम कर रही है। वह अब स्वाभिमान से पिता से कहती है- 'मुझे दहेज नहीं चाहिए, मैं अपने पैरों पर खड़ी हूँ।'

आवश्यकता के समय किसी के काम आना या मदद का हाथ बढ़ा देना गलत नहीं। जरूरत चाहे छोटी हो या बड़ी यदि जायज है तो उसे पूरी करने में न हिचकिचाएँ। जरूरतमंद को सहायता करना मानवता धर्म के अंतर्गत आता है। लेकिन जरूरतमंद को सहायता स्वरूप उँगली दें, पूरा पंजा नहीं, ताकि आप किसी व्यक्तित्व निर्माण में सही साबित हों एवं अमर बेल को बरगद बनाने में सक्षम हों।