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द्विवेदी जी:साहित्यिक पत्रकारिता के जनक

महावीरप्रसाद द्विवेदी : पुण्य स्मरण 15 मई

Literature | द्विवेदी जी:साहित्यिक पत्रकारिता के जनक
कृष्ण कुमार भारती
NDND
आधुनिक हिंदी साहित्य के निर्माण में महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान अविस्मरणीय रहा है। इस युग की साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना को दिशा और दृष्टि प्रदान करने में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। भाषा, भाव और विषय सभी की दृष्टि से उनके इस अतुलनीय योगदान के कारण इस युग को ' द्विवेदी युग' नाम दिया गया।

द्विवेदी युग में आकर स्वाधीनता आंदोलन अधिक शक्तिशाली हो गया था। भारतीय राजनीति में यह नौरोजी, गोखले और तिलक का युग था। पूरी चेतना ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उपनिवेशवादी शक्तियों को देश से बाहर खदेड़ देने के लिए संकल्पबद्ध रूप में सामने आई। भारतीयता की तलाश में यह काव्य रामकृष्ण, शिवाजी आदि को अपनाकर एक नए रूप में प्रकट हुआ। नारी जागरण संबंधी आंदोलनों की सीधी प्रतिध्वनि ' प्रिय प्रवास', 'मिलन', 'यशोधरा', 'साकेत' जैसे काव्यों में सुनाई दी।

महावीर प्रसाद द्विवेदी इस युग में एक ऐसे सेनानायक के रूप में उभरे जिन्होंने पूरे युग को प्रभावित किया। उनकी भूमिका न केवल हिंदी नवजागरण की दिशा में मील के पत्थर के समान रही अपितु भारतीय स्वाधीनता आंदोलन को गति व बल देने में भी उनका उल्लेखनीय योगदान रहा। सन्‌ 1903 में जैसे ही महावीर प्रसाद द्विवेदी को ' सरस्वती' से आमंत्रण प्राप्त हुआ, उन्होंने रेलवे की सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। 200 रुपये प्रतिमास की सरकारी नौकरी को ठोकर मारकर मात्र 20 रुपये प्रतिमाह पर सरस्वती के संपादक के रूप में कार्य करना उनके त्याग का परिचायक है।

हिंदी नवजागरण की दिशा में महावीर प्रसाद द्विवेदी की सबसे बड़ी देन काव्यभाषा के रूप में खड़ी बोली हिंदी की प्रतिष्ठा करना रहा। गद्य और पद्य दोनों के लिए खड़ी बोली हिंदी को सर्वमान्य बनाने के साथ-साथ उन्होंने खड़ी बोली गद्य को व्याकरणसम्मत रूप दिया। एक मानक भाषा के रूप में उसे आकार प्रदान किया। हिंदी में विराम चिन्हों का प्रयोग भी द्विवेदी जी के प्रयासों की देन है।

उनका अपने लेखकों को स्पष्ट निर्देश रहता था कि वे विवेचन को तर्कसंगत बनाएँ, अभिव्यंजना में स्पष्टता का निर्वाह करें और भाषा की दुरुहता व शब्दाडम्बर से परहेज करें। अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी तथा बंगला की उत्कृष्ट कृतियों को अनुदित कर उसके माध्यम से उन्होंने न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया अपितु हिंदी पाठकों का मानसिक विकास कर उनकी रुचि अधिक पुष्ट करना, समसामयिक, वैज्ञानिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व सामाजिक हलचलों के प्रति उन्हें जाग्रत करना, स्वस्थ तथा निर्भीक आलोचना की नींव पुख्ता करना इत्यादि महावीर प्रसाद द्विवेदी के मुख्य उद्देश्य थे।

रीतिकालीन श्रृंगारिकता व आंलकारिकता तथा भारतेन्दु युगीन राजभक्ति के स्वरों को उन्होंने अपने युग के साहित्य में फलने-फूलने नहीं दिया। उन्होंने साहित्य में प्रखर राष्ट्रीयता के स्वरों को मुखरित किया। सांप्रदायिक वैमनस्य को मिटाकर सभी धर्मों के मूल तत्वों की साम्यता पर बल दिया।

आचार्य द्विवेदी ने सरस्वती के माध्यम से हिंदी साहित्य को अनेक ऐसे रचनाकार प्रदान किए जिनके साहित्य ने स्वाधीनता आंदोलन में रीढ की हड्डी की तरह कार्य किया। मैथिलीशरण गुप्त, रामचन्द्र शुक्ल व प्रेमचन्द जैसे हिंदी के पुरोधा महावीर प्रसाद द्विवेदी की अनुपम देन है। मैथिलीशरण गुप्त ने अपने काव्य के माध्यम से भारतीय जनमानस में अपनी अस्मिता व स्वाभिमान का बोध कराकर उन्हें हीन भाव से मुक्त किया। वहीं प्रेमचन्द के साहित्य में भारतीय ग्रामीण जीवन के जो चित्र साकार हुए, वह द्विवेदी जी की ही प्रेरणा के परिणाम थे।

प्रेमचन्द के कथा साहित्य प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि और गोदान का विश्लेषण द्विवेदी जी की पुस्तक 'संपत्तिशास्त्र' के अध्ययन के बगैर अधूरा है। दूसरी तरफ स्वाधीनता आंदोलन में विशेष भूमिका निभाने वाले हिंदी पत्रकारिता जगत के नींव के पत्थर 'आज' व ' प्रताप' जैसे पत्रों के संपादक क्रमश: बाबूराव विष्णु पराड़कर व गणेश शंकर विद्यार्थी ने भी महावीर प्रसाद द्विवेदी से प्रेरणा पाकर पत्रकारिता जगत में प्रवेश किया।

बाबूराव विष्णु पराड़कर ने स्वयं स्वीकार किया है कि ' सन्‌ 1906 से, जब मैंने स्वयं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया, प्रतिमास सरस्वती का अध्ययन मेरा एक कर्तव्य हो गया। मैं सरस्वती देखा करता था संपादन सीखने के लिए।'गणेश शंकर विद्यार्थी ने तो अपना साहित्यिक जीवन सरस्वती के सहायक संपादक की हैसियत से प्रारंभ किया था। विद्यार्थी जी ने जब कानपुर में 'प्रताप' की स्थापना की, तब द्विवेदी जी से ही वह मूल मंत्र लिया जो प्रताप पर छपता रहा-

'जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है,
वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान है।'

महावीर प्रसाद द्विवेदी अंग्रेजों की कुटिल व विभाजनकारी नीतियों को अच्छी तरह जानते-समझते थे। अंग्रेजी को शिक्षा की भाषा बनाने का उन्होंने विरोध किया वहीं अंग्रेजों द्वारा हिंदी को आधुनिक शिक्षा के अयोग्य कहने के प्रश्न पर भी उन्होंने अनेक तर्कों से यह सिद्ध किया कि हिंदी में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा न केवल संभव है अपितु बेहतर तरीके से हो सकती है।

हिन्दुओं और मुसलमानों को बाँटने के लिए अंग्रेजों द्वारा लागू की जा रही नीतियों की भी उन्होंने जमकर भर्त्सना की। स्वदेशी आंदोलन का भी द्विवेदी जी ने खुलकर समर्थन किया। जुलाई 1903 की सरस्वती में ' स्वदेशी वस्त्र का स्वीकार' शीर्षक से अपनी कविता में उन्होंने स्वदेशी आंदोलन पर बल देते हुए लिखा है-

' विदेशी वस्त्र क्यों हम ले रहे हैं
वृथा धन देश का क्यों दे रहे हैं।
न सूझे है अरे भारत भिखारी
गई है हाय तेरी बुद्धि मारी।'

द्विवेदी जी मुसलमानों, अछूतों और स्त्रियों सभी में ‍िशक्षा प्रसार के समर्थक थे। सरस्वती में अनेक लेख इस संदर्भ में छपते रहते थे। स्त्रियों ओर अछूतों की तरह भारतीय समाज के एक अभिन्न व उपेक्षित अंग- आदिवासियों से संबंधित अनेक लेख सरस्वती में उन्होंने प्रकाशित किए। वे जानते थे कि प्राचीन संस्कृति पर गर्व राष्ट्रीय आत्मसम्मान का अभिन्न अंग है। स्वाधीनता आंदोलन के लिए यह आत्मसम्मान की भावना अत्यंत मूल्यवान है।

महावीर प्रसाद द्विवेदी का समग्र जीवन हिंदी भाषा तथा साहित्य के विकास में लगा। उनका महत्व न केवल इस मायने में स्तुत्य है कि उन्होंने भारत की भाषा समस्या को हल किया बल्कि उसे दरबारी संस्कृति की कारा से मुक्त कर लोकजागरणवादी परंपरा से जोड़ा। हिंदी साहित्य में साहित्येतर विषयों के माध्यम से भारतीय जनमानस को झकझोरकर स्वदेशाभिमान जाग्रत किया।

सरस्वती के एक लेख में वे कहते हैं -' योरुप के कुछ मदांध मनुष्य समझते हैं कि परमेश्वर ने एशिया के निवासियों पर आधिपत्य करने के लिए ही उनकी सृष्टि की है। जिस एशिया ने बुद्ध, राम, कृष्ण, ईसा और कन्फ्युशियस, रवीन्द्रनाथ और जगदीश चन्द्र बसु को उत्पन्न किया है, उसने दूसरों की गुलामी का ठेका नहीं ले रखा है।' इस प्रकार जो कार्य समाज सुधार के सामाजिक व राजनीतिक आंदोलनों के माध्यम से किए जाते हैं वही कार्य आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी साहित्य (सरस्वती पत्रिका) के माध्यम से कर रहे थे। अतः वे न केवल हिंदी नवजागरण के सूत्रधार थे अपितु साहित्यिक पत्रकारिता के जनक भी थे।