मंगलवार, 16 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. »
  3. साहित्य
  4. »
  5. आलेख
Written By WD

राजेंद्र यादव : विवाद के विवर में विसर्जन

- प्रभु जोशी (चित्रकार- कहानीकार)

राजेंद्र यादव : विवाद के विवर में विसर्जन -
ND
हिंदी कहानी के समकालीन-संसार में विवादों का विराट वितान रचने वाले कथाकार राजेंद्र यादव की विदाई ने हमेशा के लिए विवर्ण कर दिया है उन तमाम सुर्ख बहसों-मुबाहिसों का रंग, जो लगभग समूचे साहित्यिक-जगत में पिछले तीन दशकों से चलती आ रही थीं। गुजिश्ता वक्त की हिंदी कहानी को लेकर की जाने वाली शायद ही कोई बहस ऐसी रही हो, जिसका आगाज व अंत राजेंद्र यादव की स्तुति या निंदा के बिना हुआ हो।

राजेंद्र यादव अपनी पत्रिका "हंस" पर सवार होकर "नई कहानी" के धुंधले हो चुके इलाके से बाहर आए थे। नई कहानी युग की कमलेश्वर, राजेंद्र यादव और मोहन राकेश की त्रयी भंग हो चुकी थी। कहानी के केंद्रीय विधा होने का हल्ला खत्म हो गया था। चौतरफा "कविता की वापसी" का स्वागत गान चल रहा था। पर इसी के साथ राजेंद्र यादव ने प्रेमचंद के "हंस" को पुनर्जीवित किया और वह देखते-देखते साहित्य के अंतरिक्ष में परिक्रमा करने लगा।

राजेंद्र यादव ने आत्मनिर्वासन से मुक्ति पाई और दमित अस्मिताओं के उफान में अपने ओजस्वित विचारों से ऐसी आहुति दी कि चौतरफा लपटें उठने लगीं। दलित और स्त्री-विमर्श के वे प्रखर प्रवक्ता पद पर आसीन हो गए और एक छोटे-से वक्फे में ही उन्होंने हिंदी में एक नई कथा-पीढ़ी खड़ी कर दी, जिसने अपने अग्रजों की आराधना को लज्जास्पद होना मान लिया।

स्त्री की मुक्ति "देह-मुक्ति" में ही संभव है, इस विचार को उन्होंने कथा-साहित्य में ऐसे कालजयी विचार की तरह स्थापित करना शुरू किया कि हिंदी कहानी में एक नई "यौन-दृष्टि" अपराजेय बन गई। बेशक इस विचार की कथात्मक अन्विति के लिए उन्होंने नए लेखक और लेखिकाओं को प्रोत्साहित भी किया। यह उनका एक बहुत बड़ा अवदान भी है।

कहना न होगा कि दरियागंज की उस गली का अक्षर प्रकाशन वाला वह पुराना दफ्तर नए कथाकारों के लिए हिमाद्रि-स्नान का घाट बन गया। हिंदी की साहित्यिक बिरादरी अकादमियों की इमारतों के बजाय वहां मंडराने लगी। मैं जब भी "हंस" के कार्यालय में गया, वहां देशभर के हिंदी इलाकों से आए साहित्यकारों का जिरह करता समूह ही बरामद हुआ। राजेंद्रजी उनके बीच अपने चुस्त जुमलों से चुटकियां लिया करते थे। मैंने इतना अनौपचारिक और खुला माहौल जीवन में किसी भी साहित्यकार के यहां नहीं देखा। वहां जनतंत्र का अतिरेक मिलता था। कोई भी उनके समक्ष उनकी "भूरि-भूरि भर्त्सना" कर सकता था और वे उसमें एक "आनंदवाद" की सृष्टि करते दिखाई देते थे।

मुझे याद है, उन्होंने मेरे "पेन और इंक" में किए गए कुछेक ब्लैक एंड व्हाइट न्यूड्‌स छापे तो विवाद साल भर सनसनाता रहा। उनकी चिट्‌ठी आई : "तुम मुझे जूते पड़वा के अपने एकांतवास में लौट गए हो। राक्षस कहीं के! जल्दी से "कला में न्यूड्‌स" पर एक टिप्पणी भेजो।" मैंने कहा कि "एक कृति के लिए सही जगह कलादीर्घा है। वहां वही आता है, जिसकी कला में रुचि हो। आपने "हंस" पर न्यूड्‌स को सवार करके जगत-दर्शन में बदला तो अब आप भुगतो।" बाद इसके उन्होंने "हंस" में कला में श्लील-अश्लील पर एक धमाकेदार संपादकीय लिखा और बहस को उलटा दिया। कुछ समय बाद मैं मिला तो बोले : "कमबख्त! मैं चाहता था, तुम कुछ लिख दो तो विवाद को और हवा मिल जाए!"

दरअस्ल, विवाद से वे घबराते नहीं थे। बल्कि कहना चाहिए विवाद को जन्म देते और उसका विलंबित सोहर गाते रहते थे। विवाद में वे न औरों को बख्शते थे, न खुद को। उनमें इस स्तर पर गहरी जनतांत्रिकता थी, जो अभी लगभग अलभ्य है। साहित्य में अहम्‌ के इतने और ऐसे अष्टावक्र हैं, जो अपनी असहमति में उठी आवाज ही नहीं, आवाज उठाने वाले सिर को भी कुचल डालने में अपना पुरुषार्थ समझते हैं। जबकि राजेंद्र यादव असहमति का सम्मान ही नहीं, उसका स्वागत और उसकी प्रतिष्ठा करते थे। वे आलोचना के आतंकवाद से मुक्ति दिलाने वाले पहले संपादक और लेखक थे। लिहाजा, कहना चाहिए कि उन्होंने कमलेश्वर के बाद कथा-आलोचना के लिए जगह बनाई।

यों तो उनसे हुई पचासों मुलाकातों की असंख्य स्मृतियां जेहन में भरी पड़ी हैं, लेकिन उस दिन की स्मृति बहुत दिनों तक पीछा करती रही। तब वे एम्स में भर्ती थे और मैं संयोग से दिल्ली में ही था, नतीजतन जीवनसिंह ठाकुर के साथ उन्हें वहां देखने पहुंच गया। वह दिल्ली की धुंएले दिन की गर्द में उलझी उदास शाम थी। मैं सोच रहा था, साहित्य की दुनिया के इतने बड़े आदमी की बीमारी की वजह से वहां भीड़ होगी।

हम जब प्रायवेट वार्ड के कमरे के निकट पहुंचे तो एक बिल्ली गुजरी। बावजूद अपनी तमाम बौद्धिकता के मैंने किंचित्‌ आशंकित दृष्टि से बिल्ली को ठिठककर देखा, तो जीवनसिंह ने कहा : "यार डॉक्टर, ये बिल्ली अपने गले में घंटी बंधवाने आई है राजेंद्र यादव से।" हमने परिहास में अपनी उस उदासी और भय को बाहर घेर दिया।

अस्पताल के कमरे में झांककर देखा, वे नितांत अकेले थे और पलंग पर उठंग-से बैठे किसी किताब का पन्ना पलट रहे थे। लगा, जीवन के इस उतरार्द्ध में वे विदाई के पहले कोई पाठ पढ़ रहे हैं क्या? आहट से उन्होंने सिर उठाकर देखा और बोले : "चकमा उस्ताद! तुम!" मैंने कहा कि चकमा देने का इरादा तो आपका लग रहा है। वे ठहाका मारकर हंसे :"मेरे पाप तुम लोगों के पुण्यों पर भारी हैं। अभी नहीं मरूंगा।" हालांकि, उन दिनों भी बाहर, साहित्य और शहर में एक "शब्द" को लेकर विवाद चल रहा था और उसमें भी उनकी भूमिका की भर्त्सना हो रही थी।

अभी भी वे विवादों और भर्त्सनाओं के बीच ही थे। विवाद उन्हें जिंदा रखने में इमदाद करते थे, लेकिन अबकी बार के विवाद के विवर में वे विसर्जित हो गए। गले में घंटी बांधने में माहिर वे, मृत्यु के गले में कोई घंटी नहीं बांध पाए। बांध सके होते तो निश्चय ही सुन लेते कि बिल्ली उनकी ओर आ रही है। वे सतर्क हो जाते। लेकिन, मौत ने उन्हें यह मौका ही नहीं दिया। निश्चय ही उनके जाने से एक बड़ा शून्य उभर आया है, जो बेशक बहुत लंबे समय तक नहीं भर पाएगा। उन्हें मेरा नमन।

- (नईदुनिया से साभार)