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Written By ND

झुम्पा लाहिड़ी : छोटी कहानियों पर बड़ा पुरस्कार

झुम्पा लाहिड़ी : छोटी कहानियों पर बड़ा पुरस्कार -
- सुधीर सक्सेना

यह भी एक वजह है कि उनकी यह उपलब्धि कुछ ज्यादा ही चमकीली, उजास और उत्तेजनाभरी है। प्रतिष्ठित पुलित्जर पुरस्कार विजेता प्रथम भारतीय मूल की महिला हैं। पुरस्कार की दौड़ इस बरस भी आसान नहीं थी। पूर्व पुलित्जर विजेता एनी प्राक्स और उपन्यासकार हा जिन की कड़ी चुनौती दरपेश थी, मगर गत वर्ष अमेरिका में बीस सर्वश्रेष्ठ युवा कथाकारों में शुमार सुश्री लाहिड़ी ने अपनी पहली ही किताब के बल पर बाजी मार ली। सचमुच कितना दिलचस्प और खूबसूरत लगता है कि किसी लेखक की पहली किताब छपकर आए और वह लोगों के दिलो-दिमाग पर छा जाए। झुम्पा के साथ ऐसा ही हुआ। उसके पिता लाइब्रेरियन हैं और माअध्यापिका।

लिहाजा पुस्तकों से प्रेम उसे विरासत में मिला। अचरज नहीं गर नन्ही झुम्पा ने बचपन में 'बोई' (किताब) पढ़ते हुए बोई लिखने का सपना देखा हो। बहरहाल, जब वह स्कूली छात्रा थी, लिखने का सिलसिला शुरू हो गया। शनैः-शनैः उसका रुझान गल्प लेखन की ओर विकसित हुआ।
बर्नार्ड कॉलेज से अँगरेजी साहित्य में एम.ए. करने तक उसका यह शौक परवान चढ़ चुका था। 'न्यूयार्क' पत्रिका में छपी कहानियों ने उन्हें शोहरत दी और सुर्खियाभी।

एक प्रेम संबंध पर आधारित सशक्त कहानी 'सैक्सी' के 'न्यूयार्क' में छपने की देर थी कि वे सुर्खियों में आ गईं। इस पत्रिका ने अमेरिका आने वाले एक युवा भारतीय अप्रवासी के जीवन पर आधारित सुश्री लाहिड़ी की कहानी 'द थर्ड एंड फाइनल कांटिनेंट' का भी प्रकाशन किया। उनके पुरस्कृत कथा संकलन में सम्मिलित कहानियों में तीन कहानियाऐसी हैं, जो 'न्यूयार्कर' में छप चुकी हैं। इन्हीकहानियों के बल पर उन्हें गत वर्ष अमेरिका में 40वर्ष से कम वय के बीस सर्वश्रेष्ठ कथाकारों में गिना गया।

सुश्री लाहिड़ी बत्तीस वर्ष की हैं और 'इंटरप्रीटर ऑफ मैलेडीज' उनकी पहली प्रकाशित कृति है। ये दोनों ही बातें मायने रखती हैं। अदब की दुनिया में बत्तीस साल की उम्र ज्यादा नहीं मानी जाती। यह उम्र साहित्य के आंंगन में पेंग भरने की तो होती है, लेकिन अक्सर पेंग इतनी ऊँची नहीं होती कि कोई झूले से उछलकर उड़नखटोले में पहुँच जाए और आसमान को छू ले। इस लिहाज से झुम्पा सौभाग्यशाली हैं।

झुम्पा जन्म से भारतीय नहीं हैं। उसका जन्म सन्‌ 1967 में लंदन में हुआ। वे रोड प्रायद्वीप में पली-बढ़ीं। लंदन में बर्नार्ड कॉलेज से स्नातक होने केपश्चात उन्होंने बोस्टन विश्वविद्यालय से अँगरेजी साहित्य-रचनात्मक लेखन, तुलनात्मक अध्ययन और कला में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की। सुश्री लाहिड़ी उन लेखकों में एक हैं, जिनकी ख्याति कहानी-दर-कहानी आगे बढ़ती है। उनके व्यक्तित्व के साथ पुरस्कारों की लड़ी गुँथी हुई है। उनकी कहानी 'इंटरप्रीटर ऑफ मैलेडीज', जो बाद में उनके पुरस्कृत संकलन का शीर्षक बनी, को सर्वश्रेष्ठ अमेरिकी कथा के तौर पर ओ हेनरी सम्मान से नवाजा गया। हेनफील्ड फाउंडेशन ने उन्हें ट्रांसअटलांटिक अवार्ड तो दिया, तो 'लुईविले रिव्यू' ने गल्प पुरस्कार।

प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि सुश्री लाहिड़ी प्रोविंसटाउन में फाइन आर्ट्‌स वर्कसेंटर की फेलो भी हैं।' उनके पुरस्कृत कथा संकलन का प्रकाशन हाउटन मिकलिन कंपनी ने किया है। इस संकलन की अनेक कहानियाभारतीय उत्प्रवासियों के जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों पर आधारित हैं। पुलित्जर पुरस्कार की जूरी की सदस्या सुश्री वेंडी लेसर का कहना है कि वे इस कहानी संग्रह को लेकर रोमांचित हैं। वे कहती हैं कि अन्य निर्णायकों ने भी इसे काफी पसंद किया।

वेंडी के अनुसार झुम्पा को पुरस्कार दिए जाने से अमेरिका के साहित्य जगत को विस्मय हुआ है, क्योंकि 'इंटरप्रीटर ऑफ मैलेडीज' लेखिका की कहानियों का पहला संकलन है। झुम्पा के रचना जगत पर दृष्टिपात से कुछ बातें बरबस उभरती हैं। झुम्पा के पास दो चीजें हैं, जड़ों से उखड़ने का दर्द और जड़ें जमाने की बेचैनी। यह पीड़ा और बेचैनी उन्हें अन्य अमेरिकी लेखकों से भिन्ना पायदान पर खड़ा कर देती है। अमेरिका में बसी झुम्पा कहती हैं- 'यह मेरे लिए घर है। फिर भी मैं हलकी-सी अजनबीयत महसूस करती हूँ।' 'आउट साइडर' या अजनबी होने का यह भाव क्या अनेक भारतवंशी अथवा भारतीय मूल के लेखकों की सोच और लेखन का केंद्रीय तत्व नहीं है?

'इंटरप्रीटर ऑफ मैलेडीज' की कहानियों का फलक भी कलकत्ता और अमेरिका के अनुभवों के मध्य फैला हुआ है। कलकत्ता झुम्पा का नगर नहीं है किंतु झुम्पा की जातीय स्मृतियों की जड़ें कलकत्ता में हैं। वे लंदन में जनमीं, लेकिन उनके वंशवृक्ष की जड़ें उनके जन्मस्थान लंदन या अमेरिका, जहावे बसी हुई हैं, में नहीं होकर उस सुदूर कलकत्ता में हैं, जहाँ उनके पुरखों ने स्वप्न और संघर्षभरा जीवन जिया था तथा किन्हीं विशिष्ट या आपात परिस्थितियों में वे जिसे अलविदा कहकर लंदन चले आए थे। यह बात मायने रखती है कि झुम्पा एक नहीं अनेक बार कलकत्ता आईं। कलकत्ता की इन यात्राओं ने उन्हें विविध अनुभवों से सम्पृक्त किया।

यूभी कलकत्ता हर किसी को लेखन की भरपूर सामग्री जुटाता आया है, चाहे नोबेल विजेता गुंटर ग्रास हों अथवा डोमीनीक लेपियर। इसी क्रम में सुश्री लाहिड़ी कहती हैं- मेरी कलकत्ता यात्राओं ने मेरे रचनात्मक स्रोतों को समृद्ध किया है। वे कह सकते हैं कि सुश्री-लाहिड़ी की कहानियाउनके सांद्र अनुभवों की अभिव्यक्ति हैं। इन कहानियों में निर्वासन की पीड़ा है, स्मृति के दंश हैं और एक लोकसे दूसरे लोक की यात्रा के मध्य हुई क्षति का आंशिक वृत्तांत भी है। इस बात के लिए सुश्री लाहिड़ी की सराहना करनी होगी कि उनमें लेखकीय ईमानदारी और साफगोई शेष है। उनकी सोच और अभिव्यक्ति में फाँक नहीं है।

उन्होंने गत वर्ष जून में 'इंडिया वेस्ट' को दिए साक्षात्कार में भारतीय उपमहाद्वीप के साथ अपने संबंधों की चर्चा करते हुए स्पष्ट कहा था कि वे स्वयं को भारत संबंधी मामलों का विशेषज्ञ नहीं मानतीं। वे यह भी नहीं मानती कि वे पूरी तौर पर भारतीय हैं। उन्हें यह भी नहीं पता कि दक्षिण एशियाई मूल के नागरिकों की विशेष पहचान क्या है? वे कहती हैं- 'मैं सिर्फ किसी व्यक्ति के जीवन को दुनिया के सम्मुख रखने का प्रयास करती हूँ।

इस तरह के व्यक्ति भारतीय इसलिए होते हैं, क्योंकि उन्हें भारतीय नागरिकों की अच्छी परख है, 'साफगो झुम्पा यह बात नहीं छिपाती कि अमेरिका में उन्हें आज भी भावनात्मक निर्वासन की अनुभूति होती है। लंदन में जन्मी, अमेरिका में बसी भारतीय मूल की सुश्री झुम्पा लाहिड़ी अपनी पहली ही कृति से बड़ी उपलब्धि पाने के नाते बधाई की हकदार हैं। मगर इस प्रतिभाशाली बंग-अमेरिकी लेखिका को अभी एक लंबा सफर तय करना है। इन दिनों वे उपन्यास लिखने में व्यस्त हैं। आशा करनी चाहिए कि उनके प्रथम कहानी-संकलन की भाँति उनका प्रथम उपन्यास भी नए कीर्तिमान रचेगा।