व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया
प्रतीक्षा की समीक्षा
वीरेन्द्र मिश्र पत्र कई आएपर जिसको आना थावह नहीं आया-
व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।सहन में फिर उतरा पीला-सा हाशियासाधों पर पाँव धरे चला गया डाकियाऔर रोज-जैसामटमैला दिन गुजरागीत नहीं गाया-
व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।भरे इंतजारों से एक और गठरीरह-रहकर ऊँघ रही है पटेल नगरीअधलिखी मुखरताकह ही तो गई वाह!खूब गुनगुनाया-
व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।खिड़की मैं बैठा जो गीत है पुरानादेख रहा पत्रों का उड़ रहा खजानापूछ रहा मुझसेपतझर के पत्तों मेंकौन है पराया-
व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।