गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. »
  3. व्रत-त्योहार
  4. »
  5. मकर संक्रां‍ति
Written By ND

उठते रहें ऊपर... और ऊपर, पतंग की तरह

उठते रहें ऊपर... और ऊपर, पतंग की तरह -
- स्मृति जोशी
ND
पतंग के आकाश में पहुँचने का अर्थ होता है कि आप मैदान में आकर दो-दो हाथ करने के लिए तैयार हैं। आपकी एक पतंग है और चारों तरफ से प्रतिद्वंद्वी आ जाते हैं। पतंग को चारों तरफ से घेरा जाता है। लेकिन पेच लड़ाने का साहस कोई एक पतंग करती है। यह कबड्डी का मैदान नहीं है कि किसी एक को छूकर आप अपने पाले में आ जाएँ। यह वह मैदान है, जहाँ करो या मरो की लड़ाई लड़नी होती है या तो आपकी पतंग कटेगी या उस अगले की जो आपसे उलझा है।

पतंगें, मुक्ताकाश में उड़ती, सरसराती, लहराती, इठलाती, सुंदर, सजीली पतंगें, कई-कई रंगों की आकर्षक पतंगें क्या आपको नहीं लुभाती? रंगीन कागज का यह नन्हा सलोना आविष्कार कुछ लोगों के लिए समय की बर्बादी हो सकता है, लेकिन आशा व विश्वास, आकांक्षा व संकल्प और प्रेम व स्वप्न की भावुक पतंग हर युग के हर मानव ने उड़ाई है, उड़ा रहा है। आज भी कितने ही लोग हमारे बीच ऐसे हैं जिनकी स्मृतियों के विराट समुद्र में इस एक पतंग के बहाने बहुत कुछ आलोड़ित होता है।

कितनी ही दुर्बल अंजुरियों में वह पतंगमयी अतीत आज भी थरथराता है। कइयों ने इसे अपनी मुट्ठी में कसकर भींच रखा है। बार-बार खुलती है मुट्ठी और एक मीठी याद शब्दों में बँधकर, कपोलों पर सजकर इसी पुराने आकाश पर ऊँचा उठने के लिए बेकल हो जाती है और जब किसी ने जानने के लिए हथेली पसारी तो कहाँ संभल सकी वे स्मृतियाँ? अँगुलियों की दरारों से फिसलने लगी! सच ही है कि स्मृतियों को समेटने के लिए दामन भी बड़ा होना चाहिए।
  पतंग के आकाश में पहुँचने का अर्थ होता है कि आप मैदान में आकर दो-दो हाथ करने के लिए तैयार हैं। आपकी एक पतंग है और चारों तरफ से प्रतिद्वंद्वी आ जाते हैं। पतंग को चारों तरफ से घेरा जाता है। लेकिन पेच लड़ाने का साहस कोई एक पतंग करती है।      


एक जोड़ी चमकती बूढ़ी आँखें, खुशी से फैल जाती हैं। फिर सिकुड़ती हैं, माथे पर 'त्रिपुंड-तिलक' बनता है और यकायक जैसे आत्मीयता से लबरेज एक खिलखिलाता मोहल्ला हमारे समक्ष आकर बैठ जाता है। वो आकाश जो हमारा अपना था, वो कच्ची खपरैल या टिन की छतें, वो खनकती उन्मुक्त बयार और गगनभेदी वह अनुगूँज 'काटा है'! पतंगें तो आज भी हैं, आवाजें भी गूँज रही हैं, फिर 'वो' क्या है जो हमारी एक खास पीढ़ी को लगता है कि खो गया है। कहाँ? किस जगह? कैसे? उन्हें भी नहीं पता, लेकिन बस शिकायत है कि 'वो' नहीं है अब, जो 'तब' था। किसे फुरसत कि ढूँढे 'उसे'। पर 'वे' कहाँ कहते हैं कि तुम 'ढूँढो'? वे तो स्वयं उस कल की मिठास को ढूँढकर तुम्हें भेंट देना चाहते हैं, पर उन्हें शिकायत है कि 'वह भी' करने की उनकी स्वतंत्रता हमने बाधित कर दी है।

परत-दर-परत उठती है और सबसे पहले पतंगों के नाम बिखरते हैं, 'सिरकटी, तिरंगी, चौकड़ी, परियल, डंडियल, कानभात, आँखभात, चाँद भात, गिलासिया, चुग्गी, ढग्गा' और भी न जाने कितने अनूठे नाम। फिर दूसरी परत के उठते ही किसी सँकरी-सी गली का वह दृश्य सामने आता है जहाँ डोर 'सूती' जा रही है। कोई फ्यूज बल्बों को फोड़कर काँच पीस रहा है, कोई सरस या नीला थोथा रंग के साथ घोल रहा है। घोल तैयार होते ही किसी के हाथों में 'रील' होती है धागे की और कोई उसे घोल में डुबोकर 'चकरी' में लपेट रहा है। इस चकरी को हुचका भी पुकारा जाता है।

बिजली के दो खंभों के बीच यह डोर सुखाई जाती है और फिर लपेट ली जाती है। यह संक्रांति की पूर्व संध्या है। जीते-जागते इस मोहल्ले से फिर जानकारी मिलती है, 'बरेली की डोर सबसे अच्छी होती है। वह पतली होती है, पर मजबूत होती है।'
अब एक और जीवन संध्या के पंछी अतीत के घरौंदे की ओर अपना रुख करते हैं और हम उनके पीछे-पीछे उड़ चलते हैं। 'ये जो पतली छिली लकड़ी पतंग पर चिपकाई जाती है उसे 'काँप' कहते हैं। एक 'काँप' सीधी लंबवत लगाई जाती है और दूसरी धनुषाकार में आहिस्ता से मोड़कर। ...पतंग उड़ाने के लिए धागों से संतुलन बनाकर 'जोते' बाँधते हैं। पतंग का ऊपर आसमान से बातें करना इन्हीं जोतों पर निर्भर है।'

एक दूर का चश्मा ऊपर आकाश में उठता है और उठती है उसके पीछे की आँखें, कोई पतंग उनमें उलझकर फिर हमको टटोलती है। आँखों में उलझी वह पतंग मुस्करा उठती है, संक्रांति के दिन 'भिनसारे' (प्रातःकाल) से ही चढ़ जाते हैं और बगैर पतंग के ही जोर से चिल्लाते 'हट, काटा है'। आवाज सुनकर आसपड़ोस के नन्हे पतंगबाज आँखें मसलते हुए उठ बैठते हैं और घने कोहरे की ठिठुरती ठंड में काँपती कुनमुनाती बारीक आवाज में जवाब देते हैं 'का...टा...है'।

पहले सूर्य पूजा करते, उसके बाद पतंगों की पूजा करते, यह कहते हुए कि हमेशा हम ऊपर उठने की सोचें पतंग की तरह! पतंग उड़ाने के लिए एक छोटे बच्चे को पतंग देकर कुछ दूर भेजा जाता है उसे ऊपर हाथ उठाकर पतंग छुड़वाई जाती है, इसे 'छुट्टी' देना कहते हैं। अब पतंग को ठुनकी देकर, कभी 'सै' देकर कभी गोता लगाकर आसमान में साधा जाता है। यह एक कुशल पतंगबाज ही कर सकता है। चकरी या हुचका पकड़ने के लिए घर की बहनें, भाभी, बेटियाँ, पत्नी छत पर आती हैं।

पतंग की डोर उड़ाते समय इस तरह से पकड़ी जाती है कि अँगूठा ऊपर रहे, तर्जन सीधी रहे और मध्यमा, अनामिका व कनिष्ठा मुड़ी हुई रहे नीचे की तरफ। जब पतंग को ढील दी जाती है तो उसे 'सै' देना कहते हैं। 'सै' और 'शह' में से प्राकृत व अपभ्रंश कौनसा है इसे तय करने की जिम्मेदारी वे हम पर डाल देते हैं। पतंग की डोर दायें हाथ से खींचकर बाईं तरफ लाई जाती है, फिर बायाँ हाथ आगे बढ़ाकर उससे डोर नीचे की तरफ लाई जाती है। इस तरह पतंग को कभी उतारकर, कभी चढ़ाकर ऊपर पहुँचाया जाता है।

जब वे थमते हैं तो दूसरे पुराने साथी को अपनी इस अतीत-पतंग की डोर पकड़ा देते हैं। वे कमर सीधी कर भाषण देने की मुद्रा में आ जाते हैं। उनके चेहरे की पुलक दर्शनीय हो जाती है।

पतंग के आकाश में पहुँचने का अर्थ होता है कि आप मैदान में आकर दो-दो हाथ करने के लिए तैयार हैं। आपकी एक पतंग है और चारों तरफ से प्रतिद्वंद्वी आ जाते हैं। पतंग को चारों तरफ से घेरा जाता है। लेकिन पेंच लड़ाने का साहस कोई एक पतंग करती है। ये कबड्डी का मैदान नहीं है कि किसी एक को छूकर आप अपने पाले में आ जाएँ। ये वह मैदान है, जहाँ करो या मरो की लड़ाई लड़नी होती है या तो आपकी पतंग कटेगी या उस अगले की जो आपसे उलझा है। पेंच लड़ाना कोई आसान बात नहीं है।

शारीरिक हाव-भाव तो पतंग को संचालित करते ही हैं, मानस भी पूरी तन्मयता से उसमें लगता है और इसी एक बिंदु पर पतंगबाज में होशियारी, स्फूर्ति, तत्परता और साहस जैसे अनिवार्य गुणों का विकास होता है। यह मुकाबला इसलिए भी दिलचस्प होता है कि इसका निर्णय क्षण भर में तुरंत आसमान में हो जाता है। लंबी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। जो पतंग काटता है, वह खुशी से चिहुँक उठता है और उसके साथ-साथ छत पर खड़े सभी जन एक साथ चिल्ला उठते हैं, 'काटा है' और जिसकी पतंग कटी है वह डोर खींचते हुए देखता है अपनी पतंग को कि हवा में लहराते हुए वह कहाँ, किस दिशा में जा रही है।
कटी पतंग को लूटने के लिए बच्चे दौड़ पड़ते हैं। पतंग लूटने के लिए एक पुराने सूखे पेड़ की कँटीली डाल को लंबे बाँस से बाँधा जाता है, जिसे झाँखड़ कहते हैं। पतंग की कटी डोर उसमें उलझाने की कोशिश की जाती है। जब वे यह सब बता रहे होते हैं तब उनके हाथ पतंग उड़ाने वाली शैली में उठ जाते हैं।

यादों की परतें खुलती चली जाती हैं। उनके काँपते हाथों की उँगलियों में फिर कोई डोर रगड़ खाती है और वे मुस्कुराते हैं। जब पतंग कटकर आसमान में लहरा रही होती है तब पतंगबाज उसे अपनी कुशलता व कलाकारी से अपनी उड़ रही पतंग के धागे में लपेटकर साथ लाने का प्रयास करते हैं। बहुत से लोग सावधानीपूर्वक इसे लाने में सफल होते हैं, इसे लाड़ी लाना कहते हैं। इस लाड़ी लाने के चक्कर में कई बार इसे जो ला रहे हैं वे भी चल देते हैं और यदि आहिस्ता से इस लाड़ी को आँगन में उतार भी लिया तो उनका अपना धागा कमजोर हो जाता है, जिसे रिग्गे पड़ना कहते हैं। कई बार बचपन में जब हमारी छत पर किसी की पतंग अटकती है तो हम उसे निकालने के बहाने जाते और धीरे से अपने दाँतों से धागे को कच्चा कर देते हैं। इसे कुटकी मारना कहते हैं।

पतंग के फटने पर उसे चिपकाने की जरूरत होती है। तब गोंद, फेविकोल, सेलो टेप का प्रयोग नहीं होता था। घर पर उस दिन विशेष रूप से आलू की सब्जी और चावल पकाए जाते, साथ ही आटे की लाई भी तैयार की जाती। इसे लिग्गी लगाना कहते हैं। हम पतंगों पर शायरी भी किया करते थे, लेकिन आज की तरह सस्तापन नहीं था उनमें। अच्छी शायरी या अच्छे वाले फिल्मी गानों की तुकबंदी में पतंग के लिए या पतंगबाज के लिए कुछ लिखा जाता था।

आजकल तो गाने भी बड़े भद्दे बनते हैं और शायरी का भी लोगों ने स्तर गिरा दिया है। आजकल संक्रांति का मतलब है तेज आवाज में टेप रिकॉर्डर बजाना, पतंग के बहाने पड़ोस की लड़कियों को ताकना, और नहीं तो पतंगों पर ऊलजलूल लिखकर पड़ोसी की छत पर जान-बूझकर अटका देना। कोई बंदे तो माइक की व्यवस्था कर पतंग मैच की कमेंट्री करते हैं, पर उनका स्तर घटिया होता है।

वैसे आज भी रचनात्मक सोच वाले युवा हैं, जो पतंग को सजा-सँवारकर उड़ाते हैं। कभी कैसेट की टेप खूब लंबी चिपका देते हैं। जब ये आकाश में धूप से चमकती हुई लहराती है तो बड़ी आकर्षक लगती है। आजकल तो प्लास्टिक की पन्नी की भी पतंग बनती है। हमने एक बार धागे के साथ अगरबत्ती बाँधी और इसी के साथ एक पटाखा भी बाँधा। जब अगरबत्ती का गुल बिखरा और वह छोटी हुई तो पटाखे की बत्ती से लग गई। ऊपर आसमान में पटाखा फूटा, सबको बड़ा मजा आया।

परतें अब सारी खुल चुकी हैं, ऐसा मुझे लगा। लेकिन एक रंग-बिरंगी परत अभी शेष थी, जिसमें कई लाल, पीले, हरे, नीले, गुलाबी, कंदिल झिलमिला रहे थे। शाम होते-होते अँधेरा छाने लगता है। गर्दन, हाथ और आँखें सब थककर चूर हो जाते पर संक्रांति का उत्साह शाम तक वैसा ही कायम रहता बल्कि बढ़ जाता कंदिल उड़ाने के लिए। पहले पतंग को थोड़ी दूर तक उड़ा लिया जाता है, फिर इसमें गत्ते का बना कंदिल बाँधा जाता है। आजकल तो बाजार में मिलते हैं, हम हाथ से बनाते थे। अगरबत्ती की पीली पन्नी आसपास चिपकाकर बीच में मोमबत्ती रखते। फिर धीरे धीरे पतंग आगे बढ़ाते। आकाश में जगमगाते इन कंदिलों की छटा ही निराली होती।

आज ये पुराने शौकीन पतंगबाज जब आँखों पर हथेली की छाँव कर खुले आकाश में पतंग को निहारते हैं तो उनकी आँख में सिर्फ कोई पतंग ही नहीं उलझती बल्कि उस पतंग के साथ न जाने कितनी लंबी डोर वाली 'चकरी' घूमकर चलने लगती है अनवरत, अविराम! और एक सुनहरा रंगीन अतीत अकुलाकर बाहर आना चाहता है। लेकिन जब यथार्थ की तीखी धूप आँखों में चुभती है तो वे आँखें बंद कर लेते हैं और इस ऊपर पहुँची गगनचुंबी पतंग को उतार लेते हैं। निरीह आँखें हमसे पूछती हैं कि कहाँ हैं वे मिलन और रागात्मकता के क्षण, जब सारे मित्र मिलकर एक छत से पतंग उड़ाते थे और बहनें-बेटियाँ बेखौफ पतंगबाजी में हिस्सा लिया करती थीं? पर हम कहाँ सुनते हैं आँखों के उस मूक प्रश्न को?

हम सभी अपने स्वार्थ की पतंगों को ऊँचाई पर पहुँचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। राष्ट्र की उन्नाति की पतंग, राष्ट्र की शांति की पतंग और राष्ट्र जागृति की पतंग को शुभ्राकाश के अंतिम छोर से स्पर्शित करने के लिए हम कब प्रतिबद्ध होंगे। जिसे आगे-पीछे, दाँये-बाँयें, आस-पड़ोस की कोई 'शैतान' पतंग न काट सके और यदि कोई बेवजह उलझे तो उसे हम पूरे हौसले और हिम्मत के साथ काट दें और फिर पूरी शक्ति के साथ एक साथ जोर से यह जयघोष करें- 'काटा है'।

आशा की इस पतंग को उड़ाने की अनुमति चाहती हूँ। क्या ऐसी संक्रांति आएगी, जब पतंगों पर अभिनेत्रियों के चित्रों की बजाए राष्ट्रीय गौरव के चित्र अंकित होंगे? फैसला आपके हाथ में है कि हम पारंपरिक पर्वों को क्या स्वरूप प्रदान करते हैं, जिससे वे अपना 'भोलापन' कायम रख सकें। कहीं ऐसा न हो कि नवीन सदी के नए वर्षों में ये मीठे पर्व अपना मतलब और महत्व दोनों खो दें और हमारे पास किसी को बताने के लिए कुछ न बचे। तकनीकी समृद्धि हमें आत्मिक रूप से विपन्ना न बना सके, पर्वों पर ऐसे प्रयास किए जाएँ तो राष्ट्रहित में यह शुभ चिह्न होगा।