गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By WD

मंगला गौरी पूजन एवं व्रत

मंगला गौरी पूजन एवं व्रत -
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यह व्रत विशेष तौर पर स्त्रियों के लिए है। यह व्रत-पूजन सावन माह के सभी मंगलवारों को किया जाता है। इस दिन गौरीजी की पूजा होती है।

यह व्रत मंगलवार को किया जाता है, इसलिए इसे मंगला गौरी व्रत कहते हैं। यह व्रत सावन माह के सोलह या बीस मंगलवारों (करीब चार-पाँच वर्ष) तक करने का विधान है।

व्रत कैसे करें
इस दिन नित्य कर्मों से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
तत्पश्चात एक पट्टे या चौकी पर लाल और सफेद कपड़ा रखें।
सफेद कपड़े पर नौ ढेरी चावल की और लाल कपड़े पर सोलह ढेरी गेहूँ की बनाएँ।
उसी पट्टे पर थोड़े से चावल रखकर गणेशजी की स्थापना करें।
पट्टे के एक अन्य कोने पर गेहूँ की एक छोटी-सी ढेरी बनाकर उस पर जल से भरा कलश रखें।
कलश में आम की एक पतली-सी शाखा भी डाल दें।
इसके बाद आटे का एक चौमुखा दीपक व सोलह धूपबत्ती जलाएँ।
अब सबसे पहले गणेशजी की व बाद में कलश की विधिवत पूजा करें।
अब एक सरवा (सकोरा) में गेहूँ का आटा रखकर, उस पर सुपारी और जो दक्षिणा रखें, उसे आटे में दबा दें।
फिर बेलपत्र चढ़ाकर पुनः कलश की पूजा करें। कलश पर सिंदूर व बेलपत्र न चढ़ाएँ।
इसके बाद चावल की जो नौ ढेरियाँ (नवग्रह) बनाई थीं, उनकी पूजा करें।
तत्पश्चात गेहूँ की सोलह ढेरियों (षोडश मातृका) की पूजा करें।
इन पर हल्दी, मेहँदी तथा सिंदूर चढ़ाएँ परंतु खाली जनेऊ न चढ़ाएँ।
इसके बाद कलावा (नाड़ा बंधन) लेकर पंडितजी के बाँधें तथा उनसे अपने हाथ में भी बँधवाएँ।


अब मंगला गौरी का पूजन करें
गौरी पूजन के लिए एक थाली में चकला रख लें।
खस पर गंगा की मिट्टी से गौरीजी की मूर्ति काढ़ लें या मूर्ति बना लें।
आटे की एक लोइ बनाकर रख लें।
पहले मंगला गौरी की मूर्ति को जल, दूध, दही, घी, चीनी, शहद आदि का पंचामृत बनाकर स्नान कराएँ।
स्नान कराकर कपड़े पहनाएँ और नथ पहनाकर रोली, चन्दन, सिंदूर, हल्दी, चावल, मेहँदी, काजल लगाकर 16 तरह के फूल चढ़ाएँ।
इसी प्रकार गौरीजी को 16 माला, 16 तरह के पत्ते, आटे के 16 लड्डू, 16 फल व 5 तरह के मेवे 16 बार चढ़ाएँ।
इसी तरह 16 बार 7 तरह के अनाज, 16 जीरा, 16 धनिया, 16 पान, 16 सुपारी, 16 लौंग, 16 इलायची, एक सुहाग की डिब्बी, एक डिब्बी में तेल, रोली, मेहँदी, काजल, हिंगुल सिंदूर, कंघा, शीशा, 16 चूड़ी व दक्षिणा चढ़ाएँ।
अंत में गौरीजी की कथा सुनें।

व्रत कथा
प्राचीन काल में सरस्वती नदी के किनारे बसी विमलापुरी के राजा चन्द्रप्रभ ने अप्सराओं के आदेशानुसार अपनी छोटी रानी विशालाक्षी से यह व्रत करवाया था। किन्तु मदान्विता महादेवी (बड़ी रानी) ने व्रत का डोरा तोड़ डाला और पूजन की निंदा की।

परिणामस्वरूप वह विक्षिप्त हो गई और आम्र, सरोवर एवं ऋषिगणों से 'गौरी कहां-गौरी कहां' पूछने लगी। अंत में गौरीजी की कृपा से ही वे पूर्व अवस्था को प्राप्त हुई और फिर व्रत करके सुखपूर्वक रहने लगी।

व्रत फल
इस व्रत के करने से माता गौरी मनचाहा वरदान देती हैं।
व्रती के सुहाग की लंबी उम्र होती है।
घर में शांति एवं खुशियाँ बनी रहती हैं।