स्त्री हूँ मैं पुरुष-मन का अनुराग बनकर पल-पल फैलना चाहती हूँ मैं आक्षितिज ओ मेरी पृथ्वी! तुममें समा जाना चाहती हूँ मैं फिर-फिर हरियाली बनकर उगने के लिए ओ मेरे सूर्य! तुम्हारी संज्ञा बन जाना चाहती हूँ मैं प्रकाश और गरमी से भरी हुई अनन्त यात्राओं पर चलने के लिए।
दो तुम्हारे देखते ही नदी में हलचल हुई पाँव-पाँव चलने लगा पानी तुम्हारे मुस्कुराते खिल गया स्त्री-मन छूता हुआ तुमको तुम्हारे बोलते ही रोशन-रोशन होने लगा सब-कुछ
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हँसने लगी धूप, छिटकने लगे शब्द। ओ मेरे दिव्य पुरुष! इस तरह समर्पित हो रहा है पूरा स्त्रीत्व तुम्हारे आगे जबकि बहुत जरूरी है हमारे लिए 'अदर्शनम् मौनम् अस्पर्शम्' 'धम्मं शरणं गच्छामि' का उच्चारण कर रही हैं मेरी माँ यहीं-कहीं।