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Written By DW

भाषा के आतंक का शिकार हिन्दी

भाषा के आतंक का शिकार हिन्दी -
भारत में हिन्दी समेत कई स्थानीय भाषाओं को अंग्रेजी की तुलना में कमतर आंका जाता है। अंग्रेजी का आतंक ऐसा है कि उसके साथ नकल तो आती है, लेकिन अपनी मौलिक भावनाएं कहीं खो सी जाती हैं। बॉब्स की जूरी में आए रवीश यही मानते हैं।
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बर्लिन में सुहाने मौसम के बीच रवीश कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की जीत की खबर दे रहे थे। उन्हें इस बात का दुख था कि वह भारत में टीवी कर्नाटक चुनावों का विश्लेषण नहीं कर पा रहे हैं। बातचीत के वक्त रवीश तीन दिन जर्मनी में बिता चुके थे और राजधानी बर्लिन की शानदार ऐतिहासिक इमारतें उनका दिल जीत चुकी थीं। बेस्ट ऑफ ब्लॉग्स यानी बॉब्स पुरस्कारों में उनके अनुभव, बर्लिन और भारत में ऑनलाइन संस्कृति पर उनसे होटल की लॉबी में हुई बातचीत कुछ ऐसी रही।

डीडब्ल्यूः तो आपका अनुभव कैसा रहा...
रवीश कुमारः इतना अच्छा लगा जितना कि हम सोच के नहीं आए थे।

डीडब्ल्यूः आप क्या सोचकर आए थे।
रवीश कुमारः मैंने सोचा था कि बंद दरवाजे के बीच कुछ चर्चाएं होंगी, कुछ लोग होंगे, मैं ऐसा इसलिए सोच रहा था क्योंकि मैं देख रहा था बॉब्स की वेबसाइट को। इसके पहले की मुझे कोई जानकारी नहीं थी। मुझे इसके पैमाने का कोई अंदाजा नहीं था, इसकी अहमियत और इसमें हिस्सा लेने वाले लोगों का कोई अंदाजा नहीं था।

यहां आने से पहले मैं खुद इससे काफी प्रभावित रहता था कि भारत में ब्लॉगिंग के जरिए अभिव्यक्ति के स्तर पर बहुत बदलाव आया है। इसने भाषा के स्तर पर बदलाव किया है, मीडिया को चुनौती दी है। लेकिन यहां आकर देखा कि हम लोग भी ऑनलाइन में सक्रिय हैं, लेकिन मीडिया के वैकल्पिक स्तर पर हम वैसा नहीं कर रहे जैसा दुनिया के बाकी देशों में हो रहा है।

डीडब्ल्यूः दुनिया में जो हो रहा है, उसमें आपको अलग क्या लगा।
रवीश कुमारः हमारे देश में कॉरपोरेट या आर्थिक दबाव की वजह से या अपनी ही अकर्मण्यता की वजह से आप अपनी पेशेवर जिम्मेदारियां भूल गए हैं। पर इस तरह से एक वैकल्पिक मीडिया खड़ा करने की कोशिश जो बाहर के देशों में है, वह हमारे यहां नहीं है। कुछ वेबसाइट जरूर अच्छी आई हैं, अंग्रेजी में भी आई हैं पर इस तरह का हस्तक्षेप नहीं है।

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डीडब्ल्यूः क्या भारत में ब्लॉगिंग केवल पत्रकारों तक सीमित है।
रवीश कुमारः नहीं। बल्कि उल्टा है। कुछ लोग नाम बदल के लिख रहे हैं। हिंदुस्तान में ब्लॉगिंग उन लोगों के हाथ में गया है जिनको कहीं और लिखने का अवसर नहीं मिलता। अखबार में अगर आप संपादकीय को देखें तो कुल मिलाकर लगभग 50 लोग लिख रहे हैं अलग अलग विषयों पर।

डीडब्ल्यूः यह क्या अच्छी बात है।
रवीश कुमारः यह अच्छी बात नहीं है, एक ही आदमी सारे विषयों पर लिख रहा है, केवल 50 लोग ही लिख रहे हैं, राहुल गांधी की यात्रा से मोदी के भाषण तक। लेकिन समानांतर स्तर पर गृहणियां हैं, आम लोग हैं, कोई जिसकी शादी हो गई है जो बाहर है और दुनिया को अपनी तरह से देख रहे हैं। उन लोगों ने ज्यादा बेहतर तरीके से लिखना शुरू किया है। उनकी अभिव्यक्ति से हिन्दी भाषा समृद्ध हुई है क्योंकि भाषा के स्तर से जो आपको ब्लॉगिंग में मिलेगा, वह अखबार में नहीं मिलेगा।

अखबार के लिए भाषा बदलने का मतलब दो चार अंग्रेजी के शब्द डाल दो। ब्लॉगिंग में ऐसे लोग लिख रहे हैं जिनकी ट्रेनिंग नहीं है, तो वैसे काफी बदलाव हुआ है। एक बात यहां जो अच्छी लगी कि यहां भाषा का आतंक नहीं है। अगर हिंदुस्तान में बॉब्स होता, तो इस बात की संभावना ज्यादा थी।

डीडब्ल्यूः भाषा का आंतक?
रवीश कुमारः कि अंग्रेजी के ब्लॉग को यूं ही इनाम दे दिया।

डीडब्ल्यूः तो अभी भी हमारा पोस्ट कोलोनियल हैंगोवर है...
रवीश कुमारः अभी भी है, बिलकुल है। इस सिस्टम की इतनी निरंतरताएं हैं कि कहीं खत्म होता है तो दूसरे तरीके से फिर से उभर के आता है। यहां वह नहीं था। आप अपने काम के स्तर से कंपीट कर रहे थे। उसमें भाषा की कोई भूमिका नहीं थी, चाहे आप तुर्की में ब्लॉग देख रहे हैं और वह स्क्रीन पर है, आपको समझाया जा रहा है, या बांग्ला में है।

जो विचारों की प्रतिस्पर्धा है, वह बहुत दिलचस्प लगी। इसमें किसी और तरीके से आप अपनी हैसियत का प्रदर्शन नहीं कर सकते। तो यह मेरे लिए एक सीखने की चीज रही। दुख इस बात का है कि हिन्दी के कोई जीत नहीं पाए लेकिन सही भी है, क्योंकि जो जीते उन पर कोई सवाल नहीं खड़ा कर सकता।

डीडब्ल्यूः चीन का एक ब्लॉग फ्रीवेइबो बॉब्स में विजयी रहा, जो चीन में ट्विटर जैसी वेबसाइट वेइबो को सपोर्ट करती है। भारत में ऐसा अब तक क्यों नहीं है।
रवीश कुमारः भारत में यह एक समस्या है। जब मैं हिन्दी में ट्वीट किया करता था तो कई लोग कहा करते थे कि आप रोमन में किया करो या अंग्रेजी में किया करो, हम आपका ट्वीट नहीं पढ़ पा रहे हैं। ट्विटर पर अब भी अंग्रेजी का दबदबा है। लोग अपनी भाषा में कम ट्वीट करते हैं।

लेकिन देखा जाए तो सेंसर करते वक्त सबसे पहले ट्विटर, फेसबुक को ही किया जाता है..और आम आदमी के लिए हमारे देश में अपना प्लेटफॉर्म होना चाहिए। यह एक मुश्किल वक्त है। राजनीतिक पार्टियों के अपने आईटी सेल हैं। अचानक से सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग छोड़कर कोई बंदा कांग्रेस या बीजेपी के सेल में आ रहा है। सांसदों को ट्रेनिंग दी जा रही है। तो जो न्यूट्रल स्पेस था, उसको हथियाने की होड़ चल रही है।

आम आदमी भी अपनी निष्ठाओं में फंसा है। वह भ्रष्टाचार के खिलाफ हो सकता है, लेकिन वह किसी नेता को दूसरी वजह से पसंद करेगा, जाति की वजह से, या स्टेट के कारण या किसी भावनात्मक मुद्दों के कारण या इसके कारण की वह किसी दूसरे नेता को पसंद नहीं करता।

दरअसल भारत में अभिव्यक्ति ऊपर से नीचे आ रही है, नीचे से ऊपर नहीं जा रही। अगर आप ट्विटर पर भी देखें तो वह इंटरएक्टिव नहीं है...इसमें केवल राजनीतिक पार्टियां इंटरएक्टिव हैं। बड़े नेता नहीं है, बड़े नेताओं ने छोटे नेताओं को पाल रखा है। अगर आप उनकी आलोचना करेंगे तो वह आपको घेरेंगे, आपको गाली देंगे तरह तरह से, आपको धमकाने का प्रयास करेंगे।

विनय लाल का एक रिसर्च भी है कि किस तरह हिन्दू डायास्पोरा ने शाइनिंग इंडिया के कैंपेन से पहले ही सारा एजेंडा तैयार किया, एक नेटवर्क बनाया। तो इंटरनेट हिन्दू एक श्रेणी है जिसका दबदबा ट्विटर पर है। ज्यादातर दक्षिणपंथी विचारधारा के हैं, अच्छा बुरा मैं नहीं कह रहा हूं, इकतरफा है और हिन्दुस्तान की विविधता उसमें नहीं दिखाई देती है। वहां न दलित आवाज है, न आदिवासी, न महिलाएं। उसमें दिल्ली, बंगलौर, अहमदाबाद के लोगों का ही पूरा कब्जा है।

डीडब्ल्यूः क्या इसकी वजह नेटवर्क या बिजली की समस्या भी है।
रवीश कुमारः हां वह तो है ही लेकिन हम तकनीक को बहुत धीरे अपनाते हैं। इसलिए दुनिया में कहीं भी आपको डाउनलोड की दुकानें नहीं मिलेंगीं। पांच या दस रुपए में वीडिया या गाने डाउनलोड कराते हैं, यह एक एंटरप्राइज है, एक लघु उद्योग है। यहां मुझे नहीं लगता कि पश्चिम के जो लोग हैं, उनको अगर जरूरत पड़ेगी तो वह खुद कर लेगे। फेसबुक में आपको फिर भी अलग अलग तरह की आवाजें मिलेंगीं, ट्विटर में इतना नहीं है। कई टीवी एंकर हैं जिनकी ट्विटर में बहुत पूछ है लेकिन उनके कार्यक्रम की रेटिंग इतनी अच्छी नहीं है...

डीडब्ल्यूः भारत में मीडिया का ट्रेंड कैसा है...
रवीश कुमारः टीवी तो बिलकुल ट्विटर जैसा हो गया है। जो स्पीड न्यूज है वह एक एक या दो दो लाइन की खबरे होती हैं। यह क्या है, यह न्यूज का एक ट्विटर संस्करण है। और वह भी चैनल में डिबेट में बदल गया है। रिपोर्टिंग खत्म हो गई है। तो मान लिया गया है कि न्यूज ट्विटर लोगों तक पहुंचा देगा, फेसबुक लोगों तक पहुंचा देगा और लोग बैठकर डिबेट करेंगे।

खतरनाक बात यह हुई है कि हिन्दुस्तान जैसे समाज में जहां अभी भी लोग इन सब चीजों से बाहर हैं, जहां उनके पास इससे जुड़ने का इतना जरिया न हो जितना अमेरिका, लंदन या जर्मनी के लोगों के लिए है। इसका नुकसान यह है कि हमारी मीडिया शहरों पर केंद्रित होती चली जा रही है। शहरों में भी दिल्ली केंद्रित, दिल्ली में भी लटयेंस दिल्ली। अगर पिछले दो सालों के मुद्दे निकालें तो ज्यादातर मुद्दे इसी इलाके से होती हैं। बाकी देश का इस मीडिया में प्रतिनिधित्व कम हो गया है।

डीडब्ल्यूः आपको बॉब्स में सबसे अच्छे ब्लॉग कौन से लगे।
रवीश कुमारः मुझे वही पसंद आए जो अंत में चुने गए। एक चीन का लेखक है...वह कम से कम करता हुआ दिख रहा है न, अपने ऑनलाइन कामों को वह बाहर लेकर जा रहा है। मुंह पर पट्टी बांधे हुए है। हिन्दी के किस लेखक के बारे में आपने सुना है कि वह मुंह पर पट्टी बांधकर प्रतिरोध कर रहा है। उनकी चुप्पी तो अपने आप में लाजवाब है।

हिन्दी लेखक लोकार्पण अच्छी तरह से करते हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक गतिविधियां कम हैं। हालांकि इस बार दिल्ली प्रदर्शनों में कई साहित्यकार गए थे। अगर आप देखिए तो हिन्दी में हमारा बेस्ट पब्लिक ओपिनियन हमारा लिटरेचर है। हमारे साहित्यकार हैं, वही हमारे हीरो हैं लिखने में और वही इस तरह से चुप रह जाते हैं।

इंटरव्यूः मानसी गोपालकृष्णन
संपादनः आभा मोंढे