स्त्री हूँ मैं अपरूपा प्रकृति
संज्ञा सिंह एक स्त्री हूँ मैंअपररूपा प्रकृतिचल-अचल सम्पत्तियों की खान हैमेरे भीतरहमसे ही निकलते हैं विचारहरे होते हैं सपनेमिलता है जीवन रसमैं आनंद रूपा हूँस्त्री-प्रकृति पूरी-पूरी।दो स्त्री हूँ मैंजीवनदायी शक्ति सेभरी आकण्ठस्नेहमयी, ममतामयीज्वालामुखी साथ-साथ,रेतकण-स्वर्णकणमुझमें ही बनते हैंडीजल-पेट्रोल बनजलते हैं मेरे रसजलना राख होना हैनहीं जलना चाहती मैंमैं प्रकृति हूँ, हरी-भरीअनंत सपनों सेरत्न मैं, मैं प्रकृति बचाओ!तीन
हरियाली हूँ मैंहरियाली का होनाबहुत-बहुत जरूरी है जीवन के लिएहरियाली में हीजीते हैं विचारव्यवहार जीते हैं हरियाली मेंजीती हैं वनस्पतियाँअपनी पहचान बनाती हैं इन्हीं सेहरियालीमनुष्यता का पहला पाठ हैप्रकृति है स्त्रीहरियाली उसकी आत्मा हैस्त्री हूँ मैं अपरूपा प्रकृति।