गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
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Written By भारती पंडित

तस्वीर का एक पहलू यह भी

जीवन के रंगमंच से

Manch Apna | तस्वीर का एक पहलू यह भी
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सरकार द्वारा आजकल शिक्षा के समान अधिकार की बात बड़े जोर-शोर से की जा रही है। गरीबी की रेखा में आने वाले बच्चों को निजी स्कूलों में दाखिला दिलाने,उन्हें आरक्षण दिलवाने और शिक्षा के अच्छे अवसर दिलवाने की बात कही जा रही है। यानी यह सब कहकर सरकार स्वयं स्वीकार कर रही है कि निजी स्कूल शिक्षा के मामले में सरकारी स्कूलों से कहीं बेहतर है। जब ऐसा ही है तो शिक्षा के नाम पर इतना तमाशा खड़ा करने की,इतना पैसा खर्च करने की जरूरत ही क्या है?

क्यों न शिक्षा के क्षेत्र को पूरी तरह से निजी हाथों में ही दे दिया जाए? यूँ भी अस्पष्ट नीतियों के चलते भारी-भरकम फीस वाले स्कूल निरंतर फलते-फूलते नजर आ ही रहे हैं। उच्च वर्ग के लिए तो सब आसान है। मध्यम वर्ग मर-गिरकर अपना पेट काटकर अपने बच्चों को निजी संस्थाओं में पढ़ा ही रहा है। अब रही बात गरीबों की,तो उन्हें इन स्कूलों में अच्छी शिक्षा दिलाने का वादा सरकार कर ही रही है।

अब जरा गरीब बच्चों के निजी स्कूलों में दाखिले के समय बनने वाली स्थिति पर नजर डाल ली जाए। यह कैसे तय किया जाएगा कि बच्चा वास्तव में गरीब है? क्योंकि लालच के चलते और भ्रष्टाचार की कृपा से कई संपन्न लोग भी नकली प्रमाण बनवाकर ऐसी कतार में शामिल होते देखे जा सकते है।

हर शहर में कुछ स्कूल गरीब होनहार बच्चों की मुफ्त शिक्षा के लिए परीक्षा आयोजित करते हैं उनमें यह तमाशा खुले आम देखा जा सकता है। क्या पैसे के बल पर अधिकार हनन का यह खेल यहाँ भी खेला नहीं जाएगा?

चलिए यदि येन-केन प्रकारेण स्कूल में दाखिला हो भी गया तो आगे......? ये निजी स्कूल केवल भारी-भरकम फीस के लिए ही नहीं जाने जाते,बल्कि यहाँ पढ़ने वाले बच्चों में यह अहसास कूट-कूटकर भरा होता है कि अपने पुराने पुण्यों के कारण उन्हें अमीर घरों में जन्म मिला है। अपने पालकों के दम पर वे दिखावे की हर होड़ में शामिल हो प्रथम आना चाहते हैं। यहाँ पढ़ने वाले बच्चों का स्तर उनकी बुद्धिमानी से नहीं,वरन उनके कपड़ों, जूतों और बस्तों की कीमत से आँका जाता है।

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ब्रांड्स की इस अंधी दौड़ में उस बेचारे बच्चे का क्या हाल होगा जिस बेचारे को तन ढँकने को कपड़ा मिले तो वह भाग्य समझ ले? वे मध्यमवर्गीय बच्चे, जो या तो माता-पिता की महत्वाकांक्षाओं के चलते इन स्कूलों में दाखिल होते हैं या उनके माता-पिता इन स्कूलों में काम करते हैं। अतः घटी दरों पर दाखिला मिलने के कारण अगर वे यहाँ पढ़ते हैं,उनकी मानसिक स्थिति कितनी शोचनीय हो जाती है, इसका अंदाज हम नहीं लगा सकते। हर रोज अपनी कमतरी का अहसास न केवल उन्हें 'जीवन में पैसा ही सर्वोपरि है' का गणित समझाता है वरन येन-केन प्रकारेण इसे हासिल करना ही है ,यह भी सीखा देता है।

ऐसे में बच्चे भाग्य को दोष देना,वास्तविकता से दूर भागना और झूठा स्टेटस दिखाना सीख जाते है। यदि तेज-तर्रार हुए तो गलत राह पर निकल जाते हैं, सीधे-भोले हुए तो डिप्रेशन के शिकार हो जाते है। इन बच्चों के माता-पिता कम से कम इतने जानकार तो होते हैं कि बच्चों को समझाइश दे सकें, उनकी काउंसिलिंग कर सकें,मगर उन गरीब बच्चों का क्या होगा, जिनके माता-पिता न तो ये सब जानते हैं,न समझते हैं। क्या मोरों की टोली में आ धमके काले कौवे को ये सफ़ेद मोर जीने देंगे?

और फिर बात केवल शिक्षण शुल्क की नहीं है। बस, गणवेश,खाना, ट्रिप, कैंप ,प्रोजेक्ट...ढेरों खर्च होते हैं जो सुरसा की तरह मुँह फाड़े खड़े रहेंगे और उनसे बचने के लिए हर बच्चे को हनुमान जी की तरह कवायद करनी होगी। ऊँट किस करवट बैठेगा यह तो समय ही बताएगा मगर देखने-सुनाने में यह सब जितना लुभावना लग रहा है, इसकी वास्तविकता भयावह भी हो सकती है ,यह ध्यान में रखना भी जरूरी है।