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साहित्य लेखन : कैसे करें शुरुआत

article | साहित्य लेखन : कैसे करें शुरुआत
- वेद हिमांशु
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एक नवोदित युवा साहित्यकार असमंजस के जाल में उलझा हुआ लगभग हतप्रभ किस्म का ऐसा शख्स होता है, जो अपेक्षित सफलता न मिलने पर बहुत हताश हो जाता है और संयोगवश यदि कोई रचना भेजते ही दिल्ली या मुंबई की किसी 'ग्लैमरस' पत्रिका में छप जाए तो वह तब भी अवाक रह जाता है।

ये दोनों ही स्थितियाँ ठीक नहीं हैं, क्योंकि ये स्थिर नहीं हैं, जो उसे सही दिशा दे सके, उसकी रचनात्मकताओं को निरंतरता दे सके। आइए, इस पर कुछ विचार करें। किसी भी नए (युवा) लेखक की सबसे बड़ी समस्या अभिव्यक्ति की होती है, अनुभूति की नहीं। समस्या यह होती है कि वह अपनी अनुभूति को किस विधा/शिल्प में आकार दे?

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छंदबद्ध लिखे या छंद मुक्त (नई कविता)! दरअसल, यह समस्या वह अपने आसपास देखकर स्वयं ही बुन लेता है यानी वह जब देखता है कि इन दिनों गजलें खूब छप रही हैं या दोहों को पत्र-पत्रिकाओं में खूब स्थान मिल रहा है या नई कविता खूब सम्मान पा रही है तो वह प्रचार की चकाचौंध में अपने विचारों को, जो कि उस विधा के नहीं हैं, जबर्दस्ती उस शिल्प में थोपने की कोशिश करता है।

तात्पर्य यह है कि आपकी अनुभूति जिस विधा में सहजता से अभिव्यक्त हो सके, आप उसी में लिखिए, सफलता तभी मिलेगी। यदि आप में काव्य की कूवत है और कथा विस्तार की क्षमता नहीं है तो मत लिखिए, कहानी कोई जरूरी नहीं है।

नए लेखकों के सामने दूसरी बड़ी समस्या आती है प्रकाशन की। अक्सर यह मान लिया जाता है कि बड़े अखबार या पत्रिकाएँ सिर्फ बड़े लेखकों की ही रचनाएँ छापती हैं (कुछ अपवादों को छोड़ दें तो)। यह पूर्ण सत्य नहीं है।

प्रायः होता यह है कि दिल्ली, मुंबई की रंगीन पत्रिकाओं में बड़े लेखकों की रचनाएँ देख-देखकर नया लेखक भी ऐसे ही रंगीन सपने बुन लेता है कि वह भी उनमें मय फोटो/ परिचय के छप रहा है। वह उन पत्रिकाओं में रचनाएँ भेजना प्रारंभ कर देता है और निरंतर असफल होने पर हताश होकर कुंठाग्रस्त हो जाता है, जिसकी दुखद परिणति यह होती है कि वह प्रकाशित होने वाले अपने आसपास के लेखकों से ईर्ष्या करने के मनोरोग से पीड़ित हो जाता है।

अपने अनुभव की बात कहूँ। दरअसल, रचनाओं के नहीं छपने की एकमात्र यही वजह नहीं होती कि आपकी रचना अच्छी नहीं है या फिर आप प्रसिद्ध नहीं हैं। वास्तव में इसके पीछे तथ्य यह है कि हर पत्र-पत्रिका के संपादक मंडल की अपनी एक रचनात्मक रुचि होती है। उसका तयशुदा पाठक वर्ग होता है।

जैसे यह कि पत्रिका शुद्ध रोमानी गीत-गजल पसंद करती है और आपने भूख, रोटी या खून-खराबे (जनवादी) की रचना भेज दी या जनवादी आग्रह वाली पत्रिका में रोमानी गीत भेज दिए तो इसके लिए जरूरी सिर्फ यह है कि आप अपनी रचना के अनुसार पत्र-पत्रिका तय करें।

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इस क्रम में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि लघु पत्रिकाएँ, जो कि युवा सृजनात्मकता की सही संवाहक हैं, उनसे अपने प्रकाशन की शुरुआत करें। निरंतर प्रकाशन से आपको प्रोत्साहन मिलेगा और आत्मविश्वास में वृद्धि होगी। तब पहचान स्थापित हो जाने पर स्वतः ही बड़ी पत्रिकाओं में भी आपको स्थान मिलेगा, फिर निरंतर सृजन का सुख तो है ही।

वास्तव में लेखक समाज की ही इकाई है, समाज से अलग नहीं। अतः मात्र 'लेखक' हो जाने से महानता का मोह पाल लेना उसकी सबसे बड़ी भूल है। हमारे आसपास बहुत-से ऐसे (तथाकथित) लेखक मिल जाएँगे, जिनकी कनपटियों पर सींग पाए जाते हैं, जिन्हें प्रणाम करने के लिए हम सिर उठाते हैं तो हमारी टोपी गिर जाती है।

यह सिद्ध सत्य है कि फलदायी वृक्ष झुकता है। अतः विनम्रता लेखकों में अनिवार्य रूप से होना चाहिए। वरिष्ठों का सम्मान करने का संस्कार उसमें होना ही चाहिए, क्योंकि यह मनुष्यता का गुण है और एक अच्छा साहित्यकार, अच्छा मनुष्य होता है, संपूर्ण मनुष्य होता है।