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Written By भाषा

...तो नहीं बचेगा नदियों का नामोनिशान

हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने से पैदा हुआ खतरा

...तो नहीं बचेगा नदियों का नामोनिशान -
पूरी दुनिया में बदलते पर्यावरण से चिंतित उत्तराखंड के पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने का क्रम यदि जारी रहा तो आने वाले दिनों में हिमालय से निकलने वाली नदियों के जल प्रवाह में न केवल जबर्दस्त कमी आएगी, बल्कि अगली सदी तक नदियाँ लुप्त हो जाएँगी।

अहमदाबाद के स्पेस एप्लिकेशन सेंटर के वैज्ञानिक तथा ग्लेशियर विशेषज्ञ डॉक्टर एवी कुलकर्णी के नेतृत्व में वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के एक दल ने करीब सात वर्षों तक हिमालय के विभिन्न ग्लेशियरों की स्थिति का अध्ययन करने के बाद गत जून में केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी है। इसमें कहा गया है पिछले चार दशकों में हिमालयी राज्यों के ग्लेशियरों में जबर्दस्त कमी आई है।

पूरी दुनिया में ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद हिमालय के ग्लेशियर ही पानी के सबसे बड़े भंडार हैं। ये न केवल संपूर्ण भारत, बल्कि एशिया महाद्वीप की एक बड़ी आबादी का पोषण करते हैं। इनका संरक्षण निहायत जरूरी है।
रिपोर्ट के अनुसार केवल उत्तराखंड और हिमाचलप्रदेश की दस प्रमुख नदियों में जल आपूर्ति के प्रमुख स्रोत ग्लेशियरों का क्षेत्रफल वर्ष 1962 से वर्ष 2004 के बीच करीब 16 फीसदी कम हुआ है।

उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित विश्व प्रसिद्ध बद्रीनाथधाम के पास से निकलने वाली गंगा की प्रमुख सहायक नदी अलकनंदा के आसपास के 126 ग्लेशियरों का अध्ययन करने के बाद यह तथ्य सामने आया है कि ग्लेशियरों के क्षेत्रफल में गिरावट आई है।

कुलकर्णी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि चार दशक पहले अलकनंदा के पास के ग्लेशियरों का कुल रकबा 764 वर्ग किलोमीटर था, जो अब 96 वर्ग किलोमीटर घटकर 638 वर्ग किलोमीटर रह गया है।

इसी तरह गंगा की प्रमुख धारा भागीरथी के पास के 187 ग्लेशियरों का 1218 वर्ग किलोमीटर का दायरा अब घट कर 1074 वर्ग किलोमीटर हो गया है। पिछले 40 वर्षों में भागीरथी के 144 वर्ग किलोमीटर के ग्लेशियर पिघल गए हैं।

उत्तराखंड की धौली और गौरी गंगा नदियों की स्थिति भी खराब है। दल द्वारा गौरी गंगा के जलग्रहण क्षेत्र में 60 तथा धौली के क्षेत्र में 108 ग्लेशियर चिन्हित किए गए, जिसमें क्रमश: 16 तथा 13 फीसदी की कमी आई है।

अलकनंदा को पानी की आपूर्ति करने वाला सतोपंथ और अल्कापुरी ग्लेशियर तो असमय ही तेजी से पिघल रहा है, जिससे अलकनंदा में जल प्रवाह कभी अचानक बढ़ जाता है और कभी अचानक घट जाता है। पिछले कुछ सालों से यह अनियमितता देखी जा रही है।
इस सिलसिले में मैगसेसे पुरस्कार विजेता प्रमुख पर्यावरणविद चंडीप्रसाद भट्ट ने बताया कि हिमालय के ग्लेशियरों को लेकर समय-समय पर उन्होंने अन्य वैज्ञानिकों के साथ जो अध्ययन किया है, उसके परिणाम बहुत ही चिंताजनक हैं।

उन्होंने कहा कि हिमालय यदि कमजोर होगा तो पूरी दुनिया कमजोर होगी, इसलिए हिमालय के ग्लेशियरों के कम होने को हल्के ढंग से नहीं लिया जाना चाहिए। इसके संरक्षण के लिए एक दीर्घकालिक नीति बनाई जाना चाहिए।

उन्होंने हिमालयी नीति बनाए जाने पर जोर देते हुए कहा कि पूरी दुनिया में ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद हिमालय के ग्लेशियर ही पानी के सबसे बड़े भंडार हैं। ये न केवल संपूर्भारत, बल्कि एशिया महाद्वीप की एक बड़ी आबादी का पोषण करते हैं। इनका संरक्षण निहायत जरूरी है। इसकी निगरानी और समय-समय पर आकलन के लिए एक मजबूत तंत्र बनाया जाना चाहिए।

बद्रीनाथ के पास देश के आखिरी गाँव माणा के पूर्व प्रधान पीताम्बरसिंह मोल्फा ने बताया कि अलकनंदा को पानी की आपूर्ति करने वाला सतोपंथ और अल्कापुरी ग्लेशियर तो असमय ही तेजी से पिघल रहा है, जिससे अलकनंदा में जल प्रवाह कभी अचानक बढ़ जाता है और कभी अचानक घट जाता है। पिछले कुछ सालों से यह अनियमितता देखी जा रही है।

माणा गाँव के निवासी 75 वर्षीय जीतसिंह ने बताया कि उन्होंने 15 वर्ष की उम्र में पहली बार सतोपंथ का ग्लेशियर देखा था। उस समय सतोपंथ झील एकदम ऊपर थी और चक्रतीर्थ से मात्र आधे घन्टे में ही झील के मुहाने पर पहुँचा जा सकता था, लेकिन पिछले साल वे अपने परिवार के साथ जब सतोपंथ गए तो उन्होंने देखा कि झील लगभग पचास मीटर नीचे चली गई है। चक्रतीर्थ से झील तक सीधे जाने को कौन कहे वहाँ तो ग्लेशियर ही खत्म हो गया है। अब चक्रतीर्थ से सतोपंथ जाने में घंटों लग जाते हैं।

माणा के लोग अपने गाँव को स्वर्ग में रहने वाले देवताओं का घर मानते हैं। कई ग्रामीणों ने कहा कि सतोपंथ और अलकापुरी में वे अपने पितरों की पूजा करते हैं और तो और अस्थि विसर्जन करते हैं, लेकिन जिस गति से अलकनंदा का जल भंडार कम हो रहा है, इस नदी के अस्तित्व के लिए निहायत चिंता का विषय है, जबकि इसे स्वर्ग की गंगा भी कहा जाता है। (भाषा)