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Written By भाषा
Last Updated :इंदौर (भाषा) , गुरुवार, 10 जुलाई 2014 (07:15 IST)

आदिवासियों का रॉबिनहुड था टंट्या भील

आदिवासियों का रॉबिनहुड था टंट्या भील -
मध्यप्रदेश का जननायक टंट्या भील आजादी के आंदोलन के उन महान नायकों में शामिल है जिन्होंने आखिरी साँस तक फिरंगी सत्ता की ईंट से ईंट बजाने की मुहिम जारी रखी थी। टंट्या को आदिवासियों का रॉबिनहुड भी कहा जाता है क्योंकि वह अंग्रेजों की छत्रछाया में फलने फूलने वाले जमाखोरों से लूटे गए माल को भूखे-नंगे और शोषित आदिवासियों में बाँट देता था।

गुरिल्ला युद्ध के इस महारथी ने 19वीं सदी के उत्तरार्ध में लगातार 15 साल तक अंग्रेजों के दाँत खट्टे करने के लिए अभियान चलाया। अंग्रेजों की नजर में वह डाकू और बागी था क्योंकि उसने उनके स्थापित निजाम को तगड़ी चुनौती दी थी।

कुछ इतिहासकारों का हालाँकि मानना है कि टंट्या का प्रथम स्वाधीनता संग्राम से सीधे तौर पर कोई लेना-देना नहीं था लेकिन उसने गुलामी के दौर में हजारों आदिवासियों के मन में विदेशी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष की अखंड ज्योति जलाई थी। यह ज्योति उसे भारतीय आजादी के इतिहास में कभी मरने नहीं देगी।

टंट्या निमाड़ अंचल के घने जंगलों में पला-बढ़ा था और अंचल के आदिवासियों के बीच शोहरत के मामले में दंतकथाओं के नायकों को भी मात देता है। हालाँकि उसकी कद-काठी किसी हीमैन की तरह नहीं थी।

दुबले-पतले मगर कसे हुए और फुर्तीले बदन का मालिक टंट्या सीधी-सादी तबीयत वाला था।
किशोरावस्था में ही उसकी नेतृत्व क्षमता सामने आने लगी थी और जब वह युवा हुआ तो आदिवासियों के अद्वितीय नायक के रूप में उभरा। उसने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए आदिवासियों को संगठित किया। धीरे-धीरे टंट्या अंग्रेजों की आँख का काँटा बन गया।

इतिहासविद् और रीवा के अवधेशप्रताप सिंह विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. एसएन यादव कहते हैं कि वह इतना चालाक था कि अंग्रेजों को उसे पकड़ने में करीब सात साल लग गए। उसे वर्ष 1888-89 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया।

डॉ. यादव ने बताया कि मध्यप्रदेश के बड़वाह से लेकर बैतूल तक टंट्या का कार्यक्षेत्र था। शोषित आदिवासियों के मन में सदियों से पनप रहे अंसतोष की अभिव्यक्ति टंट्या भील के रूप में हुई। उन्होंने कहा कि वह इस कदर लोकप्रिय था कि जब उसे गिरफ्तार करके अदालत में पेश करने के लिए जबलपुर ले जाया गया तो उसकी एक झलक पाने के लिए जगह-जगह जनसैलाब उमड़ पड़ा।

कहा जाता है कि वकीलों ने राजद्रोह के मामले में उसकी पैरवी के लिए फीस के रूप में एक पैसा भी नहीं लिया था।