खुश तो है एक बेटी किसी की
जितेन्द्र श्रीवास्तव
मैंने पूछाथोड़े संकोच थोड़े स्नेह से'
कैसे हैं पतिहैं तुम्हारे अनुकूल'उसने कहामुदित मन से लजाते हुए'
जी, बहुत सहयोगी हैंसमझते हैं मेरी सीमाअपनी भी'उस दिन मेरा मन बतियाता रहा हवाओं से फूलों सेपूछता रहा हालचाल राह के पत्थरों सेप्रसन्नता छलकती रही रोम-रोम सेयूं ही टहलते हुए चबा गया नीम की पत्तियांपर खुशी इस कदर थी रक्त में कि कम न हुई मन की मिठासमैंने खुद से कहाचलो खुश तो है एक बेटी किसी कीऔर भी होंगी धीरे-धीरे।