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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

धर्म की शरण में रहना क्यों जरूरी?

धर्म की शरण में रहना क्यों जरूरी? - Hinduism
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'...जो सांसारिक इच्छाओं के गुलाम हैं उन्होंने अपने लिए ईश्वर के अतिरिक्त झूठे उपास्य बना लिए हैं...।- श्रीकृष्ण (भगवद गीता 7:20)

वेदों में ब्रह्म को ही सत्य और प्रार्थनीय माना गया है। भगवान कृष्ण गीता के माध्यम से उसी ब्रह्म (परमेश्वर) की उपासना की बात कहते हैं। जो व्यक्ति अपने सांसारिक लाभ के लिए ईश्वर को छोड़कर हर किसी को ईश्वर या भगवान मानने लगता है अंतकाल में पछताता है। विष्णु, शिव, राम, कृष्ण और बुद्ध ईश्‍वर नहीं हैं, लेकिन वे सभी ईश्वरदूत और ईश्वरतुल्य हैं। उन्हें छोड़कर अन्य में मन रमाने वालों का ईश्‍वर ही रक्षक हो सकता है।

वर्तमान में हिन्दुओं ने मनमाने मंदिरों का निर्माण कर लिया है। राम और कृष्ण को छोड़कर झूठे देवी और देवता बना लिए हैं। कईयों ने तो अपने गुरु और प्रसिद्ध संतों के मंदिर बनाकर उन्हें पूजना शुरू कर दिया है और हद तो तब हो जाती है जबकि लोगों ने अमिताभ बच्चन, रजनीकांत, जयललिता जैसे लोगों के मंदिर भी बना लिए हैं। यह निश्चित ही हिन्दू धर्म और देवी देवताओं का घोर अपमान ही माना जाएगा।

कर्म की किताब रखो साफ

शास्त्रों में जो मना किया गया है उसे करना पाप और कर्म को बिगाड़ने वाला माना गया है। यहां प्रस्तुत हैं कुछ प्रमुख आचरण जिन्हें नहीं करना चाहिए अन्यथा आपके इस जन्म का कर्म बिगड़कर अगले जन्म का वह प्रारब्ध बनता है और इस तरह अगला जन्म इस जन्म से ज्यादा खराब होता है। इस तरह खराब से खराब की ही उत्पत्ति होती जाती है। इसे रोकने के लिए जरूरी है निषिद्ध आचरणों के बारे में जानना।

 

जीवन को व्यवस्था देने के लिए, अगले पन्ने पर

 


हिन्दू संस्कार का पालन जरूरी : हिन्दू संस्कार जीवन को व्यवस्थित और शुद्ध बनाने की एक पद्धति है। प्रथमत: बालपन में बच्चों को हिन्दू धर्म की शिक्षा देने से उनके आचरण सहित अन्य कर्मों में भी शुद्धता आने लगती है। माता-पिता का यह कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों को अच्छा भविष्य देना चाहते हैं तो बच्चों को वेद, उपनिषद और गीता का पाठ पढ़ाएं, क्योंकि आजकल के स्कूलों में आधुनिक शिक्षा के नाम पर पश्चिम के धर्म और उनके संस्कारों को थोपा जा रहा है। यदि आपको लगता है कि यह सही है तो जरा अवलोकन करें अपने आसपास के माहौल को कि इसके परिणाम क्या निकले हैं।

निम्नलिखित संस्कारों का वेदसम्मत पालन करें:- गर्भाधान, पुंसवन, सीमंत, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुण्डन, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारंभ, केशांत, समावर्तन, विवाह, विवाह की अग्नि का ग्रहण ये गर्भाधानादि 16 संस्कार कहे हैं।

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ईश्वर प्राणिधान जरूरी : मन को मजबूत बनाने के लिए ईश्वर प्राणिधान जरूरी है। ईश्वर प्राणिधान की चर्चा वेद के अलावा उपनिषद्, गीता और योग में भी है। यह हिन्दू धर्म का सबसे जरूर नियम और आचरण है। इसका पालन नहीं करने से जीवन भटकाव बन जाता है। इसे नहीं मानने वालों के मस्तिष्क में हमेशा द्वंद्व और दुविधा बनी रहती है। द्वंद्व और दुविधा से आत्मविश्‍वास कमजोर होता है और व्यक्ति घोर संकट में घिरने लगता है। सफलताओं से भरा जीवन भी अंतत: अंत में असफल हो जाता है।

ईश्वर प्राणिधान का लाभ

इस नियम को जानकर नहीं मानने का परिणाम यह है कि व्यक्ति को निर्मल बाबा, आसाराम बाबू जैसे ‍बुद्धिहीन लोगों में भी विश्वास हो जाता है और वे उनके चक्कर में अपने भगवान और धर्म को त्यागकर उनके चरणों में पड़े रहते हैं। उन्हें लगता है कि इससे हमें लाभ मिला है लेकिन अंतत: आपने धर्म विरुद्ध आचरण किया है जिसका आपको बहुत बड़ा भुगतान करना होगा। यह तय मान लें कि किसी भी शास्त्र में नहीं लिखा है कि ईश्वर से बढ़कर गुरु होता है। हिम्मतवर लोगों को किसी गुरु की आवश्यकता नहीं होती। वेद कहते हैं- 'अकेले चलो, ईश्वर तुम्हारे साथ है।'

सिर्फ एक ही ईश्वर है जिसे ब्रह्म, परमेश्वर या परमात्मा कहा जाता है। ईश्वर निराकार और अजन्मा, अप्रकट है। इस ईश्वर के प्रति आस्था रखना ही ईश्वर प्राणिधान कहलाता है। इसके अलावा आप किसी अन्य में आस्था न रखें। चाहे सुख हो या घोर दु:ख, उसके प्रति अपनी आस्था को डिगाएं नहीं। इससे आपके भीतर पांचों इंद्रियों में एकजुटता आएगी और आपका आत्मविश्वास बढ़ता जाएगा जिससे लक्ष्य को भेदने की ताकत बढ़ेगी। वे लोग जो अपनी आस्था बदलते रहते हैं वे भीतर से कमजोर होते जाते हैं। यही वेदांत का सत्य है। ब्रह्म ही सत्य है।

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मंदिर जाना जरूरी : मंदिर में ईश्वर कहां है? सभी तरह के देवी और देवता हैं। सचमुच आजकल के मंदिर बदल गए हैं। वैदिक काल में पूजालय नहीं होते थे, देवालय भी नहीं होते थे। प्रारंभ में आश्रम और प्रार्थनालय होते थे, जहां ऋषि-मुनि अपने शिष्यों के साथ ब्रह्म और उनकी शक्तियों के प्रति प्रार्थना करते थे। प्रार्थनालय वक्त के साथ बदलकर शिवालय, पूजालय और देवालय में बदलते गए और आजकल तो मंदिरों में सभी तरह के देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित होने लगी हैं। इसके अलावा बाबाओं के मंदिर भी बनने लगे हैं।

संध्या वंदन है सभी का कर्तव्य

मंदिरों में अब भगवान के अलावा तथाकथित बाबाओं की मूर्तियां और चित्र भी लगने लगे हैं। फिर भी इन मंदिरों में जाकर प्रार्थना, ध्यान और वंदना की जा सकती है, क्योंकि प्रार्थना और संध्या वंदन के कार्य पूर्ण किए जा सकते हैं। पूजा को छोड़कर ध्यान और प्रार्थना को ही धर्मसम्मत मानें। आप ऐसे करेंगे तो मंदिर भी बदल जाएंगे।

संध्योपासन अर्थात संध्या वंदन। इस संध्या वंदन को कैसे और कब किया जाए, इसका अलग नियम है। संधि पांच वक्त की होती है जिसमें से प्रात: और संध्या की संधि का महत्व ज्यादा है। संध्या वंदन को छोड़कर जो मनमानी पूजा-आरती, यज्ञादि करते हैं उनका कोई धार्मिक महत्व नहीं। संध्या वंदन से सभी तरह का शुभ और लाभ प्राप्त होता है।

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पश्चाताप करो : वेद अनुसार पश्चाताप को 'ह्री' कहते हैं। ईश्‍वर के समक्ष उपस्थित होकर अपने बुरे कर्मों के प्रति पश्चाताप करना जरूरी है। वेदों के इस कॉन्सेप्ट को ईसाई धर्म में अपनाया गया है। यदि आप में पश्चाताप की भावना नहीं है तो आप अपनी बुराइयों को बढ़ा रहे हैं। आपके पाप कर्म को भी देवता देख रहे हैं और पश्चाताप को भी, यह बिलकुल सुनिश्चित मान लें। पश्‍चाताप का मतलब अपराधबोध नहीं होना चाहिए। अपराधबोध से ग्रसित रहना निषेध माना गया है।

इसका लाभ- पश्चाताप हमें अवसाद और तनाव से बचाता है तथा हम में फिर से नैतिक होने का बल पैदा करता है। मंदिर, माता-पिता या स्वयं के समक्ष खड़े होकर भूल को स्वीकारने से मन और शरीर हल्का हो जाता है।

अगले पन्ने पर... सिद्धांत श्रवण...


सिद्धांत श्रवण- इसका उल्लेख वेद और स्मृतियों में मिलता है। निरंतर वेद, उपनिषद या गीता का श्रवण करना। वेद का सार उपनिषद और उपनिषद का सार गीता है। मन एवं बुद्धि को पवित्र तथा सकारात्मक बनाने के लिए साधु-संतों एवं ज्ञानीजनों की संगत में वेदों का अध्ययन एक शक्तिशाली माध्यम है। यदि यह नहीं कर सकते हैं तो वैदिक संतों के प्रवचनों को सुनते रहना ही सिद्धांत श्रवण है।

जिस तरह शरीर के लिए पौ‍ष्टिक आहार की जरूरत होती है उसी तरह दिमाग के लिए सकारात्मक बात, किताब और दृश्य की आवश्यकता होती है। आध्यात्मिक वातावरण से हमें यह सब हासिल होता है। यदि आप इसका महत्व नहीं जानते हैं तो आपके जीवन में हमेशा नकारात्मक ही होता रहता है।

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व्रत : अति भोजन, मांस एवं नशीले पदार्थों का सेवन नहीं करना, अवैध यौन संबंध, जुए आदि से बचकर रहना- ये सामान्यत: व्रत के लिए जरूरी हैं। इसका गंभीरता से पालन करना चाहिए अन्यथा एक दिन सारी आध्यात्मिक या सांसारिक कमाई पानी में बह जाती है। यह बहुत जरूरी है कि हम एक विवाह, एक धार्मिक परंपरा के प्रति निष्ठा, शाकाहार, उपवास एवं ब्रह्मचर्य जैसे व्रतों का सख्त पालन करें।

व्रत से नैतिक बल मिलता है तो आत्मविश्वास तथा दृढ़ता बढ़ती है। जीवन में सफलता अर्जित करने के लिए व्रतवान बनना जरूरी है। व्रत से जहां शरीर स्वस्थ बना रहता है, वहीं मन और बुद्धि भी शक्तिशाली बनते हैं।

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दान : आपके पास जो कुछ भी है, वह ईश्वर और इस कुदरत की देन है। यदि आप यह समझते हैं कि यह तो मेरे प्रयासों से प्राप्त हुआ है तो आप में घमंड का संचार होगा। आपके पास जो कुछ भी है उसमें से कुछ हिस्सा सोच-समझकर दान करें। ईश्वर की देन और परिश्रम के फल के हिस्से को व्यर्थ न जाने दें। इसे आप मंदिर, धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्थाओं में दान कर सकते हैं या किसी गरीब के लिए दान करें।

सनातन हिन्दू धर्म में दान का महत्व

दान किसे करें और दान का महत्व क्या है, यह जरूर जानें। दान-पुण्य करने से मन की ग्रंथियां खुलती हैं और मन में संतोष, सुख और संतुलन का संचार होता है। मृत्युकाल में शरीर आसानी से छुट जाता है।

अगले पन्ने पर इनमें श्रद्धा रखना जरूरी है...


श्राद्धकर्म : बहुत से लोग अपने पितरों की पूजा करते हैं, जो कि अनुचित है। पितरों के प्रति श्रद्धा रखा चाहिए। पितर कभी किसी का बुरा नहीं करते। उनके प्रति लोगों में भय बिठाकर पूजा-पाठ या पितृ-शांति के उपाय प्रचलन में हैं, जो कि वेदसम्मत नहीं हैं। वेदों में इस कर्म को पितृयज्ञ कहा गया है।

।।श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छादम्।।
भावार्थ : श्राद्ध से श्रेष्ठ संतान, आयु, आरोग्य, अतुल ऐश्वर्य और इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति होती है।

पितृयज्ञ: पितरों की तृप्ति
पितरों के लिए श्राद्ध कर्म क्यों जरूरी?

पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है। तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवडा नाम से जानते हैं।

अंत में, जानिए पर्यटन के साथ तीर्थाटन...


तीर्थ करना जरूरी : हिन्दू धर्म में तीर्थ करना जरूरी माना गया है। जवानी में ही चारों धाम की यात्रा करके आएं। इससे अनुभव और ज्ञान बढ़ता है, साथ ही देश और धर्म को नजदीक से देखने को भी मिलता है। खासकर तीर्थ करने से सुख और समृद्धि दोनों आती है।

हिन्दू धर्म : तीर्थ करना है जरूरी

जो मनमाने तीर्थ और तीर्थ पर जाने के समय हैं उनकी यात्रा का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं। तीर्थ से ही वैराग्य और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। तीर्थयात्रा का समय संक्रांति के बाद माना गया है जबकि सूर्य उत्तरायण होता है। तीर्थ में सबसे प्रमुख कैलाश मानसरोवर को माना गया है। इसके बाद क्रमश: चारधाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग, शक्तिपीठ, सप्तपुरी का नंबर आता है।