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बंकिमचंद्र चटर्जी: बंग साहित्य के भगीरथ

बंकिमचंद्र चटर्जी: बंग साहित्य के भगीरथ -
- सत्यव्रत मैत्

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बंकिम के पूर्व बंग भाषा इकतारे की तरह एक ही तार में बंधी हुई थी, उसमें सीधे स्वरों द्वारा धर्मगीत मात्र गाये जा सकते थे। बंकिम ने अपने हाथों नए तार चढ़ाकर उसे वीणायंत्र बना दिया। पहले उसमें सिर्फ ग्राम्यसुर बजते थे, बंकिम के कारण वह विश्वसभा में ध्रुपद अंग की कलावती रागिनी का आलाप करने के उपयुक्त हो गई।- रवीन्द्रनाथ ठाकुर

बंकिमचंद्र का जन्म उस काल में हुआ जब बंग साहित्य का न कोई आदर्श था और न ही रूप या सीमा का कोई विचार। जब उसके लेखक अवहेलनापूर्वक लिखते थे और मुष्टिमेयपाठक अनादर के साथ उसे पढ़ते थे। उन दिनों शिक्षित व्यक्तियों की यह धारणा थी कि बंगला भाषा में किसीभाव या अनुभूति को व्यक्त नहीं किया जा सकता। उनके अनुसार वह केवल बच्चों की भाषा थी और अर्द्धशिक्षित, अमार्जित लोगों के लिए ही उसे लिखा जाता था। ऐसे संधिकाल में बंग साहित्य के भगीरथ तमसावृत्त साहित्य गगन में उदयाचल के प्रथम आलोक तथा हिमावृत्त शैल साम्राज्य में उषःकालीन कवि निकरों की प्रभा लेकर बंकिमचंद्र का आविर्भाव हुआ। उन्होंने उसी पंककुटिला अपरिच्छिन्न बद्धपुष्करिणी में श्वेत पंकजों के सदृश्य साहित्य प्रसूनों को विकसित किया।

रवीन्द्रनाथ ने एक स्थान पर कहा है- राममोहन ने बंग साहित्य को निमज्जन दशा से उन्नत किया, बंकिम ने उसके ऊपर प्रतिभा प्रवाहित करके स्तरबद्ध मूर्तिका अपसरित कर दी। बंकिम के कारण ही आज बंगभाषा मात्र प्रौढ़ ही नहीं, उर्वरा और शस्यश्यामला भी हो सकी है।

आज की बंगभाषा और साहित्य को देखकर यह अनुमान करना भी कठिन हो जाता है कि उस पुरातन युग में कैसी दशा और कैसे परिवेश के मध्य बंकिम को साहित्य तरणी लेकर अग्रसर होना पड़ा था। प्रबल प्रतिकूल अवस्था में विपक्ष की पर्वताकार लहरों की उपेक्षा करके धीरे-धीरे उसे अर्द्धनिमग्न तरणी साफल्य के तट तक पहुंचने का कार्य पहले पहल बंकिम ने ही किया। यह कार्य कितना दुरुह था और इसमें कितना कष्ट-कठोर परिश्रम का दुर्वाह क्लेष था, इसका अनुमान करना की आज के समालोचकों और लेखकों की कल्पना के बाहर है। बीच-बीच में सुनना पड़ता है कि बंकिम के उपन्यासों में प्रतिभा का अभाव है

उन्हें असफल उपन्यासकार की संज्ञा तक दी जा चुकी है। उनकी रचनाओं में औपन्यासिक तत्वों के अभाव का निरर्थक आरोप लगाया गया है, लेकिन वास्तव में बंकिम ही बंगभाषा केप्रथम उपन्यास सृष्टा थे। उनकी प्रतिभा अनन्य थी। वह मात्र साधारण पथ प्रदर्शक नहीं थे, उनकी रचनाओं में प्रथम व्रती के समान अप्रांजल्य अथवा भीरुत्व का आभास नहीं मिलता। यदि उन्हें बंगभाषा का आदि और सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार कहा जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी। प्रकृत साहित्यसेवी- समालोचक इस तथ्य को स्वीकार करते हैं।

बंकिम की रचनाओं में वास्तविक सत्य, शिव और सुंदर का पूर्ण विकास हुआ है। घटनाओं के मध्य अनेक स्थलों पर आकस्मिकता का परिचय मिलने पर देखा जाता है कि अत्यंत साधारण मानव जीवन की प्रकृत कहानी के अंतराल में विराट शक्ति विद्यमान है। अस्पष्ट प्रकाश होने पर भी उसके अस्तित्व के संबंध में रंचमात्र संदेह नहीं किया जा सकता। उस विराट शक्ति का बोध सामान्यतः हमें नहीं रहता। इसके अतिरिक्त हार्दिक प्रवृत्तियों को भी उन्होंने उसी विराट सत्य का अवयव माना है। उन्होंने नर-नारियों की आंतरिक प्रवृत्तियों को वैयक्तिक रूप में न लेकर उनकीसमष्टिगत विवेचना की। इन्हीं तथ्यों के आधार में उनकी प्रतिभा की विशदता और विशाल रूपरेखा का दर्शन मिलता है। जो कल्पना युक्ति एवं सत्य द्वारा सुनिर्दिष्ट है, मर्मी साहित्यकार ने उसी के द्वारा चरित्र-सृजन की अपूर्व क्षमता दिखलाई है।

कहीं पर भी भावावेश में आ उच्छृंखल कल्पना के अश्व दौड़ाकर उन्होंने लघु-क्षमता का परिचय नहीं दिया है। उनकी रचनाओं में आद्यान्त सर्वत्र प्रत्येक चरित्र में, आख्यान में, आत्मसंवरण युक्ति के सुनिर्धारित पथ का परिचय प्राप्त होता है। उनके विचारों में कठिन सत्य के निर्णय और निर्मल स्पृहा से शिव-सुंदर एवं ज्ञान-विज्ञान का मधुरतम चित्र अंकित हुआ है। ऐतिहासिक एवं सामाजिक उपन्यासों में कला-चातुर्य और विराट हृदय की झलक उनके चारुकार्य की परिचायक है।

बंकिम उस युग के प्रतिनिधि राज-कर्मचारी थे, शासनतंत्र के सुयोग्य शासक होने पर भी अपनी उसी अवस्था में 'आनंदमठ' जैसे उपन्यास का सृजन करना उनके लिए संभव हो सका था। जिस प्रकार उन्होंने, क्षीणा, कुंठिता, अवगुंठिता बंगभाषा को अपनी प्रतिभा के पूतःसलिल से सिंचितकर नवजलधर श्याम रूप देकर यौवन से अनुप्राणित किया उसी प्रकार आनंदमठ की रचना करके उन्होंने पराधीत भारत के निद्रित जनसामान्य के हृदय में चेतना का विद्युत संचार किया।

उस अलौकिक वाणी के स्पर्शमात्र से आसेतु-हिमालय के अधिवासी हुंकार उठे थे- वंदेमातम्‌! वस्तुतः वह युग निद्रिता अहिल्या की पाषाणमूर्ति का पर्याय था, भारत-जननी के अमृतस्यपुत्र बंकिम के अमोघ मंत्र 'वंदे मातरम्‌' के जलद घोष का श्रवण करते ही स्वतंत्रता की वेदी पर अपना बलिदान करने के लिए दौड़ पड़े। अगर बंकिम ने मात्र आनंदमठ की ही रचना की होती तब भी उनका नाम साहित्य- इतिहास के स्मृति-पृष्ठों पर चिरकाल के लिए अंकित हो सकता था। देश के पुजारी बंकिमचंद्र को श्रद्धार्घ्य देकर उन्हें सदा-सर्वदा अपने हृदय में बसाए रहते।

आनंदमठ के अतिरिक्त भी बंकिम ने ऐतिहासिक उपन्यास, साहित्य-समालोचना, लघु साहित्य, धर्म समीक्षा जैसे विषयों पर नानाविध पुस्तकों का प्रणयन किया। उस युग की भयावह रक्षणशीलता में भी उन्होंने साम्यगान गाने का साहस किया- ऐसा उदार और विराट हृदय लेकर अवतिर्ण हुए थे वे।जो सत्य है, श्रेयस्कर है, महान है, उसका ग्रहण करने के लिए उनके दृढ़ चरण सर्वदा अग्रसर रहे। व्यावहारिक जीवन की वास्तविक घटनाओं की छाया ही उनकी रचनाओं में दृष्टिगोचर होती थी। अनेक अघटन घटनाएं उनके जीवन-नद के तटों पर अपने स्मरणचिन्ह अंकित कर गईं। उनके उपन्यासों में देवता, साधु-संन्यासियों की अलीक घटनाओं को देखकर ज्ञात होता है कि वे उनके वास्तविक जीवन की लब्ध अभिज्ञताओं की छायाएँ थीं।

जीवन की ऐसी घटनाओं के साथ उनका अनेक बार परिचय हो चुका था। बंकिम ने जीवनानंद रस का आकंठ पान किया था।नवचिंताधारा और गंभीर मर्यादाबोध का पथ दिखलाने के कारण ही तो उन्हें साहित्य महारथी कहा जाता है। उन्होंने अपने उपन्यासों में सामाजिक जीवन के जिस गृहस्थ चित्र का अंकन किया है वह उन जैसे उपन्यास-सम्राट के लिए ही संभव था, किसी दूसरे के लिए नहीं। अवहेलिता और दीनहीन बंगभाषा में नवप्राण-संचार करके विश्व साहित्य के मध्य नववधू के रूप में उसे प्रतिष्ठित करने का श्रेय बंकिम को ही दिया जा सकता है।