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Written By WD

दिग्गजों को लुभाती रही है लखनऊ की विरासत

-स्मिता मिश्रा

दिग्गजों को लुभाती रही है लखनऊ की विरासत -
चुनावों का मौसम है और नवाबों का शहर लखनऊ एक बार फिर खबरों में है। इस दफा भाजपा अध्यक्ष, पूर्व मुखयमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री राजनाथसिंह लखनऊ पर निगाहें गड़ाए हैं। उनका गाजियाबाद लोकसभा छोड़कर लखनऊ से चुनाव लड़ना तय माना जा रहा है। हालांकि खुद भाजपा के नेताओं का दावा है कि देशभर और खास तौर पर उत्तरप्रदेश में, नरेंद्र मोदी की आंधी चल रही है।
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तो फिर ऐसा क्या है कि इस कथित आंधी में भी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथसिंह जिला गाजियाबाद के दबंग होने का आकर्षण छोड़कर लखनऊ के नवाब कहलाने को लालायित हो उठे हैं। यकीनन इसकी वजह जातिगत समीकरण नहीं हो सकता। क्योंकि लखनऊ का जातिगत समीकरण उनके लिए कतई मुफीद नहीं है और यह राजनाथसिंह समेत तमाम भाजपा नेता समझते हैं। लेकिन जातिगत लिहाज से अगर वह इस जोखिम को उठाने को तैयार हैं तो इसके कई कारण हैं और राजनाथ इन कारणों को खूब समझते हैं।

लखनऊ पूर्व प्रधानमंत्री और भाजपा के प्रथम पुरुष अटलबिहारी वाजपेयी की लोकसभा रही है। वाजपेयी पांच बार यहां से सासंद रहे। कला-संस्कृति, खान-पान और गंगा-जमुनी संस्कृति के लिए मशहूर इस शहर की राजनीतिक विरासत पर दावा ठोंकना हर छोटे-बडे नेता की ख्वाहिश होती है। अगर राजनाथसिंह आगामी लोकसभा में लखनऊ की नुमाइंदगी करते हैं तो वह अटलबिहारी वाजपेयी की राजनीतिक विरासत हासिल करने का दावा कर पाएंगे। भाजपा में यह दावा अपने आप में एक उपलब्धि है। राजनाथ लखनऊ शहर के हर गली-कूचे में जाकर यह आग्रह कर पाएंगे कि जिस तरह वाजपेयी का संसदीय करियर लखनऊ से जुड़ा रहा वैसे ही आज उन्हें भी यह उत्तराधिकार दिया जाए। इससे उन्हें वाजपेयी की उस स्वीकार्यता पर कम से कम आंशिक दावा करने का मौका भी मिल जाएगा जो भाजपा में सिर्फ वाजपेयी को हासिल थी।

लखनऊ लोकसभा क्षेत्र में मुसलमानों की प्रभावी संख्या हैं। कुल मुस्लिम अल्पसंखयक मतदाता 28 से 29 फीसदी तक हैं। इनमें सुन्नी के साथ-साथ शिया भी अच्छी तादाद में हैं। मतदान के पैटर्न पर गौर करें तो भाजपा के पारंपरिक वोटर न होते हुए भी शिया समाज का थोड़ा-बहुत समर्थन वाजपेयी को मिला करता था। राजनाथ को मुसलमानों के वोट की खास उम्मीद तो नहीं मगर उनका यह आकलन जरूर है कि वाजपेयी के उत्तराधिकारी के तौर पर जब वह लखनऊ के मोहल्लों में घूमेंगे तो कम से कम अल्पसंखयक समाज उस आक्रामकता से उनका विरोध नहीं करेगा, जिसकी अन्य सीटों पर आशंका रहती है।

हालांकि यहां यह इस बात की चर्चा भी जरूरी है कि मामला केवल स्वीकार्यता का नहीं है। लखनऊ यूपी की राजधानी होने के साथ-साथ अवध क्षेत्र का सबसे बडा शहर भी है। संघ और भाजपा का गणित यह है कि लखनऊ में एक बड़े नेता को खड़ा किया जाता है तो इसका प्रभाव कम से कम आसपास की कुछ सीटों व गांव-कसबों पर भी पड़ेगा और यह मकसद निवर्तमान सांसद लालजी टंडन से शायद पूरा न हो। पूरे प्रदेश में अवध क्षेत्र भाजपा की सबसे कमजोर कड़ी रही है। गणित तो यह भी है कि वाराणसी में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के चुनाव लडने से पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार की कम से कम दस लोकसभा सीटों तक इसकी हवा बन जाएगी। यानी बनारस में मोदी और लखनऊ में राजनाथ की जुगलबंदी से प्रदेश के बड़े हिस्से पर भाजपा का प्रदर्शन बेहतरीन हो पाएगा। यूं भी पश्चिम यूपी में पार्टी की स्थिति मजबूत रही है। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद इस मजबूती में इजाफे के संकेत भी हैं।

वैसे यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि अटलबिहारी वाजपेयी ही लखनऊ के एकमात्र हाई-प्रोफाइल सांसद नहीं रहे। उनसे पहले भी विजयलक्ष्मी पंडित, शीला कौल और हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे दिग्गज नवाबों के शहर का झंडा लोकसभा में बुलंद करते आए हैं। राजनाथ भी अब राजनीति के आसमान में चमकने वाले इन सितारों की सूची में अपना नाम दर्ज करना चाहते हैं। भले ही बहुत साल पहले लखनऊ की महोना विधानसभा से किसमत आजमाने पर उन्हें हार का मुंह देखना पड़ गया था।